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Showing posts from November, 2017

भाग 1 अध्याय 1

अथ गीतगोविन्दम् अथ प्रथम: सर्ग: १ मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामस्तमालद्रुमैर्नक्त्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे! गृहं प्रापय। इत्थं नन्दनिदेशतश्र्चलितयो: प्रत्यध्व कुञ्जद्रुमं राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रह:केलर:।। १।। भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनकी मित्रमण्डली ब्रजराज के साथ वृन्दावन की मनोरम छटा देखते-देखते कुछ दूर निकल गयी। सहसा गगन मण्डल मेघों से आच्छादित हो गया। उस समय तमाल वृक्षों की सघन पंक्त्तियों से वनस्थली काली-काली दिखाई देने लगी, नन्द ने सोचा सांयकाल होना ही चाहता है। जंगल का मामला है, कृष्ण रात में भयभीत हो जायेंगे , इसलिए इन्हें पहले से ही घर पँहुचा देना ठीक होगा। उन्होंने कृष्ण के ऊपर अधिक स्नेह रखने वाली राधा से कहा- तुम जाओ और इन्हें भी साथ में ले जाकर घर पँहुचा देना। नन्द की आज्ञा मिलते ही राधा कृष्ण के साथ चलीं। कालिन्दी का तट सघन कुञ्जों से अलंकृत वनपथ तथा सुखदायी एकान्त इन सुविधाओं से परम प्रसन्न कौतुकी श्रीकृष्ण की प्रेममूर्ति राधा के साथ सम्पन्न क्रीडाएँ संसार में अपनी समता नहीं रखतीं ।। १ ।। वाग्देवता-चरितचित्रित-चित्तसद्मा पद्मावती-चरण-चारण-चक्रवर्ती। श्रीवा

भाग 2 अध्याय 1

अथ श्रीगीतगोविन्दम् अथ प्रथम: सर्ग: अथ द्वितीय: प्रबन्ध: वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्विभ्रते दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते। पौलस्त्यं जयते हवं कलयते कारुण्यमातन्वते म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नम:।।१।। हे भगवान् ! आपने मीन रूप धारण कर प्रलय के जल से वेद शास्त्र की रक्षा की, कूर्म रूप धारण कर पृथ्वी को पीठ पर वहन किया, वाराहरूप धारण कर निज दन्तों से पृथ्वी को पानी में से उठाया, नरसिंह रूप धारण करके हिरण्यकशिपु का संहार किया, वामनरूप धारण कर बलिराज कि छलन किया, परशुराम रूप धारण करके क्षत्रियों का संहार किया, राम रूप धारण करके रावण का हनन किया, हलायुध रूप धारण करके यमुना को खींचा, बुद्ध रूप धारण करके अहिंसा धर्म को प्रकाशित किया और अब कल्कि रूप धारण करके महाभ्रष्ट म्लेच्छ लोगों का विनाश करेंगे। अत: दशाविधरूप धारण करने वाले प्रभु ! आपके चरण कमलों में मेरा नित्य प्रति साष्टांग दण्डवत् प्रणाम है।। १।। श्रितकमलाकुचमण्डल धृतकुण्डल ऐ कलितललितवनमाल जय जय देव हरे।। ध्रुव।। १।। हे भगवान् ! आप लक्ष्मी देवी के सुन्दर वक्षस्थल से क्रीडा करते हैं, आप कर

भाग 3 अद्याय 1

अथ श्रीगीतगोविन्दम् अथ प्रथम: सर्ग: १ पद्यापयोधरतटीपरिरम्भलग्नकाश्मीर-मुद्रितमुरो मधुसूदनस्य। व्यक्त्तनुरागमिव खेलदनंगखेदस्वेदा-म्बुपूरमनुपूरयतु प्रियं व:।। १।। श्रंगार रस में लग्न राधाजी के स्तनद्वय में लगे हुए केशर की शोभा से युक्त वृन्दावन बिहारी का हृदय आप लोगों का मंगल करे।। १।। वसन्ते वासन्तीकुसुमसुकुमारैरवयवै-भ्रमन्तीं कान्तारे बहुविहितकृष्णानुसरणाम्। अमन्दं कन्दर्पज्वरजनितचिन्ताकुल-तया चलद्बाधां राधां सरसमिदमुचे सहचरी।। २।। वसन्त ऋतु में कामदेव के उग्र बाण से पीडित राधा श्रीकृष्णचन्द्रजी से मिलने के हेतु वासन्ती पुष्पों से परिपूर्ण वन के मध्य में भ्रमण करने लगी। उस समय श्रीवृषभानुनन्दनी राधिका की कोई प्रिय सहेली उदासीन राधा को देखकर कहने लगी।। २।। वसन्तरागे रुपकताले अषटपदी।।३।। ललितलवंगलतापरिशीलनकोमल- मलयसमीरे मधुकरनिकरकरम्बितकोकिल- कूजितकुञ्जकुटीरे। विहरति हरिरिह सरस वसन्ते नृत्यतियुवतीजनेन समं सखी विरहिजनस्य दुरन्ते।। १।। ध्रुव० हे सखी ! यह मलयवत् पवन लवंगलता के निकुञ्जवन को आलिंगित कर रहा है, भ्रमर और कोकिलादिक पक्षीगण अपनी-अपनी मधुर ध्वनि सेक्या मन को आनन्द

भाग 4 अध्याय 1

अथ श्रीगीतगोविन्दम् अथ प्रथम: सर्ग: दरविदलितमल्लीवल्लिचञ्चत्पराग- प्रकटितपटवासैर्वासयन्काननानि। इह ही दहति चेत: केतकीगन्धबन्धु: प्रसरदसमबाणप्राणवद्गन्धवाह:।।१।। हे राधे ! इस वसन्त के समय में कुछ खिली हुई चमेली की लताओं से, उडती हुई पुष्पों की रजों से वन को सुगन्धित करता हुआ केतकी के गन्ध से सुगन्धित पवन कामदेव के बाण के समान वियोगियों केचित्त को दग्ध करता है अर्थात् इस वसन्त समय में सुगन्धित वायु से विरहीजनों का चित्त उन्मत्त हो रहा है, इस कारण है वृषभानुनन्दिनी ! ऐसे समय आपका गमन उचित है।। १।। उन्मीलन्मधुगन्धलुब्धमधुपव्याधूत- चूताङ्कुरक्रीडाताकोकिलकाकली-कलरवैरुद्गीर्णकर्णज्वरा:। नीयन्ते पथिकै: कथं कथमपि ध्याना-वधानक्षणप्राप्तप्राणसमासमागम- रसोल्लासैरमी वासरा:।। २।। है सखी ! जितना ही आम्रमुकुल की गन्ध की विस्तारित होता है, उतना ही मधुगन्धलुब्ध भ्रमर उनको कम्पायमान करते हैं, वैसे ही पवन से झकोरों को प्राप्त आम्रवृक्षों के सिर पर बैठकर कोकिलाएँ कुहु-कुहु शब्द से विरही पथिकों के कानों में विशेष पीडा देती हैं । हाय ! ऐसे पथिक (मार्ग चलने वालों) आज अपनी प्राण-प्रिया का चिन्तन कर

भाग 5 अध्याय 2

यह श्रीराधा व श्रीकृष्ण की अन्तरंग लीला से सम्बन्धित है~ अथ श्रीगीतगोविन्दम् अथ द्वितीय: सर्ग: विहरति वने राधा साधारणप्रणये हरौ विगलितनिजोत्कर्षादीर्ष्यावशेन गता न्यत:। क्वचिदपि लताकुञ्जे गुञ्जन्मधुव्रत- मण्डलीमुखरशिखरे लीना दीनाप्युवाच रह: सखीम्।। १।। श्रीकृष्णचन्द्रजी के प्रेम में उन्मत्त श्रीराधा ने और स्त्रियों के साथ क्रीडाकौतुक में लगे हुए उन्हें देख कर अपने हृदय में ईर्ष्या करके मधुपानमत्त भ्रमणगणों से सेवित लता कुञ्ज के पीछे छिप कर निज सखी से अत्यन्त खेद युक्त्त होकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया। १। गुर्जररागे रुपकताले अष्टपदी।। ५।। संचरदधरसुधामधुरध्वनिमुखरित-मोहनवंशम्। चलितदृगञ्चलमौलिकपोलविलोल-वतंसम्।। रासे हरिमिह विहितविलासं स्मरति मनो  मम कृतपरिहासम्।। ध्रुव०।। १। हे प्रिये ! कृष्णचन्द्र के केश मयूरपुच्छ के  सदृश शोभायमान हो रहे हैं और उनकी कान्ति इन्द्रधनुष के समान शोभित हो रही है।। २।। गोपकदम्बनितम्बवतीमुखचुम्बनल- लम्भितलोभम्। बन्धुजीवमधुराधरपल्लवमुल्लसित- स्मितशोभम्।। रासे०।। ३।। हे सखी ! कृष्णजी ने नितम्बवती गोपबालाओं के मुख कमलों का चुम्बन करने के लिए लोभ कि