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Showing posts from February, 2019

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39- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार बस, उसी के द्वारा ये सारे काम हुये। नहीं तो यह काम हो नहीं सकते। भगवान की यह लीला-रासलीला हुई योगमाया के प्रकाश में, योगमाया के द्वारा। अघटन क्या हुआ इसमें? अघटन क्या, जो कहीं कल्पना नहीं हो सकती, वह हुआ। भगवान का मायामुग्ध हो जाना ही अघटन घटना है।इसलिए भगवान अपने ऐश्वर्य वीर्यादि महाशक्ति के द्वारा जो अघटन करते हैं वह घटना भगवान को मोहित नहीं कर सकती। वह तो जगत में अघटन घटना करते हैं। विश्व को बना दें, बिगाड़ दें, कुछ भी कर दें। अघटन घटना हो जाय हमारी दृष्टि में, उससे भगवान मुग्ध नहीं होते। वह तो सावधान रहते हुये सब काम करते हैं परन्तु रासलीला में यदि भगवान स्वयं मुग्ध नहीं होते यदि वे जगत्पति होकर अपनी स्वरूपाशक्ति की घनीभूतमूर्ति गोपरमणियों के ‘उप’ सजकर लीला न करते तो इस अघटनघटनापटीयसी भगवान की स्वशक्ति का प्रकाश नहीं होता। भगवान ने अपनी माया से मुग्ध होकर गोपर मणियों में ‘पर’ भावना करके निभृत यमुना-पुलिन पर रासक्रीडा का रसास्वादन किया। रासलीला श्रीभगवान की आत्ममोहन लीला है।माया के तीन कार्य हुये- विमुखमोहन उन्मुखमोहन और आत्ममोहन। य

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37- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार जो अन्तर्मुख हैं उनकी सारी प्रीति, सारा प्रेम रहता है भगवत-चरणों में समर्पित और जो बहिर्मुख जीव हैं उनकी वृत्ति, उनकी प्रीति, उनका स्नेह, उनकी आसक्ति रहती है घर में, पुत्रों में, घर की चीजों में, सामान में, मकान में, जमीन में और जिनको सन्तान मानते हैं उनमें।बलदेवजी ने देखा कि ये तो बहिर्मुख जीव है नहीं। यह हैं तो भगवान के सारे-के-सारे सेवक तो आज ये गायें और ये गोपांगनाएँ अपने बालकों से और अपने बछड़ों से प्रेम कैसे करनी लगीं? यह किसकी माया से मुग्ध हैं। यह बलदेवजी के मन में आया। क्यों यह शंका आयी? इसलिये कि श्रीकृष्ण भक्त माया से मुग्ध होते नहीं। यह बहिर्मुख जीव तो माया से मुग्ध होते हैं और भगवान के जो भक्त हैं उन पर यहाँ की चीज है। व्रज के रहस्य को समझने के लिये यह देखना है कि जो यहाँ की माया से बद्ध है, जो यहाँ की माया के वशीभूत हैं, जो यहाँ के पदार्थों में, प्राणियों में आसक्ति-प्रीति रखते हैं वो मायिक जीव कृष्ण भक्त ही नहीं है। जो कृष्ण भक्त हैं वे इस माया से मुग्ध होते नहीं। इस माया से परे रहते हैं। क्यों? चैतन्य महाप्रभु के जीवन में ह

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38- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार अतरंगा माया भक्तों को अन्तरंग में ले जाती है। भगवान के रहस्यमय रंगमहल में ले आती है। लीला क्षेत्र में ले आती है और बहिर्मुख मोहिनी माया जो बहिरंगा माया है यह जगत् में भरमाती है और भगवान में शरणागति के बिना इस माया से छुटकारा नहीं मिल सकता।भगवान अपने भक्तों को अन्तरंगा माया से मुग्ध करके उनके प्रेमानुरूप लीला करते हैं। उनकी मनोवासना पूर्ण करते हैं परन्तु रासलीला में एक और विशेषता है। कहते है कि इस लीला में भगवान केवल अपने भक्तों को ही मायामुग्ध करके लीला के सौष्ठव को सम्पादन करने में समर्थ नहीं हुए-इस लीला में उन्होंने अपने को भी मायामुग्ध किया। मो-विषये गोपीगणेर उपपति भावे योगमाया करिवेक आपन प्रभावे॥ यह बड़ा सुन्दर भाव है। योगमाया से यह कार्य हुआ कि भगवान ने भी अपने को कुछ और ही समझा- अमिह ना जानि ताहा, न जाने गोपीगण दोंहार रूप-गुणे दोंहार नित्य हरे मन॥ धर्म छांड़ि रागे दोंहे करये मिलन कभु मिले, कभु ना मिले, दैवेर घटन॥ एइ सब रसनिर्यास करिव आस्वाद एइ द्वारे करिब सर्वभक्तेरे प्रसाद॥ ब्रजेर निर्मल राग शुनि भक्तगण रागमार्गे भजे येन

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36- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार श्रीभगवान ने व्रजलीला में वात्सल्य-सख्य रसास्वादन के बाद जब परम प्रेमवती व्रजरमणियों के मधुर रसास्वादन का विचार किया, उसमें जब प्रवृत्त हुये तब योगमाया शक्ति का पूर्ण विकास कर दिया-मुपाश्रितः अर्थात प्रकाश। भगवान ने अपनी अचिन्त्य महाशक्ति को इशारा किया कि पूर्ण रूप से प्रकट होकर इस लीला में पूरा-पूरा, सारा-का-सारा जहाँ जो आवश्यक है उसको तुम ठीक करो। तो भगवान ने अपनी रासलीला में सब प्रकार अघटन-संघटन कराने के लिये अचिन्त्य महाशक्तिरूपा योगमाया शक्ति को प्रकाश किया। यहाँ पर अब कई बातें मन में उदित हो जाती हैं। जो इस रहस्य में प्रवेश करते हैं उनके हृदय में भगवान नाना प्रकार की अर्थ की भावना उत्पन्न करते हैं। शास्त्रों में प्रधानरूप से दो प्रकार की शक्ति-माया और योगमाया का वर्णन है। यों तो अनेक भेद हैं। ‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायायासमावृतः’ और दैवी ह्मेषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥ इन दो गीता-वचनों में योगमाया और माया; इन दो मायाओं के नाम आते हैं और उन दोनों के कार्यों के परिचय में भी कुछ विभिन्नता