भाग 5 अध्याय 2

यह श्रीराधा व श्रीकृष्ण की अन्तरंग लीला से सम्बन्धित है~
अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ द्वितीय: सर्ग:
विहरति वने राधा साधारणप्रणये हरौ
विगलितनिजोत्कर्षादीर्ष्यावशेन गता न्यत:।
क्वचिदपि लताकुञ्जे गुञ्जन्मधुव्रत-
मण्डलीमुखरशिखरे लीना दीनाप्युवाच रह: सखीम्।। १।।
श्रीकृष्णचन्द्रजी के प्रेम में उन्मत्त श्रीराधा ने और स्त्रियों के साथ क्रीडाकौतुक में लगे हुए उन्हें देख कर अपने हृदय में ईर्ष्या करके मधुपानमत्त भ्रमणगणों से सेवित लता कुञ्ज के पीछे छिप कर निज सखी से अत्यन्त खेद युक्त्त होकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया। १।
गुर्जररागे रुपकताले अष्टपदी।। ५।।
संचरदधरसुधामधुरध्वनिमुखरित-मोहनवंशम्।
चलितदृगञ्चलमौलिकपोलविलोल-वतंसम्।।
रासे हरिमिह विहितविलासं स्मरति मनो  मम कृतपरिहासम्।। ध्रुव०।। १।
हे प्रिये ! कृष्णचन्द्र के केश मयूरपुच्छ के  सदृश शोभायमान हो रहे हैं और उनकी कान्ति इन्द्रधनुष के समान शोभित हो रही है।। २।।
गोपकदम्बनितम्बवतीमुखचुम्बनल- लम्भितलोभम्।
बन्धुजीवमधुराधरपल्लवमुल्लसित- स्मितशोभम्।। रासे०।। ३।।
हे सखी ! कृष्णजी ने नितम्बवती गोपबालाओं के मुख कमलों का चुम्बन करने के लिए लोभ किया है कि जिनके अधर पल्लव बन्धुजीव के समान मधुर हैं, हँसी से जिनकी शोभा उल्लसित हो रही है, ऐसे श्रीकृष्णजी को मेरा मन स्मरण करता है।। ३।।
विपुलपुलकभुजपल्लव वलयित-वल्लव युवतिसहस्रम्।
करचरणोरसि मणिगणभूषणकिरण-विभिन्नतमिस्रम्।। रासे०।। ४।।
जिन हरि ने नवीन पल्लवस्वरूप कोमल हाथों से हजारों गोप कामिनियों को अलंकृत किया है, जिन हरि के हाथों और चरणों के भूषणों से समस्त अंधकार का नाश होता है, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रजी को मेरा मन स्मरण करता है।। ४।।
जलदपटलचलदिन्दुविनिदकचन्दन- तिलकललाटम्।
पीनपयोधरपरिसरमर्दननिर्दयहृदय-कपाटम्।। रासे०।। ५।।
हे सखी ! जिनके ललाट में लगा चन्दन मेघों के समूह में चञ्चल चन्द्रमा की निन्दा करता है और गोपियों के पुष्ट स्तनों के प्रान्त भाग के मर्दन करने में जिनका वक्षस्थल दबता नहीं है, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रजी को मेरा मन स्मरण करता है।। ५।।
मणिमयमकरमनोहर-कुण्डलमण्डित
-गण्डमुदारम्।
पीतवसनमनुगतमुनिमनुजसुरासुर-वरपरिवारम्।। रासे०।। ६।।
हे सखी ! जिन हरि के गण्डदेश में अत्यन्त सुन्दर मणियों के कुण्डला-भूषण शोभायमान हो रहे हैं और जिनके चरण कमल की सेवा ऋषि, मनुष्य, देवता, असुरादि भी करते हैं, जिन हरि ने अपने सुन्दर पीताम्बर से अद्भुत कोमल अंगों को शोभित किया है, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्रजी को मेरा मन स्मरण करता है।। ६।।
विशदकदम्बतले मिलितं कलिकलुषभयं शमयन्तम्।
मामपि किमपि तरंगदनंगदृशा मनसा रमयन्तम्।। रासे०।। ७।।
हे सखि ! अत्यन्त सुन्दर कदम्ब के नीचे मिलने वाले कलिकाल में उत्पन्न हुए पाप भय के नाशक तथा कामक्रीडा को बढाने वाली दृष्टि से देखने वाले और हृदय से मेरे साथ रमण करने वाले श्रीकृष्णचन्द्रजी को मेरा मन स्मरण करता है।। ७।।
श्रीजयदेवभणितमतिसुन्दरमोहन-मधुरिपुरूपम्।
हरिचरणस्मरणं प्रति सम्प्रति पुण्यवतामनुरूपम्।। रासे०।। ८।।
श्रीजयदेव कवि रचित अति सुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र के रूप का वर्णन इस कलिकाल में भक्त्तों को हरिचरणों के स्मरण के लिए उपयुक्त होवे।। ८।।
इति श्रीगीतगोविन्दे पञ्चम:प्रबन्ध:।५

Comments

Popular posts from this blog

12

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1