भाग 1 अध्याय 1

अथ गीतगोविन्दम्
अथ प्रथम: सर्ग: १
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामस्तमालद्रुमैर्नक्त्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे! गृहं प्रापय।
इत्थं नन्दनिदेशतश्र्चलितयो: प्रत्यध्व कुञ्जद्रुमं राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रह:केलर:।। १।।
भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनकी मित्रमण्डली ब्रजराज के साथ वृन्दावन की मनोरम छटा देखते-देखते कुछ दूर निकल गयी। सहसा गगन मण्डल मेघों से आच्छादित हो गया। उस समय तमाल वृक्षों की सघन पंक्त्तियों से वनस्थली काली-काली दिखाई देने लगी, नन्द ने सोचा सांयकाल होना ही चाहता है। जंगल का मामला है, कृष्ण रात में भयभीत हो जायेंगे , इसलिए इन्हें पहले से ही घर पँहुचा देना ठीक होगा। उन्होंने कृष्ण के ऊपर अधिक स्नेह रखने वाली राधा से कहा- तुम जाओ और इन्हें भी साथ में ले जाकर घर पँहुचा देना। नन्द की आज्ञा मिलते ही राधा कृष्ण के साथ चलीं। कालिन्दी का तट सघन कुञ्जों से अलंकृत वनपथ तथा सुखदायी एकान्त इन सुविधाओं से परम प्रसन्न कौतुकी श्रीकृष्ण की प्रेममूर्ति राधा के साथ सम्पन्न क्रीडाएँ संसार में अपनी समता नहीं रखतीं ।। १ ।।
वाग्देवता-चरितचित्रित-चित्तसद्मा
पद्मावती-चरण-चारण-चक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथासमेतमेतं
करोति  जयदेवकवि:  प्रबन्धम्।। २।।
श्रीसरस्वती की अद्भुत लीलाओं से अलंकृत हृदय तथा श्रीराधा के चरण सेवकों में प्रधान श्रीजयदेव कवि, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की प्रेमलीलाओं से परिपूर्ण इस गीत- गोविन्द नामक प्रबन्ध का निर्माण करते हैं।। २ ।।
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकान्तपदावलीं श्रृणु
तदा   जयदेव सरस्वतीम्।। ३ ।।
हे भक्त्तजनो ! यदि श्रीकृष्णचन्द्रजी का ध्यान करके अपना हृदय शीतल करना चाहो और वृन्दावनविहारी की रासलीला व कानन-क्रीडा सुनने की इच्छा करो, तो जयदेव कविराज विरचित गीतगोविन्द नामक पुस्तक का पाठ श्रवण करो।। ३ ।।
वाच: पल्लवयत्युमापतिधर: संदर्भशुद्धिं गिरां जानीते जयदेव एव शरण: श्लाघ्यो दुरूहद्रुते:।
श्रृग्ङारोत्तरसत्प्रमेयरचनैराचार्य-गोर्वधनस्पर्द्धी को पि न विश्रुत: श्रुतिधरो धोयी कवि क्ष्मापति:।। ४।।
कवि उमापतिधरजी वाक्य-विन्यास में श्रेष्ठ थे, श्रीगोवर्धनाचार्यजी श्रृंगार-रस पुराण कविताकरने से मान को प्राप्त हुए थे, इसी भाँति धोयी कविराज को सुनने मात्र से ही याद हो जाता था, "किन्तु श्रीजयदेव कवि-राज विशुद्ध रचना के लिए आदरणीय हैं।। ४ ।।
प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम्
विहितवहित्रचरित्रमखेदम्
केशव! धृतमीनशरीर जय जगदीश हरे।। ध्रुव०।। १ ।।
हे भगवान् ! प्रलयके समय आपने बिना परिश्रम समुद्रतरण के लिए नौका की तरह चेष्टित मीन रूप धारण करके वेदशास्त्र की रक्षा की थी। हे मीन रूपधारी भगवान् ! तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।।१।।
क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे
धरणिधरणकिणचक्रगरिष्ठे
केशव ! धृतकच्छपरूप जय जगदीश हरे।। २।।
है भगवान् ! आपने अपनी विपुलतर पीठ पर पृथ्वी को धारण किया था, इसी कारण आपके पृष्ठ पर व्रण (घाव) हो चिन्ह है। हे जगदीश ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो।।२।।
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना
शशिनि कलंक कलेव निमग्ना।।
केशव! धृतसूकररूप जय जगदीश हरे।। ३।।
हे केशव ! आपने सूकर रूप धारण करके प्रलय के जल से पृथ्वी का निज दाँतों से उद्धार किया। इसी कारण आपके दाँतों में प्राप्त पृथ्वी कलंक रेखा के सदृश शोभायमान हो रही है। हे जगदीश ! तुम्हारी सदा ही जय हो, जय हो, जय हो।। ३।।
तव करकमलवरे नगमद्भुतश्रृग्ङम्।
दलितहिरण्यकशिपुतनुभृग्ङम्।।
केशव ! धृतनरहरिरूप जय जगदीश हरे।। ४।।
हे केशव ! आपने नृसिंहरूप धारण कर श्रेष्ठ करकमल पर आश्र्चर्य पैदा करने वाले अद्भुत श्रृग्ङरूप नखों को धारण किया और उन्हीं नखों से दैत्यराज हिरण्यकशिपु कि विनाश किया। इस कारण हे भक्त्तवत्सल भगवान् ! तुम्हारी सदैव ही जय हो, जय हो, जय हो।। ४।।
छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन।
पदनखनीरजनितजनपावन।।
केशव ! धृतवामनरूप जय जगदीश हरे।। ५।।
हे केशव ! आपने वामनरूप धारण करके बलि को छला था और आपही ने अपने चरणकमलों से निकले हुए जल से समस्त लोगों को पवित्र किया था। हे भक्त्तजन रक्षक ! तुम्हारी जय हो,जय हो, जय हो।।५।।
क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापम्।
स्नपयसि पयसि शमितभवतापम्।।
केशव ! धृतभृगुपतिरूप जय जगदीश हरे।। ६।।
हे परशुराम रूप धारण करने वाले भगवान् ! आपने परशुराम रूप धारण कर कठोरात्मा क्षत्रियों का विनाश करके उन्हीं के रुधिर से पृथ्वी को तृप्त किया था। हे भगवान् !
हे जगदीश ! आपकी जय हो,जय हो, जय हो।। ६।।
वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयम्
दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्।।
केशव धृतरामशरीर जय जगदीश हरे।। ७।।
हे भगवान् ! आपने समस्त लोगों पर दया करने के हेतु राम रूप धारण करके सभी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए राक्षसराज रावण का संहार किया था। है भगवान् ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो।। ७।।
वहसि वपुषि विषदे वसनं जलदाभम्।
हलहतिभीतिमिलितयमुनामम्।।
केशव ! धृतहलधररूप जय जगदीश हरे।। ८।।
हे भगवान् ! आपने हलधर रूप धारण करके मेघ सदृश नील वस्त्र धारण किया, तब आपके शुभांग में वह नीलवसन हलभीता यमुना का स्वरूप शोभायमान हुआ था।
हे जगदीश ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो।। ८।।
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम्।
सदयहृदय दर्शितपशुघातम्।।
केशव ! धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे।। ९।।
हे भगवान् ! आपने ही जीवों पर दया करने हेतु बुद्ध रूप धारण करके, पृथ्वी में जितने यज्ञ पशुहिंसा प्रधान हुआ करते थे उनकी निन्दा की ।
हे बुद्ध रूपधारी भगवान् ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो ।। ९।।
म्लेच्छनिवहनिधनेकलयसिकरवालम्
धूमकेतुमिव किमपि करालम्।।
केशव ! धृतकल्किशरीर जय जगदीश हरे।। १०।।
हे भगवान् ! आपने दुष्ट म्लेच्छों के नाश के हेतु धूमकेतु स्वरूप खड्ग धारण किया था। हे कल्कि रूप भगवान् ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो।। १०।।
श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारम् ।
श्रृणु  सुखदं  शुभदं  भवसारम्।।
केशव ! धृतदशविधरूप जय जगदीश हरे।। ११।।
श्रीजयदेव रचित यह स्तोत्र सब स्तोत्रों में श्रेष्ठ है। है भक्तगण ! इसको भक्त्तिभाव युक्त्त प्रीति पूर्वक आनन्द से श्रवण करो। हे दश अवतारों को धारण करने वाले भक्त्त वत्सल दयालु ! आपकी जय हो,जय  हो, जय हो ।। ११।।
इति श्रीगीतगोविन्दे प्रथम: प्रबन्ध:।१।

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