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71- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पाँचवाँ अध्याय ब्रह्मन वे स्वयं धर्म-मर्यादाओं की रचना करने वाले उनकी रक्षा करने वाले तथा उपदेशक थे। फिर, उन भगवान ने स्वयं धर्म के विपरीत परस्त्रियों का अंगस्पर्श कैसे और क्यों किया? भगवान श्रीकृष्ण तो नित्य पूर्णकाम हैं, उनके मन में कभी कोई कामना जागती ही नहीं; फिर यादवेन्द्र भगवान ने किस अभिप्राय से ऐसा निन्दनीय कर्म किया? उत्तम निष्ठा वाले श्रीशुकदेवजी! आप कृपापूर्वक मेरे इस संदेह को दूर कीजिये॥27,28,29॥ श्रीशुक उवाच धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्। तेजीयसां न दोषाय वह्ने सर्वभुजो यथा॥30॥ परीक्षित के इस संदेहयुक्त प्रश्न से विरक्तशिरोमणि शुकदेव जी के द्वारा प्रवाहित लीलारस का प्रवाह रुक गया और वे परीक्षित का संदेह दूर करने के लिये लौकिक युक्तिपूर्ण वचन बोले- श्रीशुकदेव जी ने कहा - परीक्षित! कर्म की अधीनता से मुक्त ईश्वरकोटि के महान तेजस्वी देवताओं द्वारा कभी-कभी धर्म का उल्लंघन तथा ऐसे परम साहस के कार्य होते देखे जाते हैं। परन्तु उन कार्यो से उन तेजस्वी देवताओं का कोई दोष नहीं माना जाता। जैसे अग्नि शवदेहादिपर्यन्त सब कुछ