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Showing posts from March, 2019

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71- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पाँचवाँ अध्याय ब्रह्मन वे स्वयं धर्म-मर्यादाओं की रचना करने वाले उनकी रक्षा करने वाले तथा उपदेशक थे। फिर, उन भगवान ने स्वयं धर्म के विपरीत परस्त्रियों का अंगस्पर्श कैसे और क्यों किया? भगवान श्रीकृष्ण तो नित्य पूर्णकाम हैं, उनके मन में कभी कोई कामना जागती ही नहीं; फिर यादवेन्द्र भगवान ने किस अभिप्राय से ऐसा निन्दनीय कर्म किया? उत्तम निष्ठा वाले श्रीशुकदेवजी! आप कृपापूर्वक मेरे इस संदेह को दूर कीजिये॥27,28,29॥ श्रीशुक उवाच धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्। तेजीयसां न दोषाय वह्ने सर्वभुजो यथा॥30॥ परीक्षित के इस संदेहयुक्त प्रश्न से विरक्तशिरोमणि शुकदेव जी के द्वारा प्रवाहित लीलारस का प्रवाह रुक गया और वे परीक्षित का संदेह दूर करने के लिये लौकिक युक्तिपूर्ण वचन बोले- श्रीशुकदेव जी ने कहा - परीक्षित! कर्म की अधीनता से मुक्त ईश्वरकोटि के महान तेजस्वी देवताओं द्वारा कभी-कभी धर्म का उल्लंघन तथा ऐसे परम साहस के कार्य होते देखे जाते हैं। परन्तु उन कार्यो से उन तेजस्वी देवताओं का कोई दोष नहीं माना जाता। जैसे अग्नि शवदेहादिपर्यन्त सब कुछ

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65- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार द्वितीय अध्याय इस बीच में उधर यह लीला हुई कि श्रीकृष्णचन्द्र दूसरी व्रज वनिताओं को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी को एकान्त में ले गये थे, उसके मन में यह अभिमान का भाव आ गया कि ‘मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये प्यारे श्यामसुन्दर सब गोपियों को छोड़कर एकमात्र मुझको ही चाहते हैं और मुझको ही भज रहे हैं - मुझसे ही सुख प्राप्त कर रहे हैं’॥36-37॥ ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत्‌। न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः॥38॥ इस प्रकार अभिमान का आविर्भाव होने पर वह गोपी वन में एक स्थान पर जाकर सौभाग्यमद से मतवाली हो गयी और श्रीकृष्ण से-जो ब्रह्मा और शंकर के भी शासक हैं - कहने लगी - ‘अब तो मुझसे चला नहीं जाता। मेरे कोमल चरण थक गये हैं, अतः तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर वहाँ ले चलो’॥38॥ एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति। ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत॥39॥ अपनी प्रियतमा की गर्व भरी वाणी सुनकर श्री श्यामसुन्दर ने उससे कहा - ‘अच्छा प्रिये! अब तुम मेरे कंधे पर चढ़ जाओ।’ यह सुनकर ज्यों ही वह गोपी कंधे प

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66- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार तृतीय अध्याय विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्। करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्॥5॥ हे यादवों में श्रेष्ठ! संसार से-जन्म-मरण के चक्र से भयभीत होकर जो प्राणी तुम्हारे चरणों की शरण में आ जाते हैं, तुम्हारे कर-कमल उनको अभय कर देते हैं। श्री लक्ष्मी जी के कर-कमल को धारण करने वाला तथा सबकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला वह अपना कर-कमल हमारे सिर पर रख दो-शीघ्र दर्शन देकर हमें भी अभय कर दो॥5॥ व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित। भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय॥6॥ हे व्रजवासियों के दुःखों का नाश करने वाले वीरशिरोमणि! तुम्हारी मधुर मन्द मुस्कान तुम्हारे प्रेमीजनों के गर्व ध्वंस करने वाली है। हे हमारे प्राणसखा! हम सब तुम्हारी दासियाँ हैं, हमें अवश्य प्रेमदान दो और हम अबलाओं को अपना मनोहर मुखकमल दिखलाकर सुखी करो॥6॥ प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्। फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्॥7॥ तुम्हारे जो चरण-कमल शरण में आये हुए मनुष्यों के समस्त

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67- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार तृतीय अध्याय उस समय पलकों का गिरना हमें असह्य हो जाता है; क्योंकि उतने समय तक तुम्हारे दर्शन से नेत्र वञ्चित रहते हैं। इसलिये हमें जान पड़ता है कि नेत्रों पर पलकें बनाने वाला विधाता मूर्ख है॥15॥ पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा- नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः। गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि॥16॥ प्रियतम! तुम कभी अपने प्रेममय स्वभाव से च्युत नहीं होते। तुम चतुर-शिरोमणि भलीभाँति जानते हो कि हम सब तुम्हारे मुरली गान से मोहित होकर अपने पति-पुत्र, भाई-बन्धु, कुल-परिजन- सबका त्याग करके उनकी इच्छा का अतिक्रमण करके तुम्हारे पास आयी हैं। फिर भी तुम हमें छोड़कर चले गये। अरे कपटी! इस प्रकार की घोर रात्रि के समय शरण में आयी हुई तरुणियों को तुम्हारे अतिरिक्त और कौन त्याग सकता है॥16॥ रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्। बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः॥17॥ प्रियतम! तुमने एकान्त में हम से प्रेमभरी बातें की हैं, तुम्हारा वह प्रेमालाप, प्रेम की कामना को उद्दीप्त करने वाला तुम्हारा मुसकाता हुआ मुख-कम