भाग 3 अद्याय 1

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ प्रथम: सर्ग: १

पद्यापयोधरतटीपरिरम्भलग्नकाश्मीर-मुद्रितमुरो मधुसूदनस्य।
व्यक्त्तनुरागमिव खेलदनंगखेदस्वेदा-म्बुपूरमनुपूरयतु प्रियं व:।। १।।
श्रंगार रस में लग्न राधाजी के स्तनद्वय में लगे हुए केशर की शोभा से युक्त वृन्दावन बिहारी का हृदय आप लोगों का मंगल करे।। १।।
वसन्ते वासन्तीकुसुमसुकुमारैरवयवै-भ्रमन्तीं कान्तारे बहुविहितकृष्णानुसरणाम्।
अमन्दं कन्दर्पज्वरजनितचिन्ताकुल-तया चलद्बाधां राधां सरसमिदमुचे सहचरी।। २।।
वसन्त ऋतु में कामदेव के उग्र बाण से पीडित राधा श्रीकृष्णचन्द्रजी से मिलने के हेतु वासन्ती पुष्पों से परिपूर्ण वन के मध्य में भ्रमण करने लगी। उस समय श्रीवृषभानुनन्दनी राधिका की कोई प्रिय सहेली उदासीन राधा को देखकर कहने लगी।। २।।
वसन्तरागे रुपकताले अषटपदी।।३।।
ललितलवंगलतापरिशीलनकोमल-
मलयसमीरे मधुकरनिकरकरम्बितकोकिल-
कूजितकुञ्जकुटीरे।
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते
नृत्यतियुवतीजनेन समं सखी विरहिजनस्य दुरन्ते।। १।। ध्रुव०
हे सखी ! यह मलयवत् पवन लवंगलता के निकुञ्जवन को आलिंगित कर रहा है, भ्रमर और कोकिलादिक पक्षीगण अपनी-अपनी मधुर ध्वनि सेक्या मन को आनन्द दे रहे हैं और स्वयं नारायण वसन्त ऋतु में नारियों के समूह से युक्त्त निकुञ्ज वन में अति सुन्दर नृत्य कर रहे हैं। हे सखी ! वसन्त ऋतु विरहीजनों को अत्यन्त दु:खदायी होता है।। १।।
उन्मदमदनमनोरथपथिकवधूजन-जनितविलापे।
अलिकुलसंकुलकुसुमसमूहनिराकुल-बकुलकलापे।। २।।
यह वही वसन्त है जिसमें काम की तीव्र अभिलाषाओं से पथिक-वधू उन्मत्त होकर विलाप किया करती हैं और बकुल के फूलों पर भ्रमर बैठते हैं जिससे बकुल वृक्ष ही झुक जाते हैं।
मृदमदसौरभरभसबंशवदनवदल-मालतमाले।
युवजनहृदयविदारणमनसिजन-खरुचिकिंशुकजाले।। ३।।
तमाल वृक्षों के नवीन पल्लवों की कस्तूरी तुल्य सुगन्ध से निकुञ्ज वन व्याप्त है। यह निकुञ्ज पलाश के पुष्पों से चारों ओर सुवर्ण सदृश हो रहा है। इसे देखने से यही प्रतीत हो होता है कि कामदेव विरहीजनों के हृदय को विदीर्ण करने के लिए अपने नखों को विस्तृत कर रहे हैं।। ३।।
मदनमहीपतिकनकदण्डरुचिकेशर-कुसुमविकासे।
मिलितशिलीमुखपाटलापटलकृत-स्मरतूणविलांसे।। ४।।
कहीं-कहीं नाग केशर लता फूल रही है, उससे यह ज्ञात होता है कि कामदेव ने सिर पर सुवर्ण छत्र धारण किया है। किसी-किसी स्थान में पाटली के फूल खिल रहे हैं और उन पर मत्त भ्रमणगण गुंजार करते हैं। इससे प्रतीत होता है कि मदन का तूण बाणों से भरा है।। ४।।
विगलितलज्जितजगदवलोकनतरुण-करुणकृतहासे।
विरहिनिकृन्तनकुन्तमुखाकृतिकेतक-दन्तुरिताशे।। ५।।
हे सखी ! वसन्त ऋतु को देखकर समस्त संसार निर्लज्ज हो गया है। इसी कारण ये नवीन वरुण के वृक्ष फूलने के व्याज से उसकी हंसी कर रहे हैं। देखिये तो सही यह केतकी के पुष्प भल्लाकार मुख धारण किये विरहीजनों के हृदय को भली भाँति वेधित कर रहे हैं।। ५।।
माधविकापरिमलललितेनवमालिक-यातिसुगन्धौ।
मुनियनसामपि मोहनकारिणि
तरुणाकारणबन्धौ।। ६।।
यह वसन्त का समय माधवी (चमेली) और नवमल्लिका पुष्पों की सुगन्ध से अत्यन्त ललित है, इससे जितेन्द्रिय सत्यवादी सन्तजन भी मोहित हो जाते हैं। यह वसन्त इस समय युवक-युवतियों का अकारण बन्धु है।। ६।।
स्फुरदतिमुक्त्तलतापरिरम्भणमुकु-लितपुलकितचूते।
वृन्दावनविपिने परिसरपरिगतयमुना
-जलपूते।। ७।।
आम्रवृक्ष चमेली लता से आलिंगित होकर मुकुलित और आनन्द से पुलकित हैं। पास में बहने वाली यमुना के जल से वृन्दावन पवित्र हो रहा है।। ७।।
श्रीजयदेवभणितमिदमुदयति हरिचरणस्मृतिसारम्।
सरसवसन्तसमयसमयवनवर्णन -
मनुगतमदनविकारम्।। ८।।
कविवर श्रीजयदेव स्वामी श्रीकृष्णचन्द्र के चरण कमल का अवलम्बन करके वृन्दावन के निकुञ्ज का वर्णन करते हैं और उसी के साथ वसन्त समय में "गोपीगणों के हृदय में जो विरह पीडा" हुई थी उसका भी वर्णन करते हैं।। ८।।
इति श्रीगीतगोविन्दे तृतीय: प्रबन्ध: ३

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