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Showing posts from January, 2019

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3- श्रीरास पंचाध्यायी- हनुमानप्रसाद पोद्दार भगवान आते हैं और हमारे मन को खुला नहीं देखते हैं, भगवान आते हैं पर हमारे मन को किसी के द्वारा पकड़ा हुआ देखते हैं, हमारे मन में किसी को बैठा देखते हैं। भगवान देखते हैं कि भाई इसका मन तो ख़ाली नहीं। इसका मन तो खुला नहीं और लौट जाते हैं। इसलिये मन को गोपियों ने खुला छोड़ दिया। सब चीजों से मन को खोल दिया। मन के जितने संसार के बन्धन थे वह त्याग दिये, काट दिये। ‘मदर्थे त्यक्त दैहिकाः’ तब क्या हुआ कि जब मन इनका ऐसा हो गया कि जिसमें संसार रहा नहीं तो भगवान ने आकर पकड़ लिया और फिर गोपियों के मन को अपने मन में ले गये और उनके मन को अपने मन में बैठा दिया। ‘ता मनमनस्काः’ का यही अर्थ है कि गोपियों का अपना मन था नहीं और उनके मन में श्रीकृष्ण का मन आ बैठा। उनका मन कहाँ गया? ‘कृष्णगृहीतमानसाः।’ गोपी भाव की जब हम बात करें तो सबसे पहले यह सोचना चाहिये कि हमारा मन संसार से मुक्त होकर ख़ाली होकर भगवान के द्वारा पकड़ा जा चुका है कि नहीं। भगवान ने हमारे मन को पकड़ लिया है कि नहीं। अगर नहीं पकड़ा है तो हम गोपी नहीं बन सकते हैं। कृष्णगृहीतमानसाः- उस वेणुगीत को

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2- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार गोपियों की दृष्टि में है केवल चिदानन्दस्वरूप प्रेमास्पद श्रीकृष्ण, बस, उनके हृदय में श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत आ गया है। यही उनके हृदय में छलकता रहता है। इसीलिये श्रीकृष्ण उनके हृदय के प्रेमामृत का रसास्वादन करने के लिये लालायित होते हैं, लालायित रहते हैं। इसीलिये श्रीकृष्ण ने मन की रचना की। इसीलिये उन्होंने गोपांगनाओं का आवाहन किया। इसीलिये इन शरद की रात्रियों को उन्होंने चुना और उनको बुलाया। यहाँ पर यह कल्पना नहीं करनी चाहिये कि यहाँ पर कोई जड़ देह है। यहाँ पर गोपियों को पहचानना चाहिये। शास्त्रों में आता है- औरों की बात छोड़ दीजिये, ब्रह्मा, शंकर, उद्धव, नारद और अर्जुन ऐसे-ऐसे लोगों ने गोपियों की उपासना करके और गोपी भाव की थोड़ी सी लीला देखने के लिये वरदान प्राप्त किया और अनुसूया, सावित्री इत्यादि देवियाँ जो हैं, महान पतिव्रता, ये गोपियों की चरणधूलि की उपासिका हैं। वो कितना बड़ा कि एक मात्र श्रीकृष्ण के अलावा और कोई पति है ही नहीं। इस बात को देखने वाली तो परम पतिव्रता गोपियाँ थीं और कोई था ही नहीं, ऐसा हुआ ही नहीं। यह उससे न

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4- श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार बच्चे बड़े प्यारे होते हैं। कोई-कोई बच्चों को दूध पिला रही थीं- ‘शिशून् पयः पाययन्त्यः’- शिशुओं को दूध पिलाती हुई भी छोड़कर दौड़ गयीं। शिशु रोते रहे और ‘काश्चितद् पतीन् शुश्रूषन्त्यः’- कुछ अपने पतियों की सेवा कर रही थीं। वे भी दौड़ गयीं। अब इसका उल्टा अर्थ जो ले लेगा वह धूल में जायेगा। यहाँ लौकिक अर्थ नहीं है। यह परम उच्च साधना की बात है। जहाँ जगत नहीं रहता है। इसलिये इसमें आगे बात आयी है। रासपञ्चाध्यायी पढ़े तो समझ में आयेगा कि भगवान ने पतियों की बात याद दिलायी जो साधारण स्त्रियों के लिये होती है। कुछ गोपियाँ खाना खा रही थीं। इतना स्वार्थ होता है कि आदमी सोचता कि खा लें तो चलें। ‘अश्नन्त्यं भोजनं अपास्य’ - कई भोजन कर रही थीं। थाली पड़ी रही वहीं पर। ‘अन्याः लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्यः- कुछ अंगराग लगा रही थीं और कुछ उबटन लगाकर नहा रही थीं और कुछ उबटन लगा चुकी थीं और नहाना था उनका उबटन लगा ही रह गया और छोड़कर चल दीं।कुछ नेत्रों में अन्जन लगा रही थीं- ‘काश्च लोचने अञ्जन्त्यः’ - एक आँख में काजल लगा लीं और दूसरे में वैसे ही रह गया, छूट गय। ‘काश

रासपंचादयायी 1

1- श्रीरास पंचाध्यायी- हनुमान प्रसाद पोद्दार आज रास-पूर्णिमा है। ‘रास’ शब्द को सुनकर हम लोग प्रायः जो रासलीला होती है उसी की ओर देखते हैं, दृष्टि वहीं जाती है। वह रासलीला भी उस दिव्य लीला को दिखाने के लिये ही है। इसलिये यह आदरणीय है परन्तु वह जो भगवान का रास है उसको थोड़ा-सा समझ लेना चाहिये। ‘रास’ शब्द का मूल है रस और रस है भगवान का रूप। ‘रसो वै सः।' एक ऐसी दिव्य क्रीडा होती है जिसमें एक ही रस अनेक रसों के रूप में होकर अनन्त-अनन्त रसों का समास्वादन करता है और यह एक ही रस-रस समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद्य, स्वयं ही आस्वादक, लीला, धाम, विभिन्न आलम्बन और उद्दीपन के रूप में प्रकट हो जाता है तथा एक दिव्य लीला होती है उसी का नाम ‘रास’ है। रास का अर्थ है लीलामय भगवान की लीला और वह लीला है भगवान का स्वरूप। रास भगवान का स्वरूप ही है। इसके सिवाय और कुछ नहीं। भगवान की जो दिव्य लीला है रास की, यह नित्य चलती रहती है और चलती ही रहेगी। इसका कोई ओर-छोर नहीं है। कब से शुरू हुई और कब तक चलती रहेगी यह कोई बता नहीं सकता है। कभी-कभी कुछ बड़े ऊँचे प्रेमी महानुभावों के प्रेमाकर्षण से हमा