भाग 4 अध्याय 1

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ प्रथम: सर्ग:
दरविदलितमल्लीवल्लिचञ्चत्पराग-
प्रकटितपटवासैर्वासयन्काननानि।
इह ही दहति चेत: केतकीगन्धबन्धु:
प्रसरदसमबाणप्राणवद्गन्धवाह:।।१।।
हे राधे ! इस वसन्त के समय में कुछ खिली हुई चमेली की लताओं से, उडती हुई पुष्पों की रजों से वन को सुगन्धित करता हुआ केतकी के गन्ध से सुगन्धित पवन कामदेव के बाण के समान वियोगियों केचित्त को दग्ध करता है अर्थात् इस वसन्त समय में सुगन्धित वायु से विरहीजनों का चित्त उन्मत्त हो रहा है, इस कारण
है वृषभानुनन्दिनी ! ऐसे समय आपका गमन उचित है।। १।।
उन्मीलन्मधुगन्धलुब्धमधुपव्याधूत-
चूताङ्कुरक्रीडाताकोकिलकाकली-कलरवैरुद्गीर्णकर्णज्वरा:।
नीयन्ते पथिकै: कथं कथमपि ध्याना-वधानक्षणप्राप्तप्राणसमासमागम-
रसोल्लासैरमी वासरा:।। २।।
है सखी ! जितना ही आम्रमुकुल की गन्ध की विस्तारित होता है, उतना ही मधुगन्धलुब्ध भ्रमर उनको कम्पायमान करते हैं, वैसे ही पवन से झकोरों को प्राप्त आम्रवृक्षों के सिर पर बैठकर कोकिलाएँ कुहु-कुहु शब्द से विरही पथिकों के कानों में विशेष पीडा देती हैं । हाय ! ऐसे पथिक (मार्ग चलने वालों) आज अपनी प्राण-प्रिया का चिन्तन करते समय बिताते हैं और चिन्ता के कारण काल्पनिक क्षणिक सुख को प्राप्त होकर पश्र्चात् अत्यन्त क्लेश से दिन  व्यतीत करते हैं।। २।।
अनेकनारीपरिरम्भसम्भ्रमस्फुरन्मनो-हारिविलासलालसम्।
मुरारिमारादुपदर्शयन्त्यसौ सखी समक्षं पुनराह राधिकाम्।। ३।।
अनेक स्त्रियों के आलिंगन के आदर से मनोहर विलास में प्रगट लालसा वाले श्रीकृष्णचन्द्रजी को दूर से प्रत्यक्ष दिखाती हुई सखी पुन: राधिकाजी के प्रति बोली।। ३।।
रामकरीरागे रुपकताले अष्टपदी।४।
चन्दनचर्चितनीलकलेवरपीतवसन-वनमाली।
केलिचलन्मणिकुण्डलमण्डितगण्ड-युगस्मितशाली।।
हरिरिह मग्धवधनिकरे विलासिनि विलसति केलिपरे।।ध्रुव०।। १।।
हे कृष्णविलासिनी राधे ! श्रीकृष्णचन्द्रजी ने चन्दन का अपने नील अंगों में लेपन किया है और पीताम्बर ने उनके अंगों को सुशोभित किया है, कंठ में सुन्दर वनमाला धारण की है, श्रीकृष्णजी के कपोल, मुस्कान सहित कामविलास के कारण अत्यन्त शोभा को प्राप्त हो रहे हैं और उनके कुण्डलों के हिलने से मुख की शोभा अपूर्व हो रही है। इस भाँति श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द इसी वन में ब्रजबालाओं के साथ क्रीडा में तत्पर हैं।। १।।
पीनपयोधरभारभरेण हरिं परिरभ्य सरागम्।
गोप-वधूरनुगायति काचिदुदञ्चित-
पञ्चमरागम्।। हरिरिह०।। २।।
हे राधे ! कोई-कोई उन्नतस्तनी गोप-वधू प्रेम से उन्मत्त होकर कृष्णजी को आलिंगन करके पंचम राग में गीत गाती हैं।। २।।
कापि विलासविलोलविलोचनखेलन-जनितमनोजम्।
ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदन-वदनसरोजम्।। हरिरिह०।। ३।।
श्रीकृष्णजी के भ्रूभंग से मोहित होकर कोई-कोई गोपकामिनी उनके मदन-विकासित मुखकमल का ध्यान करके बहुत ही आनन्द को प्राप्त होती है।। ३।।
कापि कपोलतले मिलिता लपितुं किमपि श्रुतिमूले।
चारु चुचुम्ब नितम्बवती दयितं पुलकैरनुकूले।। हरिरिह०।। ४।।
किसी-किसी गोपांगना ने गुप्त वार्ता कहने के बहाने श्रीकृष्णजीके कर्ण के समीप अपने मुख को ले जाकर चातुरीपूर्ण ढंग से श्रीकृष्णजी के मुखकमल का आनन्द पूर्वक चुम्बन कर लिया।। ४।।
केलिकलाकुतुकेन च काचिदमुं यमुनाजलकूले।
मञ्जुलवञ्जुलकुञ्जगतं विचकर्ष करेण दुकुले।। हरिरिह०।। ५।।
कोई गोपी क्रीडा की इच्छा से यमुना जल के तट पर बेतों के कुञ्ज में बिहार करते हुए श्रीकृष्णचन्द्रजी का दुपट्टा हाथ से पकड कर खींचने लगी। अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्रजी के संग काम-केलि के आनन्द को भोगने की उसने इच्छा प्रकट की।। ५।।
करतलतालतरलवलयावलिकलित-कलस्वनवंशे ।
रासरसे सह नृत्यपरा हरिणा युवति: प्रशंशसे।। हरिरिह०।। ६।।
किसी रमणी ने कृष्णजी के साथ नाचते हुए करतल के साथ कंगन की ध्वनि भी उनकी वंशी के साथ मिला दी, इस ध्वनि को सुनकर श्रीकृष्णचन्द्रजी ने उस रमणी की अत्यन्त ही प्रशंसा की।। ६।।
श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि कामपि रमयति रामाम् ।
पश्यति सस्मितचारु परामपरा-मनुगच्छति वामाम्।।हरिरिह०।। ७।।
श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज किसी गोपी को आलिंगन करते हैं, किसी के मुख का चुम्बन करते हैं, किसी गोपी के संग काम क्रीडा करते हैं और किसी को हँसकर मनोहर दृष्टि से देखते हैं और किसी-किसी गोपी के संग पीछे-पीछे भी चलते हैं।। ७।।
श्रीजयदेवकवेरिदमद्भुतकेशवकेलि-रहस्यम्।
वृन्दावनविपिने ललितं वितनोतु शुभानि यशस्यम्।। हरिरिह०।। ८।।
अनेक रसों से परिपूर्ण, केशव क्रीडा का रहस्य, गोपियों को आनन्दप्रद, जयदेव कविकृत यह गीत भक्त्तों को मंगल दे।। ८।।
इति श्रीगीतगोविन्दे चतुर्थ: प्रबन्ध:।४

Comments

Popular posts from this blog

12

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1