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श्रीरासपंचाध्यायी
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इसलिये माँ चारों तरफ निगाह रखती है, चौकन्नी रहती है कि यह बड़ा उधमी, बड़ा चपल है, न मालूम कब क्या कर बैठे? बुद्धि तो हैं नहीं इसमें। तो शासन में रखती है सम्भाल रखती है, रक्षा करती है, नेह से पालती है और समय-समय पर तर्जन ताड़न मारन भी करती है। अँगुली दिखाती है कि खबरदार ऐसा फिर किया तो खबर ले ली जायेगी, तेरी सारी शरारत निकाल दूँगी। अच्छी सीख देती है न।बच्चे को सीख न दे और ख़ाली लाड़ ही लाड़ करे तो बच्चा बिगड़ जाय। इसलिये वात्सल्य रस में सीख दी जाती है, शिक्षा दी जाती है। श्रीमद्भागवत की दाम बन्धन लीला वात्सल्य प्रेमवती यशोदा मैया के वात्सल्य का एक समुज्जवल दृष्टान्त हैं। मैया ने लाठी भी हाथ में ले ली, डराया भी, धमकाया भी, पकड़ने को पीछे दौड़ी भी, ऊखल से बाँध भी दिया। कौन-सी बात बाकी रही? बाँधा क्यों? इसलिये कि कहीं गुस्से में आकर भाग गया जंगल में तो? और अपने को घर का काम भी करना है। यह माँगेगा थोड़ी देर बाद खाने को। कोई सेवक तो हैं नहीं। सबको भेद दिया बाहर कहीं माँग न ले और यह इतना चंचल है कि काम करने देगा नहीं और कहीं छोड़ के भाग जाय। आज गुस्से में आ गया है। कहीं जंगल में भाग गया तो मुश्किल होगी और पास बैठी रहें तो घर का काम कौन करे? तो चलो बाँध दो। बच्चा है बँधा रहेगा। इस प्रकार से वात्सल्य भाव में होता है।
वात्सल्य में सख्य भी है। वात्सल्य में दास्य भी है। माँ जितनी सेवा करती है बच्चे की उतना दास नहीं करता है। किसी भी दाई बाई को रखो, टट्टी धोने का काम माँ जैसा कोई करता ही नहीं। बीमार है, दुर्गन्ध आ रही है ऐसे बच्चे को गले लगाये ऐसा माँ के समान कोई सेवक सेविका होता ही नहीं है। माँ में दास्य रति है। माँ में अपनी सभी इन्द्रियों का दमन है; बच्चे के हित के लिये। माँ सोई है और बच्चा जाड़े में मूत्र में पड़ा है, दूसरा कपड़ा नहीं है तो माँ मूत्र में, गीले में आ जायेगी और बच्चे को सूखे में कर देगी। दमन इन्द्रियों का दमन, मन का दमन। दास्य रति में सलाह देना, मित्रता वाली बात पूरी-की-पूरी है। वात्सल्य शासन भी करती है तो वात्सल्य में सख्य भी है, वात्सल्य में दास्य भी है, वात्सल्य में शान्त भी है पर यहाँ भी सर्वात्मनिवेदन नहीं है। वात्सल्य में सर्वात्मनिवेदन नहीं हैं क्योंकि वात्सल्य में भी कुछ छिपाव है, मर्यादा है, कुछ दुराव है, कुछ सीमा है, कुछ संकोच है, संभ्रम और ढंग का है, बच्चे के सामने माँ का व्यवहार और पति के सामने पत्नी का व्यवहार। माँ का बड़ा ऊँचा वात्सल्य होते हुए भी संकोच में, शील में अन्तर है। कहते हैं कि इसलिये जैसे हीन बुद्धि की सेवा करने का अधिकार सख्य को नहीं, दास्य को नहीं, शांत को नहीं इसी प्रकार सर्वात्मनिवेदन रूप से सेवा करने का अधिकार वात्सल्य में भी नहीं।अतएव वात्सल्य प्रेम की अपेक्षा भी मधुर प्रेम जो है यह सबसे श्रेष्ठ है। मधुर रस की सेवा इन सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है क्योंकि इस रस में भक्त को अबाध रूप से सेवा प्राप्त होती है अर्थात औरों में कोई न कोई, कहीं न कहीं बाधा वर्तमान है। धर्म की, नीति की, शील की, मर्यादा की, संकोच की बाधा परन्तु निर्बाधरूप से भगवान की सर्वविध सब प्रकार की सेवा का अधिकार मुधर में ही प्राप्त होता है। इस रस के समान किसी रस में सेवा नहीं होती। भगवान के साथ नाना प्रकार से व्यवहार विलास आदि इस रस के सिवाय अन्यत्र नहीं होता। बहुत-सा इसका वर्णन है इसको छोड़ देते हैं।देह में और दैहिक पदार्थों में अहंता, ममता भाव रखकर जो संसार में रहते हैं बहिर्मुखजीव उनकी कोई बात ही नहीं है। प्रेम से सेवा करने वालों की जब आलोचना करते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि किसी अनिर्वचनयी सौभाग्य से जब सबके मूलस्वरूप परब्रह्म में मैपन की धारणा हो जाती है तब ऐसे सुख-दुःख से अतीत होकर सच्चिदानन्दघन परब्रह्म में विलीन हो जाता है साधक। यह ब्रह्माद्वैत की बड़ी ऊँची अवस्था है।
वह सब कुछ भूलकर छोड़कर सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित हो जाता है परन्तु जो भगवान के लीला-गुणादि के श्रवण से आकृष्ट होकर भगवान को प्यार कर सकते हैं वे संसार की सारी ममता को भूलकर भगवान के ममता रस में डूब जाते हैं। वे अपनी अहंता भगवान में विलीन कर देते हैं और ये भगवान के ममता रस में डूबते हैं जो ऐसे जो भगवान के ममतापन्न भक्त हैं वह निर्विशेषत्व को प्राप्त नहीं होते। मुक्त तो होते हैं; निर्विशेषत्व को प्राप्त नहीं होते परन्तु ममता के आनन्द में अपने को खो देते हैं और सेवानन्द का आस्वादन प्राप्त करने का सुयोग प्राप्त करते हैं। जो ब्रह्म में डूब जाते हैं वह सेवानन्द के आनन्द की उपलब्धि नहीं कर सकते-स्वरूपानन्द की करते हैं।इसलिये भगवान में अहं बुद्धिरूप ब्रह्मभाव में किसी प्रकार का विषय सम्बन्ध, वैश्विक सुख, अज्ञान, पीड़ा, दुःख न होने पर भी सच्चिदानन्द का आस्वादन नहीं है। सच्चिदानन्दरूप तो है पर आस्वादन नहीं है। ब्रह्मभाव अनुभूतिविहीन सच्चिदानन्द स्वरूपता मात्र है। किन्तु भगवान में ममता समर्पण करने शान्त भाव से वैश्विक सुख-दुःखादि को जब छोड़ देता हे तो यह पीड़ा वहाँ है नहीं। पर भगवान में ममतारूप परमानन्द का आस्वादन आरम्भ हो जाता है, शान्तरस से ही। बहिर्मुखभाव की अपेक्षा बहुत ऊँचा बहुत ऊँचा यह ब्रह्मभाव है। उसकी मिलान का शान्त भाव है पर शान्त भाव में भगवान में ममता होने के कारण से भक्तों की शान्त रस की दृष्टि से यह अधिक ऊँचा है। इससे भी ऊँचा दास्य रस है। श्रीकृष्ण की निष्ठा में दास्य-उससे सेवा प्राप्त होती है और शान्त में और दास्य में जो नजदीकपन नहीं है साभीप्य नहीं है वह सख्यरूप में है।विषय-वितृष्णा, कृष्णनिष्ठा और कृष्णसेवा यह तीनों सख्य में निःसंकोच प्राप्त होती है। वात्सल्य में सख्य के व्यापित गुण विद्यमान होने पर हीन ज्ञानरूप सेवाधिकार प्राप्त होता है।
(हनुमान प्रसाद पोद्दार)
क्रमश:
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