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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पाँचवाँ अध्याय

ब्रह्मन वे स्वयं धर्म-मर्यादाओं की रचना करने वाले उनकी रक्षा करने वाले तथा उपदेशक थे। फिर, उन भगवान ने स्वयं धर्म के विपरीत परस्त्रियों का अंगस्पर्श कैसे और क्यों किया? भगवान श्रीकृष्ण तो नित्य पूर्णकाम हैं, उनके मन में कभी कोई कामना जागती ही नहीं; फिर यादवेन्द्र भगवान ने किस अभिप्राय से ऐसा निन्दनीय कर्म किया? उत्तम निष्ठा वाले श्रीशुकदेवजी! आप कृपापूर्वक मेरे इस संदेह को दूर कीजिये॥27,28,29॥

श्रीशुक उवाच
धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्।
तेजीयसां न दोषाय वह्ने
सर्वभुजो यथा॥30॥
परीक्षित के इस संदेहयुक्त प्रश्न से विरक्तशिरोमणि शुकदेव जी के द्वारा प्रवाहित लीलारस का प्रवाह रुक गया और वे परीक्षित का संदेह दूर करने के लिये लौकिक युक्तिपूर्ण वचन बोले-

श्रीशुकदेव जी ने कहा - परीक्षित! कर्म की अधीनता से मुक्त ईश्वरकोटि के महान तेजस्वी देवताओं द्वारा कभी-कभी धर्म का उल्लंघन तथा ऐसे परम साहस के कार्य होते देखे जाते हैं। परन्तु उन कार्यो से उन तेजस्वी देवताओं का कोई दोष नहीं माना जाता। जैसे अग्नि शवदेहादिपर्यन्त सब कुछ खा जाता है, परंतु उसके उस कार्य को कोई भी दोषयुक्त नहीं मानता॥30॥

नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः।
विनश्यत्याचरन् मौढ्याद्यथारुद्रोऽब्धिजं विषम्॥31॥
परन्तु जो अनीश्वर हैं, समर्थ नहीं हैं, अजितेन्द्रिय तथा देहाभिमानी हैं, उन्हें, शरीर से तो दूर रहा, कभी मन से भी ऐसी चेष्टा नहीं करनी चाहिये। यदि कोई मूर्खतावश ईश्वर की इस लीला का अनुकरण करके इस प्रकार का आचरण कर बैठेगा तो वह नष्ट-पतित हो जायगा। भगवान शिव जी ने समुद्र से उत्पन्न हलाहल विष पी लिया था, पर उनकी देखा-देखी दूसरा कोई पीयेगा तो वह निश्चय ही जलकर भस्म हो जायगा॥31॥

ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्कचित्।
तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत्समाचरेत्॥32॥
इसलिये श्री शंकर के सदृश समर्थ देवताओं के वचनों का ही अधिकारानुसार यथार्थरूप से पालन करना चाहिये, उनके स्वच्छन्द आचरणों का नहीं। कहीं-कहीं उनके आचरणों का भी अनुकरण किया जा सकता है, परंतु बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि उनके उसी आचरण का अनुकरण करे, जो उनके उपदेश के सर्वथा अनुकूल हो॥32॥

कुशलाचरितेनैषामिह स्वार्थो न विद्यते।
विपर्ययेण वानर्थो निरहंकारिणां प्रभो॥33॥
राजा परीक्षित! इस संसार में ऐसे समर्थ ईश्वर सर्वथा अहंकारशून्य होते हैं। शुभ कर्म करने से उनका कोई स्वार्थसाधन-लाभ नहीं होता और उसके विपरीत लोक दृष्टि में अशुभ कर्म से उनकी कोई हानि नहीं होती। वे स्वार्थ या अनर्थ अर्थात लाभ-हानि और शुभ-अशुभ से ऊपर उठे होते हैं॥33॥

किमुताखिलसत्त्वानां तिर्यङ्मर्त्यदिवौकसाम्।
ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाकुशलान्वयः॥34॥
यह तो ईश्वरकोटि के समर्थ देवताओं तथा पुरुषों की बात है। भगवान श्रीकृष्ण तो पशु-पक्षी, कीट-पतंग, मनुष्य-देवता आदि समस्त चराचर जीवों के एकमात्र नियन्ता-शासक प्रभु, सर्वलोकमहेश्वर हैं। उनके साथ किसी लौकिक शुभ और अशुभ से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध हो ही कैसे सकता है॥34॥

यत्पादपंकजपरागनिषेवतृप्ता
योगप्रभावविधुताखिलकर्मबन्धाः।
स्वैरं चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमाना-
स्तस्येच्छयाऽऽत्तवपुषः कुत एव बन्धः॥35॥
जिनके चरण-कमलों की रज का सेवन करके भक्तजन पूर्णकाम हो जाते हैं, जिनके साथ मन का योग हो जाने के प्रभाव से योगी मुनिजनों के समस्त कर्मबन्धन कट जाते हैं, वे किसी भी विधि- निषेध को न मानकर स्वेच्छानुसार नियन्त्रण रहित स्वच्छन्द आचरण करते हुए भी बन्धन से सर्वथा मुक्त रहते हैं, वे ही साक्षात भगवान, जो कर्मबन्धन से पांचभौतिक देह को प्राप्त न होकर अपनी लीला से ही सच्चिदानन्दमय विग्रहरूप में प्रकट हुए हैं, उन कर्तु-अकर्तु-अन्यथा कर्तु समर्थ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में किसी प्रकार के कर्मबन्धन की कल्पना ही कैसे हो सकती है?॥35॥

गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम्।
योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक्॥36॥
जो भगवान गोपियों के उनके पतियों के तथा सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी आत्मारूप से विहार करते हैं, वे सबके साक्षी परमपति परमेश्वर ही दिव्य चिन्मय देह धारण करके यहाँ लीला कर रहे हैं॥36॥

अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः।
भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत्॥37॥
जीवों पर कृपा करने के लिये ही भगवान अपने सच्चिदानन्दघनस्वरूप को मनुष्य देह के रूप में प्रकट करके वैसी ही लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर मनुष्य उन भगवान के परायण हो जाता है। अतएव भगवान की इस दिव्य भावमयी लीला में तनिक भी संदेह नहीं करना चाहिये॥37॥

नासूयन् खलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया।
मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान् स्वान् दारान् व्रजौकसः॥38॥
यह भावमयी दिव्य लीला थी, जिसके कारण व्रजवासी गोपों ने भगवान की योगमाया से मोहित होकर ऐसा अनुभव किया कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही सोयी हैं और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की॥38॥

ब्रह्मरात्र उपावृत्ते वासुदेवानुमोदिताः।
अनिच्छन्त्यो ययुर्गोप्यः स्वगृहान् भगवत्प्रियाः॥39॥
फिर जब ब्राह्ममुहूर्त आ गया, तब भगवान की अत्यन्त प्यारी वे गोपसुन्दरियाँ अपने-अपने घरों को लौट गयीं। यद्यपि उनकी लौटकर जाने की तनिक भी इच्छा नहीं थी, तथापि वे अपनी प्रत्येक क्रिया से भगवान श्रीकृष्ण को ही सुखी करना चाहती थीं, उनमें श्रीकृष्ण-सुख से पृथक किसी निज-सुख की कामना तो थी नहीं, इसलिये वे भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा होते ही चली गयीं॥39॥

विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः
श्रद्धान्वितोऽनुश्रृणुयादथ वर्णयेद्यः।
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः॥40॥
जो धीर पुरुष व्रजललनाओं के साथ भगवान श्रीकृष्ण की इस दिव्य भावमय चिन्मय रासक्रीडा का श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करेगा, वह शीघ्र ही भगवान श्रीकृष्ण की पराभक्ति को-सर्वश्रेष्ठ प्रेमस्वरूपा भक्ति को प्राप्त हो जायगा तथा तुरन्त हृदय के विकाररूप लौकिक काम से सर्वथा मुक्त हो जायगा॥40॥

ग्रंथ विश्राम
जय श्री राधे राधे
जय श्री राधे राधे

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