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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पाँचवा अध्याय

भ्रमरों के दल सुर में सुर मिलाकर गान कर रहे थे। उस समय उनकी वेणियाँ में गुँथे हुए पुष्प खिसक-खिसकर गिरे जा रहे थे॥16॥

एवं परिष्वंगकराभिमर्शस्निग्धे-
क्षणोद्दामविलासहासैः
रेमे रमेशो व्रजसुन्दरी-
भिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः॥17॥
जैसे छोटा-सा शिशु निर्विकारभाव से अपनी परछाई के साथ खेलता है, वैसे ही रमानाथ भगवान श्रीकृष्ण कभी उन गोपियों का आलिंगन करते, कभी हाथों से उनका अंगस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरक्षी चितवन से उनकी ओर निहारते और कभी विलासपूर्ण रीति से खिलखिलाकर हँस पड़ते। इस प्रकार उन्होंने उन निजस्वरूपभूता व्रजसुन्दरियों के साथ रमण किया। (वस्तुतः भगवान श्रीकृष्ण की यह स्वरूपभूता लीला थी। गोपियाँ तत्त्वतः श्रीकृष्ण से अभिन्न थीं; पर जैसे बालक अपना मुख स्वयं न देख पाने के कारण उसके साथ खेल नहीं सकता, परंतु दर्पणादि में अपनी परछाई देखकर विचित्र भाव-भंगिमाओं से उसके साथ खेलकर आनन्द का अनुभव करता है, वैसे ही श्रीभगवान भी अपने आप क्रीड़ा नहीं कर सकते। इसीलिये वे अपनी ही परछाईरूपा ह्लादिनी शक्ति की विकसित मूत्तियों श्रीव्रजसुन्दरियों के साथ विविध विलास करके निर्मल दिव्य रसानन्द का अनुभव करते हैं। अपने अलौकिक अनुपमेय प्रतिक्षणवर्धमान सौन्दर्य-माधुर्य-सुधारस का अनुभव करने के लिये ही वे निजस्वरूपा व्रज सुन्दरियों के साथ लीला करके उसका रसास्वादन करते हैं।॥17॥

तदंगसंगप्रमुदाकुलेन्द्रियाः
केशान् दुकूलं कुचपट्टिकां वा।
नाञ्ज
प्रतिव्योढुमलं व्रजस्त्रियो
विस्त्रस्तमालाभरणाः कुरुद्वह॥18॥
परीक्षित! प्रियतम भगवान के अंगों का संस्पर्श पाकर गोपियों की इन्द्रियाँ प्रेमानन्द से विह्वल हो गयीं। उनके कण्ठों में पड़े हुए पुष्पहार टूट गये। उनके आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये। सजाये हुए केश बिखर गये। वे अपनी ओढ़नी तथा चोली को भी जल्दी से सँभालने में असमर्थ हो गयीं॥18॥

कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहुः खेचरस्त्रियः।
कामार्दिताः शशांकश्च सगणो विस्मतोऽभवत्॥19॥
भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रेममयी रासक्रीड़ा को देखकर आकाश में विमानों में बैठी देवांगनाएँ भी मिलन की इच्छा से मोहित हो गयीं और चन्द्रमा अपने गणों-नक्षत्रों तथा तारों के साथ आश्चर्यचकित हो गया॥19॥

कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः।
रेमे स भगवांस्ताभिरात्मारामोऽपि लीलया॥20॥
भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, नित्य स्वभाव से आत्मस्वरूप में ही रमण करते हैं। फिर भी उन्होंने, जितनी गोपरमणियाँ थीं, उतने ही रूपों में अपने को प्रकट करके अपनी लीला से ही-किसी कामना-वासना से नहीं-उनके साथ रमण किया॥20॥

तासामतिविहारेण श्रान्तानां वदनानि सः।
प्रामृजत्करुणः प्रेम्णा शंतमेनांग पाणिना॥21॥
प्रिय परीक्षित! यों बहुत देरतक नृत्य, गान, विहार आदि करने के कारण अत्यधिक श्रम से जब सारी गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं परम शान्तिदायक कोमल कर-कमलों द्वारा बड़े ही प्रेम से उनके मुख-कमलों को पोंछ दिया॥21॥

स्फुरत्पुरटकुण्डलकुन्तलत्विड्-
गण्डश्रिया सुधितहासनिरीक्षणेन।
मानं दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानि
पुण्यानि तत्कररुहस्पर्शप्रमोदाः॥22॥
भगवान श्यामसुन्दर के कर-कमलों और नखों के स्पर्श से गोपियाँ प्रमुदित हो गयीं। उन्होंने अपने कपोंलों की सुन्दरता से, जिन पर झिलमिलाते हुए सुवर्णमय कुण्डलों की आभा छिटक रही थी तथा घुँघराले केशों की लटें लहरा रहीं थीं, एवं अपनी सुधामयी मधुर मुस्कान से युक्त प्रेममयी चितवन से उन पुरुषोत्तम भगवान का सम्मान किया और फिर वे उनकी परमपवित्र प्रेमसुधामयी लीलाओं का गान करने लगीं॥22॥

ताभिर्युतः श्रममपोहितुमंगसंग-
घृष्टस्त्रजः स कुचकुंकुमरञ्जितायाः।
गन्धर्वपालिभिरनुद्रुत आविशद् वाः
श्रान्तो गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतुः॥23॥
तदनन्तर जैसे विलास-क्रिया से थकला हुआ गजराज बाँध को तोड़ता हुआ हथिनियों के साथ जल में प्रवेश करके विविध प्रकार से क्रीड़ा करता है, वैसे ही थके हुए भगवान श्रीकृष्ण लोक और वेद की मर्यादा को भंग करके अपनी थकान दूर करने के लिये उन गोप-सुन्दरियों को लेकर श्री यमुना जी के जल में घुस गये। उस समय भगवान के गले की उस वनमाला से, जो गोप-सुन्दरियों के अंगों की रगड़ से कुछ मसली गयी थी और जो उनके वक्षःस्थल के केसर से केसरी रंग की हो रही थी, खिंचकर भ्रमरों के दल-के-दल उनके पीछे-पीछे मधुर गुंजार करते हुए उड़े आ रहे थे, मानों गन्धर्वगण उनकी लीलाओं का सुमधुर गान करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हों॥23॥

सोऽम्भस्यलं युवतिभिः परिषिच्यमानः
प्रेम्णेक्षितः प्रहसतीभिरिस्तस्ततोऽंग।
वैमानिकैः कुसुमवर्षिभिरीड्यमानो
रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलीलः॥24॥
परीक्षित! यमुना जी के जल में वे व्रजतरुणियाँ प्रेममयी चितवन से श्रीकृष्ण की ओर देखती हुई तथा खिलखिलाकर हँसती हुई उन पर चारों ओर से खूब जल उलीचने लगीं। इस दृश्य को देखकर विमानों पर बैठे हुए देवता फूल बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार अपने-आप में ही नित्य रमण करने वाले भगवान स्वयं गजराज की भाँति यमुना जल में गोपांगनाओं के साथ जल-विहार की लीला करने लगे॥24॥

ततश्च कृष्णोपवने जलस्थल-
प्रसूनगन्धानिलजुष्टदिक्तटे।
चचार भृंगप्रमदागणावृतो
यथा मदच्यृद् द्विरदः करेणुभिः॥25॥
इसके पश्चात यमुना जी से निकरलकर भ्रमरों तथा व्रजयुवतियों से घिरे हुए भगवान उस रमणीय उपवन में गये, जहाँ सब और स्थल में सुन्दर सुगन्धयुक्त पुष्प खिले हुए थे और उनकी सुगन्ध का प्रसार करती हुई मन्द मनोहर वायु चल रही थी। उस उपवन में भगवान उसी प्रकार विचरने लगे, जैसे मद चुवाता हुआ गजराज हथिनियों के साथ घूम रहा हो॥25॥

एवं शशांकांशुविराजिता निशाः
स सत्यकामोऽनुरताबलागणः।
सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः
सर्वाःशरत्काव्यकथारसाश्रयाः॥26॥
शरद की वह रात्रि अनेक रात्रियों से समन्वित होकर बड़ी ही शोभा पा रही थी। चन्द्रमा की किरण-ज्योत्स्ना सब ओर छिटक रही थी। काव्यों में शरत्काल की जिन रस-सामग्रियों का विवेचन किया गया है, वे सम्पूर्ण उसमें विद्यमान थीं। उस रात्रि में सत्यसंकल्प भगवान श्यामसुन्दर ने अपनी परमप्रेयसी निजस्वरूपा चिन्मयी गोपरमणियों के साथ चिन्मय लीला-विहार किया। भगवान की सत्ता से ही कामदेव में सत्ता आती है, इसलिये कामदेव का उन पर कोई भी वश नहीं चल सकता। अतएव वह यहाँ भी सर्वदा पराजित रहा। भगवान सर्वथा अस्खलितवीर्य बने रहे॥26॥

राजोवाच
संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च।
अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वरः॥27॥
स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता।।
प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम्॥28॥
आप्तकामो यदुपतिः कृतवान् वै जुगुप्सितम्।
किमभिप्राय एतं नः संशयं छिन्धि सुव्रत॥29॥

इसी बीच में राजा परीक्षित भगवान की चिन्मयी लीला का रहस्य पूरी तरह से न समझने के कारण लौकिक भाव से शंका करते हुए श्रीशुकदेवजी से प्रश्न कर बैठे। उन्होंने कहा- भगवन! भगवान श्रीकृष्ण तो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं, उन्होंने अपने वंश श्रीबलराम जी के साथ धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिये ही परिपूर्णरूप में अवतार ग्रहण किया था।
क्रमश:

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