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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

तदेव भगवद्वाच्यं स्वरूपं परमात्मनः।
वाचको भगवच्छब्दस्तस्याद्य स्याक्षयात्मनः।
वेद के वचनों में अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अक्षय, अनिर्देश्य, प्राकृतरूपविहीन प्राकृत-कर-चरणदिविवर्जित, सर्वशक्तिमान, सर्वगत, नित्य, सर्वकारण, अकारण, सर्वव्यापी, परम, महत और सर्व प्रकाशक वस्तु का जिससे उद्देश्य पाया जाता है और तत्त्वज्ञ व्यक्ति जिसको प्रत्यक्ष करते हैं वही वस्तु ब्रह्म है। अर्थात परतत्त्व सर्वापेक्षा वृहत और स्वप्रकाश है। मोक्ष की आकांक्षा करने वाले व्यक्ति इसी वस्तु का सर्वदा ध्यान किया करते हैं। परमात्मा का जो इस प्रकार का स्वरूप है, वही भगवत शब्द वाच्य है और उसी को आद्य अक्षर स्वरूप भगवत शब्द के द्वारा कहा जाता है। इस प्रकार भगवत शब्द वाच्य परमात्मा के सभी वस्तु के स्वरूप का निर्देश करने के बाद भगवत शब्द का अर्थ करते हैं विष्णु पुराण में। कुछ थोड़ा पाठ भेद है। किसी-किसी में ‘वीर्यस्य’ की जगह ‘धर्मस्य’ पाठ मिलता है।

ज्ञानशक्ति बलैश्वर्य वीर्यतेजांस्यशेषतः।
भगवच्छब्दवाच्यानि विना हेयैर्गुणादिभिः।
परिपूर्ण ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- ये छः प्रकार की महाशक्तियों का नाम ‘भग’ है। भगवान प्राकृत गुण सम्बन्ध विहीन हैं। परिपूर्ण ज्ञानशक्ति, ऐश्वर्य, बल, वीर्य और तेज ये भगवत शब्द वाच्य हैं। इससे यह समझ में आता है कि ऐश्वर्यादि षडविध महाशक्ति समन्वित जो सच्चिदानन्दघन विग्रह है वह भगवान है। उन भगवान में जो सर्ववशीकारत्व शक्ति है उसका नाम ऐश्वर्य। सबको वश में कर लेने की जो शक्ति है उसका नाम ऐश्वर्य है। भगवान की इस ऐश्वर्य शक्ति के अधीन प्राकृत और अप्राकृत सभी वस्तुएँ अधीन हैं। वे किसी भी वस्तु के द्वारा किसी भी काम को कर सकते हैं। जगत में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो उनकी अधीनता छोड़कर स्वतंत्रभाव से कुछ भी करने में समर्थ हो। यह उनका ऐश्वर्य है। छुद्रतम धूलिकण से लेकर सुमेरु पर्यन्त और जलबिन्दु से लेकर समुद्र पर्यन्त, श्वास वायु से लेकर प्रलय के तूफान पर्यन्त और छोटे से क्षुद्र जीवाणु से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त, अचेतन अथवा चेतन सारी वस्तुएँ ही उनकी ऐश्वर्य शक्ति द्वारा नियन्त्रित हैं।

अब श्रीभगवान की जो दूसरी अचिन्त्य शक्ति है उसका नाम ‘वीर्य’ है। जगत में भी हम देखते हैं कि मणि, मन्त्र, महौषधि इत्यादि के द्वारा विविध आश्चर्यमय कार्य होते हैं। चन्द्रकान्त मणि अगर पास है तो अग्नि की दाहिका शक्ति हट जाती है। इस प्रकार मणियों से, मन्त्रों से, महौषधियों से काम होते हैं। जब मणि, मन्त्रों में इतनी शक्ति है तो जो समस्त वस्तुओं के सृष्टिकर्ता हैं; इन सारी वस्तुओं के जो निर्माता हैं उन भगवान के अचिन्त्य शक्ति के सम्बन्ध में हम अनुमान कर सकते हैं। भगवान की लीला कथा पर विचार करते समय यह मानना चाहिये कि भगवान अचिन्त्य शक्ति हैं। उनकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है। श्रीकृष्ण की लीला में पूतना वध, शकटभंजन, गोवर्धन-धारण इत्यादि उनकी अचिन्त्य महाशक्ति का ही परिचय देते हैं। जो भगवान के अचिन्त्यशक्ति में अविश्वास करते हैं वे ही लोग भगवान की लीला को कोई रूपक बताते हैं, कोई प्रक्षिप्त बताते हैं परन्तु भगवान की कृपा से और महासौभाग्यवश जिनको भगवान की अचिन्त्य शक्ति में विश्वास है वे ही लोग लीला कथा पर विचार करके परम आनन्द सिन्धु में निमग्न हो सकते हैं। अविश्वासी लोग नहीं।

तो कहते हैं कि अनन्त कल्याणगुण-समुद्र भगवान के कायिक, वाचिक, मानसिक जितने भी लीला कार्य हैं वे सब-के-सब जगत के लिये परम कल्याणकारी हैं। उनकी कोई लीला प्रारम्भ में देखने पर अहितकर दीखने पर भी परिणाम में कल्याणकारी ही होती है। श्रीभगवान का पूतना, अघासुर इत्यादि का वध प्रत्यक्ष दीखता है कि ये दण्ड विधान हैं परन्तु हुआ क्या? सदा के लिये उनको संसार से मुक्ति प्राप्त हो गयी। परमकल्याण हो गया। दीखा उनका वध, उन्हें भी मालूम हुआ कि हमें भगवान ने मारा परन्तु उनका अशेष कल्याण हो गया, सदा के लिये मुक्त हो गए। तो भगवान की कोई भी कायिक, मानसिक लीला देखने में चाहे कैसी भी मालूम हो वह है कल्याणकारी। यह है भगवान का यश।

पहले ‘ऐश्वर्य’ आया फिर ‘वीर्य’ आया अब ‘यश’ और भगवान का धाम भगवान के पार्षद, भगवान की लीला, भगवान का श्रीविग्रह यह सभी महान सम्पत्ति से परिपूर्ण हैं। यह जो महान सम्पद है इसी का नाम ‘श्री’ है। भगवान की सर्वज्ञता और स्वप्रकाशता इसका नाम ‘ज्ञान’ है। और सब प्रकार की मायिक वस्तुओं में भगवान की नित्य सहज अनासक्ति यही ‘वैराग्य’ है। यह जो छः महाशक्तियाँ हैं इन्हीं का नाम ‘भग’ है। सच्चिदानन्दघन विग्रह भगवान में यह महाशक्तियाँ नित्य स्वरूपगत अवस्थान करती हैं इसीलिये इनका नाम ‘भगवान’ है। यह ऐश्वर्यादि छः प्रकार की महाशक्तियों के घर या निकेतन हैं। सच्चिदानन्दमय भगवान एक होने पर भी इनकी अनन्त लीला होती है। इसीलिये श्रुतियाँ कहती हैं ‘एकोऽपि सन् बहुधा यो विभाति’ - एक ही भगवान बहुत रूप होकर लीला करते हैं।

इसीलिये लीला का भेद है और इस लीलाभेद से इनका तीन नामों से निर्देश किया है भागवत में-

वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।
तो सजातीय, विजातीय और ‘स्वर्गद’ इन तीन प्रकार के भेदों से रहित अद्वैत सच्चिदानन्द वस्तु को ही तत्त्वविद लोग परतत्त्व मानते हैं। इस परतत्त्व के तीन नाम हैं - ब्रह्म, परमात्मा और भगवान। ये तीन इनके लीला प्रकाश हैं, एक ही वस्तु के। श्रीमद्भागवत में वर्णित रासलीला के भगवान का कृष्ण, गोविन्द इत्यादि नाम जो हैं; यह इन रासविहारी के परतत्त्व का ही परिचय देते हैं। इससे जो भगवान की भगवत्ता है वह जाहिर होती है। क्यों? भगवान ने रमण करने की इच्छा की। ब्रह्म ने रमण करने की इच्छा की, परमात्मा ने रमण करने की इच्छा की यह नहीं आया। यह भगवान के जो तीन नाम हैं - परात्पर ब्रह्म के - ब्रह्म, परमात्मा और भगवान। परन्तु यहाँ भागवतकार ‘भगवानपि’ कहते हैं। तो यहाँ भगवान का वर्णन है, ब्रह्म और परमात्मा का नहीं। एक ही तत्त्व है। परन्तु यह वर्णन भगवान का है। श्रीकृष्ण, गोविन्द इत्यादि नाम जो रासपञ्चाध्यायी में आते हैं, यह भगवान के लिये ही आते हैं। प्रसंगतः यह प्रश्न भी है महाराज परीक्षित का-

‘कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने।

गोपियों ने श्रीकृष्ण को कान्त समझकर ही जाना। ब्रह्म रूप में अनुभव नहीं किया और विशुद्ध अनुराग में यह आवश्यक है कि वहाँ ऐश्वर्य का विकास, प्रकाश नहीं रह सकता।
क्रमश:

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