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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पाँचवाँ अध्याय

श्रीशुक उवाच
इत्थं भगवतो गोप्यः श्रुत्वा वाचः सुपेशलाः।
जुहुर्विरहजं तापं तदंगोपचिताशिषः॥1॥
श्री शुकदेव जी ने कहा - परीक्षित! इस प्रकार गोपियाँ प्रेम समुद्र भगवान की सुमधुर वाणी सुनकर और उन सौन्दर्य-माधुर्य-निधि प्रियतम के अंग-संग से पूर्णकाम होकर उनके विरहजनित संताप से मुक्त हो गयीं॥1॥

तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनुव्रतैः।
स्त्रीरत्नैरन्वितः प्रीतैरन्योन्याबद्धबाहुभिः॥2॥
तदनन्तर यमुना तट पर भगवान श्रीकृष्ण की रुचि के अनुसार चलने वाली उनकी परम प्रेयसी गोपियाँ एक दूसरे की बाँह में बाँह डालकर खड़ी हो गयीं और भगवान श्रीकृष्ण ने उन स्त्रीरत्नों के साथ मिलकर परम रसमयी रासलीला आरम्भ की॥2॥

रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः।
योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः।
प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः॥3॥
यं मन्येरन् नभस्तावद् विमानशतसंकुलम्।
दिवौकसां सदाराणामौत्सुक्यापहृतात्मनाम्॥4॥
योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में अनेक रूपों में प्रकट होकर, उनके गले में बाँह डालकर खड़े हो गये। अब सहस्रों गोपियों के बीच-बीच में शोभायमान श्रीभगवान ने दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ किया। प्रत्येक गोपी यही समझ रही थी कि मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण तो मेरे ही पाश्र्व में स्थित हैं। भगवान के द्वारा प्रारम्भ किये गये उस रसमय रासोत्सव को देखने की उत्सुकता से जिनका मन अपने वश में नही रह गया था, वे सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ पहुँचे। सारा आकाश देवताओं के विमानों से भर गया॥3-4॥

ततो दुन्दुभयो नेदुर्निपेतुः पुष्टवृष्टयः।
जगुर्गन्धर्वपतयः सस्त्रीकास्तद्यशोऽमलम्॥5॥
उस समय स्वर्ग की दुन्दुभियाँ बजने लगीं, दिव्य पुष्पों की वृष्टि होने लगी और गन्धर्वों के स्वामी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण का निर्मल यशोगान करने लगे॥5॥

वलयानां नुपूराणां किंकिणीनां च योषिताम्।
सप्रियाणामभूच्छब्दस्तुमुलो रासमण्डले॥6॥
रासमण्डल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नृत्य करने लगीं। उस समय वहाँ भी उन सहस्रों गोपियों के हाथों के कंकण, पैरों की पायजेब तथा कटिकी करधनियाँ बजने लगीं, जिनकी मिश्रित मधुर ध्वनि सर्वत्र छा गयी॥6॥

तत्रातिशुशुभे ताभिर्भगवान् देवकीसुतः।
मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा॥7॥
उस रासमण्डल में व्रजसुन्दरियों के साथ षडैश्वर्य सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे, जैसे स्वर्णमयी मणियों के बीच में प्रभामयी नीलमणि सुशोभित हो॥7॥

पादन्यासैर्भुजविधुतिभिः सस्मितैर्भ्रूविलासै-
र्भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः कुण्डलैर्गण्डलोलैः।
स्विद्यन्मुख्यः कबररशनाग्रन्थयः कृष्णवध्वो
गायन्त्यस्तं तडित इव ता मेघचक्रे विरेजुः॥8॥
श्रीकृष्ण की परम प्रेयसी गोप सुन्दरियाँ अति मधुर स्वर से प्रियतम की मधुर लीलाओं का गान करती हुई नृत्य कर रही थीं। उस समय, वे मस्तक की वेणी और कमर के लहँगे की डोरी को कसकर बाँधे हुए भाँति-भाँति से पैरों को नचा रही थीं, चरणों की गति के अनुसार भुजाओं से कलापूर्ण भाव प्रकट कर रही थीं, मंद-मंद मुसकरा रही थीं और भौंहों को मटका रही थीं। नाचने में कभी-कभी पतली कमर चलक जाती थी, उनके स्तनों के वस्त्र उड़ जा रहे थे, कानों के कुण्डल हिल-हिलकर अपनी प्रभा से उनके कपोलों को और भी चमका रहे थे। नाचने के श्रम से उनके मुखों पर पसीने की बूँदें झलक रही थीं। उस समय वे व्रज सुन्दरियाँ ऐसी असीम शोभा पा रही थीं मानो नील बादलों के बीच-बीच में स्वर्ण वर्णा बिजलियाँ चमक रही हों॥8॥

उच्चैर्जगुर्नृत्यमाना रक्तकण्ठ्यो रतिप्रियाः।
कृष्णाभिमर्शमुदिता यद्गीतेनेदमावृतम्॥9॥
श्रीकृष्ण के साथ क्रीडा में आसक्त वे सुन्दर कण्ठवाली व्रजरमणियाँ भगवान श्रीकृष्ण का संस्पर्श प्राप्त कर आनन्दमग्न हो रही थी। वे नाचती हुई ऊँचे स्वर से परम मधुर गान कर रही थीं। उनकी संगीत-ध्वनि से सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो रहा था॥9॥

काचित् समं मुकुन्देन स्वरजातीरमिश्रताः।
उन्निन्ये पूजिता तेन प्रीयता साधु साध्विति।
तदेव ध्रुवमुन्निन्ये तस्यै मानं च बह्वदात्॥10॥
कोई गोपी भगवान श्रीकृष्ण के स्वर की अपेक्षा भी विलक्षण ऊँचे स्वर से गाने लगी। उसके विलक्षण मधुर गान को सुनकर भगवान अत्यन्त प्रसन्न हुए और ‘बहुत अच्छा’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी राग को एक दूसरी गोपी ने ध्रुपद ताल में उठाकर गाया और भगवान ने उसको भी बड़ा आदर दिया॥10॥

काचिद्रासपरिश्रान्ता पार्श्वस्थस्य गदाभृतः।
जग्राह बाहुना स्कन्धं श्लथद्वलयमल्लिका॥11॥
कोई एक सखी रास में प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के साथ नृत्य करते-करते थक गयी। उसके हाथों के कंगन तथा वेणियों में बँधे हुए बेले के पुष्प खिसकने लगे। तब वह अपने पार्श्व में ही स्थित श्यामसुन्दर के कंधे को पकड़कर उसके सहारे खड़ी हो गयी॥11॥

तत्रैकांसगतं बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम्।
चन्दनालिप्तमाघ्राय हृष्टरोमा चुचुम्बह॥12॥
वहाँ एक गोपी ने श्रीकृष्ण का कोमल कर-कमल अपने कंधे पर रख लिया। भगवान के उस हाथ से स्वाभाविक ही कमल-सी दिव्य सुगन्ध आ रही थी और उस पर अत्यन्त सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था। भगवान के भुजस्पर्श और उनके दिव्य अंग-गन्ध से उस गोपी के आनन्द से रोमान्च हो आया और उसने झट भगवान के हाथ को चूम लिया॥12॥

कस्याश्चिन्नाट्यविक्षिप्तकुण्डलत्विषमण्डितम्।
गण्डं गण्डे संदधत्या अदात्ताम्बूलचर्वितम्॥13॥
एक दूसरी गोपी रास में नाच रही थी, इससे उसके कानों के कुण्डल हिल रहे थे और उन कुण्डलों की झलक उसके कपोलों पर चमक रही थी। उस गोपी ने अपने कपोल को भगवान के कपोल से सटा दिया। तब भगवान ने बड़े प्रेम से अपना चबाया हुआ पान उसके मुख में दे दिया॥13॥

नृत्यन्ती गायती काचित् कूजन्नूपुरमेखला।
पार्श्वस्थाच्युतहस्ताब्जं श्रान्ताधात् स्तनयोः शिवम्॥14॥
कोई एक गोपी अपने पैरों की पाजेब तथा करधनी के घुँघुरूओं को मधुरस्वर से झनकारती हुई नाच-गा रही थी। वह जब थक गयी और उसका हृदय धड़कने लगा, तब उसने अपने बगल में ही खड़े हुए श्यामसुन्दर के शीतल सुकोमल कर-कमल को अपने दोनों स्तनों पर रख लिया॥14॥

गोप्यो लब्ध्वाच्युतं कान्तं श्रिय एकान्तवल्लभम्।
गृहीतकण्ठ्यस्तद्दोर्भ्या गायन्त्यस्तं विजहिरे॥15॥
साक्षात श्री लक्ष्मी जी के एकमात्र परम प्रियतम तथा सदा अपने तत्त्व स्वरूप में ही प्रतिष्ठित भगवान श्रीकृष्ण को अपने कान्त-हृदयेश्वर के रूप में प्राप्त कर गोपसुन्दरियाँ उनके गलों में अपनी भुजाएँ डालकर उन प्रियतम की प्रेमलीला का गान करती हुई उनके साथ विहार करने लगीं॥15॥

कर्णोत्पलालकविटंककपोलधर्म-
वक्त्रश्रियो वलयनूपुरघोषवाधैः।
गोप्यः समं भगवता ननृतुः स्वकेश-
स्त्रस्तस्त्रजो भ्रमरगायकरासगोष्ठ्याम्॥16॥
उन गोपसुन्दरियों के कानों में कमल पुष्प सुशोभित थे। घुँघुराली लटें गालों को विभूषित कर रही थीं। पसीने की बूँदों से उनके मुख-सरोजों की अपूर्व शोभा हो रही थी। वे रासमण्डल में भगवान श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही थीं। उस नृत्य के साथ उनके हाथों के कंगन और पैरों की पाजेबों के बाजे बज रहे थे।
क्रमश:

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