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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चतुर्थ अध्याय

सारा वातावरण मंगलमय हो रहा था। श्री यमुना जी ने भगवान की मधुरलीला के लिये अपने तरंगरूपी हाथों से वहाँ सुकोमल वालुका बिछा रखी थी॥12॥

तद्दर्शनाह्लादविधूतहृद्रुजो
मनोरथान्तं श्रुतयो यथा ययुः।
स्वैरुत्तरीयैः कुचकुंकुमांकितै-
रचीक्लृपन्नासनमात्मबन्धवे॥13॥
भगवान श्यामसुन्दर के दर्शन से उन गोपसुन्दरियों को इतना महान आनन्द हुआ कि उनके हृदय की सारी व्यथा मिट गयी। वे गोपियाँ भगवान को पाकर उसी प्रकार पूर्णकाम हो गयीं, जिस प्रकार श्रुतियाँ कर्मकाण्ड के वर्णन के अनन्तर ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन करके पूर्णकाम हो जाती हैं। अब उन्होंने वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर से चिह्नित अपनी ओढ़नी को अपने परम प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण के विराजने के लिये वहाँ बिछा दिया॥13॥

तत्रोपविष्टो भगवान् स ईश्वरो
योगेश्वरान्तर्हृदि कल्पितासनः।
चकास गोपीपरिषद्गतोर्चित-
स्त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत्॥14॥
बड़े-बड़े योगेश्वर अपने विशुद्ध हृदय-कमल में जिन भगवान के आसन की कल्पना किया करते हैं, पर बैठा नहीं पाते, वे ही सर्वसमर्थ सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण यमुना-तट की वालुका में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गये। गोपियों ने उन्हें सब ओर से घेर लिया और उनकी पूजा करने लगीं। त्रिलोकी की समस्त सौन्दर्य-शोभा के जो एकमात्र परम आश्रय हैं, ऐसे अनन्त-सौन्दर्य-माधुर्यमय दिव्य विग्रह को धारण किये उस समय वे अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे॥14॥

सभाजयित्वा तमनंगदीपनं
सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा।
संस्पर्शनेनांककृताङ्घ्रिहस्तयोः
संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे॥15॥
भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी सौन्दर्य-सुधा पिलाकर जिनके मन में विशुद्ध काम-भगवत्प्रेम को उद्दीप्त कर दिया था, वे गोपियाँ अपनी मधुर मुसकान, विलासपूर्ण कटाक्ष तथा भौहों की मटक से एवं अपनी गोद में रखे हुए भगवान के चरण-कमलों और कर-कमलों को सहलाकर उनका सम्मान करती हुई आनन्दातिरेक से उनके रूप-गुणों की प्रशंसा करने लगीं। फिर उनके अन्तर्धान होने की बात याद आते ही किंचित प्रणय-कोप दिखाती हुई वे बोलीं॥15॥

गोप्य ऊचुः
भजतोऽनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम्।
नोभयांश्च भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः॥16॥
गोपियों ने कहा - कुछ लोग तो प्रेम करने वालों से ही बदले में प्रेम करते है; कुछ लोग इसके विपरीत, प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों तथा न करने वाले - दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्रियतम! इन तीनों के विषयों में हमें समझाकर बतलाओ। यह बतलाओ कि तुम इनमें से किसको अच्छा समझते हो और तुम कौन-से हो?॥16॥

श्रीभगवानुवाच
मिथो भजन्ति ये सख्यः स्वार्थेकान्तोद्यमा हि ते।
न तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थ तद्धि नान्यथा॥17॥
इसके उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - प्रिय सखियों! जो लोग प्रेम करने पर ही बदले में प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्यम केवल स्वार्थ के लिये ही है। उनमें न तो सौहार्द है और न धर्म या कर्तव्य का भाव ही है। उनकी तो वह प्रेम- चेष्टा केवल स्वार्थ के हेतु से ही होती है, उनका और कोई प्रयोजन नहीं होता॥17॥

भजन्त्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा।
धर्मो निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः॥18॥
सुन्दरियों! जो लोग प्रेम न करने वालों से प्रेम करते हैं, जैसे स्वभाव से ही करुण हृदय पुरुष एवं माता-पिता प्रेम करते हैं, उनके इस बर्ताव में कोई दोष नहीं होता, और पूर्ण धर्म तथा सौहार्द ही भरा रहता है॥18॥

भजतोऽपि न वै केचिद् भजन्त्यभजतः कुतः।
आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः॥19॥
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, फिर प्रेम न करने वालों से प्रेम करने की बात ही क्या है। ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं - एक तो वे जो नित्य आत्मस्वरूप में ही रमण करते हैं, दूसरे वे जिनकी सब कामनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं; तीसरे वे, जो कृतघ्न हैं, किये गये उपकार तथा प्रेम का स्मरण भी नहीं करते; और चौथे वे, जो अपना सहज हित करने वाले गुरुजनों से भी द्रोह करते हैं॥19॥

नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून्
भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये।
यथाधनो लब्धधने विनष्टे
तच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद॥20॥
सखियों! यदि तुम मेरी बात जानना चाहती हो तो मैं तो प्रेम करने वाले प्राणियों से भी वैसा प्रेम नहीं करता; उनकी चित्तवृत्ति निरन्तर मुझमें लगी रहे, इसलिये कभी-कभी उनसे उदासीन-सा हो जाता हूँ। जैसे निर्धन मनुष्य को कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर वह खो जाय तो उसके हृदय में खोये हुए धन की चिन्ता छायी रहती है, वह दूसरी वस्तु का स्मरण ही नहीं करता, इसी प्रकार मैं भी मिल-मिलकर छिप जाया करता हूँ, जिससे मेरा चिन्तन नित्य-निरन्तर बना रहे॥20॥

एवं मदर्थोज्झितलोकवेद-
स्वानां हि वो मय्युनुवृत्तयेऽबलाः।
मया परोक्षं भजता तिरोहितं
मासूयितुं मार्हथ तत्प्रियं प्रियाः॥21॥
गोपललनाओं! तुम लोगों ने मेरे लिये सारी लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और आत्मीय स्वजनों का भी परित्याग कर दिया। इस स्थिति में तुम्हारी मनोवृत्ति मेरे द्वारा प्राप्त होने वाले किसी सुख में लगकर मुझे छोड़ न दे, केवल मुझमें ही लगी रहे, इसीलिये ही मैं तुम लोगों से दृष्टि बचाकर तुम्हारे प्रेम रस का पान करता हुआ ही यहाँ छिप रहा था। मेरी गोपियों! तुम मेरी अत्यन्त प्रिया हो और मैं तुम्हारा परम प्रियतम हूँ, अतः तुम लोग मुझमें दोष मत देखो॥21॥

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या मा भजन् दुर्जरगेहश्रृंखलाः
संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना॥22॥
प्रियाओ! प्रयत्न करने वाले साधकों से भी जो घर-गृहस्थी की बेड़ियाँ नहीं टूटतीं, तुमने उनको भलीभाँति तोड़कर मुझसे यथार्थ प्रेम किया है। मेरे साथ तुम्हारा यह मिलन सर्वथा निर्दोष-निज सुख के इच्छालेश से भी रहित परम पवित्र है। तुम लोगों ने केवल मुझको सुख देने के लिये ही इतना त्याग किया है। मेरे प्रति किये जाने वाले तुम्हारे इस प्रेम, सेवा और उपकार का बदला मैं देवताओं की लंबी आयु में भी सेवा करके नहीं चुका सकता। तुम अपनी साधुता, सौजन्य से ही चाहो तो मुझे उऋण कर सकती हो। मैं तो तुम्हारा ऋण चुकाने में सर्वथा असमर्थ हूँ॥22॥
क्रमश:

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