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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
तृतीय अध्याय

उस समय पलकों का गिरना हमें असह्य हो जाता है; क्योंकि उतने समय तक तुम्हारे दर्शन से नेत्र वञ्चित रहते हैं। इसलिये हमें जान पड़ता है कि नेत्रों पर पलकें बनाने वाला विधाता मूर्ख है॥15॥

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि॥16॥
प्रियतम! तुम कभी अपने प्रेममय स्वभाव से च्युत नहीं होते। तुम चतुर-शिरोमणि भलीभाँति जानते हो कि हम सब तुम्हारे मुरली गान से मोहित होकर अपने पति-पुत्र, भाई-बन्धु, कुल-परिजन- सबका त्याग करके उनकी इच्छा का अतिक्रमण करके तुम्हारे पास आयी हैं। फिर भी तुम हमें छोड़कर चले गये। अरे कपटी! इस प्रकार की घोर रात्रि के समय शरण में आयी हुई तरुणियों को तुम्हारे अतिरिक्त और कौन त्याग सकता है॥16॥

रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः॥17॥
प्रियतम! तुमने एकान्त में हम से प्रेमभरी बातें की हैं, तुम्हारा वह प्रेमालाप, प्रेम की कामना को उद्दीप्त करने वाला तुम्हारा मुसकाता हुआ मुख-कमल, तुम्हारी प्रेमभरी तिरछी चितवन, लक्ष्मी जी नित्यनिवासधाम तुम्हारा विशाल वक्षःस्थल-इन सभी को देखकर, इनका स्मरण करके हमारी तुमसे मिलने की लालसा अत्यन्त बढ़ गयी है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध हो रहा है॥17॥

व्रजवनौकसां व्यक्तिरंग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमंगलम्
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्॥18॥
प्रियतम श्यामसुन्दर। तुम्हारा यह व्रज में अविर्भाव व्रजवासियों के समस्त दुःखों का नाश करने और विश्व का परम कल्याण करने के लिये है। हमारे हृदय के समस्त मनोरथ एकमात्र तुम्हीं में केन्द्रित हो गये हैं, हम तुम्हारे सिवा और कुछ चाहतीं ही नहीं। हम तुम्हारी अपनी ही हैं; हमें अब थोड़ी-सी वह वस्तु दो, जो तुम्हारे निजजनों के हृदय रोगों को सर्वथा नष्ट कर दे॥18॥

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥19॥
प्रियतम! तुम्हारे चरण कमल अत्यन्त सुकुमार हैं, हम उन्हें अपने उरोजों पर भी बहुत ही धीरे से रखती हैं; हमें डर लगता रहता है कि हमारे कठोर उरोजों से उन कोमल पद-कमलों को कहीं चोट न लग जाय। उन्हीं सुकुमार चरणों से आज हमसे छिपकर तुम वन-वन भटक रहे हो। कंकट-पत्थरों की नोंक लगकर उनमें बड़ी पीड़ा हो रही होगी। हमारी बुद्धि इसी चिन्ता से व्याकुल होकर चक्कर खा रही है। प्यारे! हमारे जीवन के जीवन तो एकमात्र तुम्हीं हो॥19॥

चतुर्थ अध्याय

श्रीशुक उवाच
इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा।
रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः॥1॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा - राजा परीक्षित! भगवान श्यामसुन्दर के विरह में गोपियाँ इस प्रकार विविध भाँति से गाती और प्रलाप करती हुई, प्राण-मन को सर्वथा आकर्षित कर लेने वाले उन प्रियतम के दर्शन की लालसा लिये हुए करुणा पूर्ण मधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगीं॥1॥

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्ममन्मथः॥2॥
उसी सयम उनके बीच में शूरसेन के वंशज भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनके मुख-सरोज पर मधुर मुस्कान खेल रही थी, वे गले में वनमाला और शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका रूप-सौन्दर्य सबके मन को मथ डालने वाले स्वयं कामदेव के मन को भी मथ डालने वाला था॥2॥

तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः।
उत्तस्थुर्युगपत् सर्वास्तन्वः प्राणमिवागतम्॥3॥
उन सौन्दर्य माधुर्य निधि प्रियतम श्यामसुन्दर को अपने बीच में आया देख गोपियों के नेत्र प्रेमानन्द से खिल उठे। ये गोपियाँ सब-की-सब एक साथ ही इस प्रकार उठ खड़ी हुई, जैसे प्राणहीन शरीर प्राणों के लौटते ही उठ खड़ा हो॥3॥

काचित् कराम्बुजं शौरेर्जगृहेऽञ्जलिना मुदा।
काचिद्दधार तद्बाहुमंसे चन्दनरूषितम्॥4॥
उनमें से किसी गोपी ने प्रमुदित होकर भगवान श्यामसुन्दर के कर-कमल को अपने हाथों में ले लिया। किसी ने उनकी चन्दन से चर्चित भुजा को अपने कंधे पर रख लिया॥4॥

काचिदञ्जलिनागृह्णात् तन्वी ताम्बूलचर्वितम्।
एका तदङ्घ्रिकमलं संतप्ता स्तनयोरधात्॥5॥
किसी सुन्दरी गोपी ने उनका चबाया हुआ पान अपने दोनों हाथों में ले लिया और एक गोपी ने, जिसके हृदय में विरह की आग धधक रही थी, उसे शान्त करने के लिये भगवान के चरण-कमल को अपने वक्षःस्थल पर रख लिया॥5॥

एका भ्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्वला।
घ्नतीवैक्षत् कटाक्षेपैः संदष्टदशनच्छदा॥6॥
एक व्रजसुन्दरी प्रणय कोप से विहल होकर, अपनी धनुष के समान टेढ़ी भौहों को चढ़ाकर और दाँतों से होठ दबाकर अपने कटाक्षरूपी बाणों से बींधती हुई-सी उनकी ओर ताकने लगी॥6॥

अपरानिमिषद्दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम्।
आपीतमपि नातृप्यत् सन्तस्तच्चरणं यथा॥7॥
एक गोपी नेत्ररूपी प्यालों से श्रीकृष्ण के मुख-कमल-मकरन्द का पान करने भी-भगवान के सुन्दरवदन-सरोज को बार-बार देखकर भी फिर अपलक नेत्रों से वैसे ही अतृप्त होकर देखने लगी, जैसे शान्त एवं दासभक्त भगवान के श्रीचरणों का बार-बार दर्शन करने पर भी तृप्त नहीं होते और उन्हें निरन्तर देखते ही रहना चाहते हैं॥7॥

तं काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च।
पुलकांग्युपगुह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता॥8॥
कोई एक व्रजसुन्दरी नेत्रों के मार्ग से श्यामसुन्दर को अपने हृदय में ले गयी और फिर नेत्रों को बंद करके भीतर-ही-भीतर उनको हृदय से लगाकर वैसे ही परमानन्द में निमग्न एवं रोमाञ्चित हो गयी, जैसे योगी अपने इष्ट परमात्मा को ध्यान के द्वारा प्राप्त कर उसमें निमग्न हो जाते हैं॥8॥

सर्वास्ताः केशवालोकपरमोत्सवनिर्वृताः।
जहुर्विरहजं तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः॥9॥
जैसे मुमुक्षु साधक ब्रह्म को प्रापत करके समस्त संसार-ताप से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही वे सब व्रजसुन्दरियाँ श्रीकृष्ण के मधुर दर्शन से परम उल्लास और दिव्य आनन्द को प्राप्त हो गयीं तथा उन्होंने विरह से उत्पन्न संताप का सर्वथा परित्याग कर दिया॥9॥

ताभिर्विधूतशोकाभिर्भगवानच्युतो वृतः।
व्यरोचताधिकं तात पुरुषं
शक्तिभिर्यथाँ10॥
अपने दिव्य-सौन्दर्य-माधुर्ययुक्त सच्चिदानन्दघन स्वरूप में नित्य स्थित, षडैश्वर्य सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण आज विरह-विषाद से मुक्त गोपियों के बीच में और भी विशेष सुशोभित होने लगे, जैसे परात्पर पुरुष परमात्मा प्रत्यक्षरूप में अपनी ज्ञान, बल आदि शक्तियों से घिरकर सुशोभित होते हैं॥10॥

ताः समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः।
विकसत्कुन्दमन्दारसुरभ्यनिलषट्पदम्॥11॥
तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण उन समस्त गोप-ललनाओं को साथ लेकर यमुना जी के पावन पुलिन पर आ विराजे। उस समय वहाँ खिले हुए कुन्द और मन्दार के पुष्पों की सुगन्धि को लिये वायु चल रही थी और उससे मत वाले हुए भ्रमर सर्वत्र उड़ रहे थे।॥11॥

शरच्चन्द्रांशुसंदोहध्वस्तदोषातमः शिवम्।
कृष्णाया हस्ततरलाचितकोमलवालुकम्॥12॥
शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणें सब ओर छिटक रही थीं, इससे रात्रि का अन्धकार सर्वथा मिट गया था।क्रमश:

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