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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
तृतीय अध्याय

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्॥5॥
हे यादवों में श्रेष्ठ! संसार से-जन्म-मरण के चक्र से भयभीत होकर जो प्राणी तुम्हारे चरणों की शरण में आ जाते हैं, तुम्हारे कर-कमल उनको अभय कर देते हैं। श्री लक्ष्मी जी के कर-कमल को धारण करने वाला तथा सबकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला वह अपना कर-कमल हमारे सिर पर रख दो-शीघ्र दर्शन देकर हमें भी अभय कर दो॥5॥

व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय॥6॥
हे व्रजवासियों के दुःखों का नाश करने वाले वीरशिरोमणि! तुम्हारी मधुर मन्द मुस्कान तुम्हारे प्रेमीजनों के गर्व ध्वंस करने वाली है। हे हमारे प्राणसखा! हम सब तुम्हारी दासियाँ हैं, हमें अवश्य प्रेमदान दो और हम अबलाओं को अपना मनोहर मुखकमल दिखलाकर सुखी करो॥6॥

प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्।
फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्॥7॥
तुम्हारे जो चरण-कमल शरण में आये हुए मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट कर डालते हैं, जो समस्त सौन्दर्य श्री के धाम हैं - श्री लक्ष्मी जी के परम आश्रयभूत हैं, जो घास चरने वाले गौ-वत्सों के पीछे-पीछे चलते हैं तथा जिन्होंने कालियनाग के फणों पर चढ़कर नृत्य किया था, उन अपने चरण-सरोजों को हमारे वक्षःस्थल पर रख दो। हमारे हृदय तुम्हारे विरह की ज्वाला से जल रहे हैं, इस प्रकार चरण-सरोजों को रखकर उस जलन को मिटा दो॥7॥

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः॥8॥
हे कमलनयन! तुम्हारे वचन बड़े ही मधुर हैं, उनका एक-एक पद परम मनोहर है। बड़े-बड़े पण्डित भी उनके गाम्भीर्य पर मुग्ध हो जाते हैं। उन वचनों से हम सब गोपियाँ मोहित हो रही हैं। हम सभी तुम्हारे चरणों की किंकरियाँ हैं। हमारे प्राण निकले जा रहे हैं। हे दानवीर! तुम अपनी दिव्य मधुर अधर-सुधा पिलाकर हम सबको आप्यायित करो और जीवनदान दो॥8॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः॥9॥
हे प्राणेश्वर! तुम्हारी लीला-कथा अमृतमयी है। वह जलते हुए प्राणियों को जीवनदान करती है, बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी कवियों ने उसका गान तथा स्तवन किया है, उसके श्रवण-कीर्तन से सब पापों का नाश होता है। जो श्रवणमात्र से ही प्रेमरूपी परम सम्पत्ति का दान करती है, ऐसी अत्यन्त विस्तृत कथा का पृथ्वी पर जो कीर्तन-गान करते हैं, वे जगत में सबसे बड़े दानी लोग हैं। यह तुम्हारी लीला-कथा की महिमा है। तुम्हारे दर्शन की महिमा तो अवर्णनीय है॥9॥

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमंगलम्।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि॥10॥
हमारे प्यारे श्यामसुन्दर! तुम्हारे ध्यान मात्र से ही परम आनन्द प्राप्त होता है। फिर हमें तो तुमने अपनी मधुर हँसी, प्रेमभरी दृष्टि तथा लीला विहार का सुख प्रदान किया था, एकान्त में हमारे साथ हृदयस्पर्शी विनोद तथा प्रेमभरी संकेत-चेष्टाएँ की थीं। अरे छलिया! आज वे ही तुम हम लोगों से छिप गये हो। तुम्हारी वे सभी प्रेमभरी बातें इस समय याद आ रही हैं और हमारे मन को क्षुब्ध कर रही हैं॥10॥

चलसि यद् व्रजाच्चारयन् पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्।
शिलतृणांकुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति॥11॥
हमारे प्राणनाथ, जीवनसर्वस्व! तुम्हारे चरण अरुणिमा, मृदुता तथा दिव्य सुगन्ध में कमल के समान अत्यन्त सुन्दर हैं; जिस समय तुम गौओं को चराते हुए व्रज से वन की ओर आते हो, उस समय यह सोचकर कि तुम्हारे उन अत्यन्त मृदु चरण-कमलों में कुश, काँटे, अंकुर तथा कंकण आदि गड़ते होंगे और बड़ी पीड़ा होती होगी, हम लोगों के मन में बड़ी ही व्यथा होती है। यह दशा तो दिन में वनगमन के समय होती है। इस रात्रि के समय तो उन मृदुल चरणों में विशेष पीड़ा हो रही होगी-इस चिन्ता से हमारे प्राण निकले जा रहे हैं। तुम तुरंत आकर उनकी रक्षा करो॥11॥

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्।
धनरजस्वलं दर्शयन् मुहु
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि॥12॥
हमारे हृदयों को प्रेम बाण से बींध देने में तुम बड़े ही शूरवीर हो। संध्या के समय जब तुम वन से लौटते हो, तब हम देखती हैं कि तुम्हारे मुख-सरोज पर नीली घुँघराली अलकावली छायी हुई है और वह गोधूलि से धूसरित हो रहा है। उस समय तुम अपनी उस मुख-माधुरी के हमें बार-बार दर्शन कराकर हमारे मन में प्रेम-व्यथा का संचार कर देते हो। इस प्रकार नित्य ही तुम हमारे हृदयों का प्रेम बाण से बींधा करते हो, पर आज तो उसकी चरम सीमा हो गयी है - पहले तो हमें वेणुगान करके अपने पास बुलाया, हमारे साथ लीला-विहार किया और फिर छोड़कर चले गये॥12॥

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
धरणिमण्डनं ध्येयमापदि।
चरणपंकजं शंतमं च ते
रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन्॥13॥
परंतु प्रियतम! हमारे मन की सारी व्यथा का हरण करने वाले भी एकमात्र तुम्हीं हो। तुम्हारे चरण-कमल शरण में आये हुए मनुष्यों के मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। स्वयं ब्रह्मा जी उनका नित्य पूजन करते हैं। विपत्ति के समय ध्यानमात्र से ही वे समस्त विपत्तियों का नाश कर देते हैं और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं। उन अपने चरण-सरोजों को, हे विहार-सुख देने वाले प्रियतम! हमारे वक्षःस्थल पर रखकर हृदय की सारी व्यथा का नाश कर दो॥13॥

सुरतवर्धनं शोकनाशनं
स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्।
इतररागविस्मारणं नृणां
वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्॥14॥
हृदय की व्यथा का हरण करने में समर्थ वीरशिरोमणे! तुम्हारी अधर-सुधा दिव्य सम्भोग-रस को बढ़ाने वाली है, सुन्दर स्वरों में गान करने वाली बाँसुरी उसे सदा भलीभाँति चूमती रहती है। जिसने एक क्षण के लिये एक बिन्दुमात्र भी कभी उसका पान कर लिया, उसकी अन्य समस्त आसक्तियाँ ता कामनाएँ सदा के लिये विस्मृत हो जाती हैं, ऐसी अपनी वह अधरसुधा हम लोगों में वितरण कर दो-हम सबको पिलाकर कृतार्थ करो॥14॥

अटति यद् भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्॥15॥
प्रियतम! दिन के समय जब तुम गौएँ चराने के लिये वन में चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारा आधे क्षण का समय भी युग बन जाता है। फिर जब संध्या के समय तुम वन से लौटते हो, तब तुम्हारे घुँघराले केशों से सुशोभित श्रीमुख का हम दर्शन करती हैं।
क्रमश:

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