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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
द्वितीय अध्याय

इस बीच में उधर यह लीला हुई कि श्रीकृष्णचन्द्र दूसरी व्रज वनिताओं को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी को एकान्त में ले गये थे, उसके मन में यह अभिमान का भाव आ गया कि ‘मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये प्यारे श्यामसुन्दर सब गोपियों को छोड़कर एकमात्र मुझको ही चाहते हैं और मुझको ही भज रहे हैं - मुझसे ही सुख प्राप्त कर रहे हैं’॥36-37॥

ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत्‌।
न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः॥38॥
इस प्रकार अभिमान का आविर्भाव होने पर वह गोपी वन में एक स्थान पर जाकर सौभाग्यमद से मतवाली हो गयी और श्रीकृष्ण से-जो ब्रह्मा और शंकर के भी शासक हैं - कहने लगी - ‘अब तो मुझसे चला नहीं जाता। मेरे कोमल चरण थक गये हैं, अतः तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर वहाँ ले चलो’॥38॥

एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति।
ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत॥39॥
अपनी प्रियतमा की गर्व भरी वाणी सुनकर श्री श्यामसुन्दर ने उससे कहा - ‘अच्छा प्रिये! अब तुम मेरे कंधे पर चढ़ जाओ।’ यह सुनकर ज्यों ही वह गोपी कंधे पर चढ़ने लगी, त्यों ही भगवान अन्तर्धान हो गये; तब तो उन्हें न देखकर वह गोप-वधू अविरत रोने- कलपने लगी॥39॥

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्कासि क्कासि महाभुज।
दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय संनिधिम्॥40॥
वह कातर कण्ठ से बोली - ‘हा प्राणनाथ! हा रमण! हा प्रियतम! हा महाबाहो! तुम कहाँ हो कहाँ हो? हे मेरे प्राणसखा! मैं तुम्हारी अत्यन्त दीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सांनिध्य का दर्शन कराओ, मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दो॥40॥

अन्विच्छन्त्यो भगवतो मार्ग गोप्योऽविदूरतः।
ददृशुः प्रियविश्लेषमोहितां दुःखितां सखीम्॥41॥
परीक्षित! इसी बीच भगवान श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों के सहारे उनके जाने के मार्ग को ढूँढ़ती हुई गोपियाँ वहाँ आ पहुँचीं और उन्होंने बहुत ही समीप आकर देखा कि उनकी भाग्यवती सखी अपने प्रियतम के वियोग से अत्यन्त दुःखी होकर मूर्च्छित पड़ी है॥41॥

तया कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात्।
अवमानं च दौरात्म्याद् विस्मयं परमं ययुः॥42॥
तब उन्होंने और भी समीप आकर प्रयत्न करके उसको मूर्छा से जगाया। जागने पर प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के विरह में कातर हुई उस गोपसुन्दरी ने भगवान माधव के द्वारा उसे जो प्रेम तथा सम्मान प्राप्त हुआ था, वह सुनाया तथा यह भी बतलाया कि फिर ‘मैंने ही गर्व में भरकर कुटिलतावश उनका अपमान किया, तब वे मुझे छोड़कर अन्तर्धान हो गये।’ इन दोनों विचित्र घटनाओं को सुनकर गोपियों को परम आश्चर्य हुआ॥42॥

ततोऽविशन् वनं चन्द्रज्योत्स्ना यावद् विभाव्यते।
तमः प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः॥43॥
तदनन्तर वन में जहाँ तक चन्द्रमा की किरणें छिटक रही थीं, वहाँ तक तो वे समस्त व्रज गोपियाँ श्यामसुन्दर को ढूँढ़ती हुई चली गयीं; परंतु आगे जब उन्होंने अत्यन्त अन्धकारमय गहन वन देखा, तब यह सोचा कि यदि हम इस अन्धकार में उन्हें ढूँढ़ती हुई चली जायँगी तो वे और भी घने अन्धकारमय वन में जा छिपेंगे और हमें नहीं मिलेंगे, इसलिये वे उधर से वापस चली आयीं॥43॥

तन्मनस्कास्तदालापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः।
तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मागाराणि सस्मरुः॥44॥
उन सब गोपियों का मन श्रीकृष्णचन्द्र के मन वाला हो रहा था, उनकी वाणी केवल श्रीकृष्ण के लिये और श्रीकृष्ण की ही चर्चा में लगी हुई थी, उनके शरीर से होने वाली प्रत्येक चेष्टा केवल श्रीकृष्ण की ही थी। वे श्रीकृष्ण में ही सर्वथा घुल-मिल गयी थीं, श्रीकृष्ण के गुणों का ही गान कर रही थीं। वे इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने देह-गेह की भी सुध नहीं थी, फिर घर-बार की स्मृति होती ही कैसे?॥44॥

पुनः पुलिनमागत्य कालिन्द्याः कृष्णभावनाः।
समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकांक्षिताः॥45॥
श्रीकृष्ण के शीघ्र ही आगमन की आकांक्षा से एकत्र होकर श्रीकृष्ण की भावना से तन्मय हुई वे सब भाग्यवती व्रजसुन्दरियाँ फिर श्री यमुना जी के पावन पुलिन पर लौट आयीं और वहाँ सब मिलकर प्रियतम श्रीकृष्ण की लीलाओं का मधुर गान करने लगीं।

तृतीय अध्याय

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥1॥
श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल वे प्रेममयी गोपियाँ गाने लगीं-‘हे प्रियतम! तुम्हारे प्रकट होने के कारण इस व्रज का गौरव वैकुण्ठ आदि दिव्य लोकों से भी अधिक हो गया है; तभी तो अखिल सौन्दर्य-माधुर्य की दिव्य मूर्ति श्री लक्ष्मी जी अपने नित्य निवास वैकुण्ठ को छोड़कर इस व्रज को सुशोभित करती हुई यहाँ निरन्तर निवास कर रही हैं। इस महान सुख से पूर्ण सौभाग्यमय व्रज में हम गोपियाँ ही ऐसी हैं, जो तुम्हारी भी, तुममें अपने प्राणों को पूर्णरूप से समर्पण करके भी वन-वन भटककर सब ओर तुम्हें ढूँढ़ रहीं हैं, पर तुम मिल नहीं रहे हो। विरहज्वाला से जलती हुई भी इसी आशा से हम सर्वथा भस्म नहीं हो रही हैं कि तुम शीघ्र मिलोगे! अतएव अब तुम तुरंत दीख जाओ॥1॥

शरदुदाशये साधुजातसत्-
सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः॥2॥
हे हमारे रसेश्वर! हे वर देने वाले में श्रेष्ठ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासियाँ हैं। तुम शरद ऋतु के सरोवर में खिले हुए उत्कृष्ट जाति के परमसुन्दर कमल कोशों की कर्णिका की सौन्दर्य-सुषमा को चुराने वाले अपने नेत्रों की मार से हमें मार चुके हो। इस जगत में इस प्रकार नेत्रों से किसी को मार डालना क्या वध नहीं है?॥2॥

विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद्
वर्षमारुताद् वैद्युतानलात्।
वृषमयात्मजाद् विश्वतोभया-
दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः॥3॥
हे पुरुषश्रेष्ठ! कालियह्रद के विषमय जलपान के कारण होने वाली मृत्यु से, अघासुर से, इन्द्र की वर्षा, आँधी अथवा तृणावर्त दैत्य से तथा वज्रपात से, भीषण दावानल से, अरिष्टासुर और मय के पुत्र व्योमासुर आदि से और इसी प्रकार के अनेक भयों से तुमने ही तो बार-बार हमारी रक्षा की थी। फिर आज तुम्हीं अपनी विरहज्वाला से हमें क्यों भस्म कर रहे हो?॥3॥

न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान् सात्वतां कुले॥4॥
हम जानती हैं कि आप निश्चय ही केवल यशोदा मैया के लाला ही नहीं हैं, अपितु समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा के साक्षी हैं। ब्रह्मा जी की प्रार्थना सुनकर विश्व की रक्षा के लिये ही आप यदुकुल में आविर्भूत हुए हैं। इस प्रकार विश्वभर की रक्षा के लिये अवतीर्ण होकर भी आप हमारे प्रति इतने निर्दय होकर हमें क्यों मार रहे हैं?॥4॥
क्रमश:

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