64

64-
श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दूसरा अध्याय

बद्धान्यया स्त्रजा काचित् तन्वी तत्र उलूखले।
भीता सुदृक् पिधायास्यं भेजे भीतिविडम्बनम्॥23॥
इतने में एक गोपी ने व्रजेश्वरी श्री यशोदा जी का भाव ग्रहण किया, दूसरी एक गोपी श्रीकृष्ण के भाव से भावित हुई। यशोदा बनी गोपी ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण बनी गोपी को ऊखल से बाँधने की भाँति बाँध दिया। तब वह श्रीकृष्ण बनी हुई व्रजसुन्दरी डरी हुई-सी अपने सुन्दर नेत्रों वाले मुख को हाथों से ढँककर, जिस प्रकार श्रीकृष्ण यशोदा मैया के द्वारा बाँधे जाने पर भयभीत हो गये थे, ठीक उसी प्रकार रुदन आदि भय की चेष्टाओं का अनुकरण करने लगी॥23॥

एवं कृष्णं पृच्छमाना वृन्दावनलतास्तरून्।
व्यचक्षत वनोद्देशे पदानि परमात्मनः॥24॥
इस प्रकार वृन्दावन के वृक्ष-लताओं से श्रीकृष्ण का पता पूछती हुई वे वन में एक ऐसे स्थान पर पहुँची, जहाँ उन्हें अकस्मात् परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र के चरण चिह्न दिखायी पड़े॥24॥

पदानि व्यक्तमेतानि नन्दसूनोर्महात्मनः।
लक्ष्यन्ते हि ध्वजाम्भोजवज्राङ्कुशयवादिभिः॥25॥
चरण चिह्नों को देखकर वे परस्पर कहने लगीं - ये चरण चिह्न निश्चय ही महात्मा पुरुषोत्तम नन्दनन्दन श्री श्याम सुन्दर के हैं, क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश, जौ आदि के चिह्न स्पष्ट दिखायी दे रहे हैं॥25॥

तैस्तैः पदैस्तत्पदवीमन्विच्छन्त्योऽग्रतोऽबलाः।
वध्वाः पदैः सुपृक्तानि विलोक्यार्ताः समब्रुवन्॥26॥
उन चरण-चिह्नों के सहारे प्रियतम श्रीकृष्ण को ढूँढती हुई वे व्रजसुन्दरियाँ आगे बढ़ीं तो उन्हें श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों के साथ ही किसी व्रज वधू के भी चरण चिह्न दिखायी दिये। उन्हें देखकर वे अत्यन्त पीड़ित हुईं और परस्पर कहने लगीं॥26॥

कस्याः पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना।
अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा॥27॥
ओह! जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराज के साथ जाती हो और गजराज उस हथिनी के कंधे पर अपनी सूँड रख दे और दोनों मिलकर चलें, वैसे ही अपने कंधे पर श्री श्यामसुन्दर की भुजा को धारण किये हुए उनके साथ-साथ चलने वाली किस सौभाग्यवती व्रजसुन्दरी के ये दूसरे चरण चिह्न हैं?॥27॥

अनयाऽऽराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः।
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद् रहः॥28॥
निश्चय ही यह हम लोगों का मन हरण करने वाले सर्वशक्तिमान श्रीकृष्ण की आराधना करने वाली - उनसे परम प्रेम करने वाली आराधिका होगी। उस परम प्रेम के फलस्वरूप ही इस पर रीझकर गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्र इस बड़भागिनी को एकान्त में ले गये हैं और हम लोगों को वन में छोड़ दिया है॥28॥

धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्र्यब्जरेणवः।
यान् ब्रह्मेशो रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये॥29॥
कुछ व्रजसुन्दरियों ने कहा - प्रिय सखियों! अहा! ये श्रीकृष्ण चरणारविन्दों के रजःकण धन्य हैं। ये अत्यन्त पवित्र हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण के पद-कमलों से इनका स्पर्श हो चुका है। इसीलिये तो ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने-अपने अशुभों-दुःखों का नाश करने के लिये इन्हें मस्तक पर धारण करते हैं। आओ, हम भी इन रजःकणों को सिर पर चढ़ायें, ये रजःकण अवश्य ही हमारे श्रीकृष्ण वियोग रूप अशुभ को दूर कर देंगे॥29॥

तस्या अमूनि नः क्षोभं कुर्वन्त्युच्चैः पदानि यत्।
यैकापहृत्य गोपीनां रहो भुङ्क्तेऽच्युताधरम्॥30॥
कुछ गोपियाँ बोलीं - सखियों! यह तो ठीक है; परन्तु वह जो सखी श्रीकृष्ण को एकान्त में ले जाकर हम सब गोपियों की सार-सर्वस्व वस्तु उनके मधुर अधरामृत-रस को हमसे छीनकर अकेली ही उसका पान कर रही है, उसके ये उभरे हुए चरणचिह्न हम सबके हृदयों में अत्यधिक जलन उत्पन्न कर रहे हैं॥30॥

न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणांकुरैः।
खिद्यत्सुजाताङ्घ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः॥31॥
कुछ आगे बढ़ने पर जब गोपियों को उस गोपी के चरण चिह्न नहीं दिखलायी दिये, तब वे बोलीं - ‘अरी सखियों! देखो, यहाँ तो उस गोपी के चरण-चिह्न नहीं दिखायी पड़ रहे हैं। जान पड़ता है, प्यारे श्यामसुन्दर ने देखा होगा कि हमारी प्रेयसी सुकुमार तलवों में घास की कठोर नोंक गड़ रही है; इसलिये वे हो-न-हो उसको अपने कंधे पर चढ़ाकर ले गये होंगे॥31॥

इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो वधूम्।
गोप्यः पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः॥32॥
उससे कुछ आगे बढ़ने पर उनमें से एक ने कहा - अरी गोपियों! देखों तो यहाँ श्रीकृष्ण के चरण कमल पृथ्वी में गहरे धँसे हुए दिखायी देते हैं। निश्चय ही वे प्रेम विह्ल श्याम सुन्दर उस गोप वधू को अपने कंधे पर चढ़ाकर ले गये हैं, उसी के भार से उनके ये चरण जमीन में धँस गये हैं॥32॥

अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना।
अत्र प्रसूनावचयः प्रियार्थे प्रेयसा कृतः।
प्रपदाक्रमणे एते पश्यतासकले पदे॥33॥
सखियों! महात्मा (नित्य काम विजयी) श्यामसुन्दर ने प्रेमवश यहाँ पुष्प चयन करने के लिये अपनी प्रेयसी को कंधे से नीचे उतार दिया है और उन परम प्रेमी व्रज राजकुमार ने अपनी प्रिया का श्रृंगार करने के लिये उचक-उचक कर पुष्पों का चयन किया है, इससे उनके चरणों के पंजों के ही चिह्न पृथ्वी पर उभर पाये हैं। देखो तो यहाँ वे अधूरे चरण चिह्न दिखायी दे रहे हैं॥33॥

केशप्रसाधनं त्वत्र कामिन्याः कामिना कृतम्।
तानि चूडयता कान्तामुपविष्टमिह ध्रुवम्॥34॥
देखो! यहाँ उन प्रेमी श्री श्याम सुन्दर ने उस प्रेमिका के केश सँवारे हैं और निश्चय ही यहाँ बैठकर उन्होंने अपने कर - कमलों द्वारा चुने हुए पुष्पों द्वारा अपनी कान्ता को चूड़ामणि से सजाया है॥34॥

रेमे तया चात्मरत आत्मारामोऽप्यखण्डितः।
कामिनां दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम्॥35॥
श्री शुकदेव जी ने कहा - परीक्षित! श्रीकृष्ण नित्य अपने स्वरूप में ही संतुष्ट और पूर्ण हैं, वे नित्य-निरन्तर आत्मा में ही रमण करने वाले हैं, वे अखण्ड हैं-उनके सिवा और कोई है ही नहीं अतः कामिनियों का कोई भी विलास उनको कभी अपनी ओर नहीं खींच सकता। इतने पर भी वे कामियों की दीनता- स्त्री पर वशता और स्त्रियों की कुटिलता दिखलाते हुए उस व्रजसुन्दरी के साथ एकान्त में, अपने आत्माराम स्वरूप से सर्वथा अच्युत तथा उसमें नित्य प्रतिष्ठित रहते हुए ही विहार कर रहे थे॥35॥

इत्येवं दर्शयन्त्यस्ताश्चेरुर्गोप्यो विचेतसः।
यां गोपीमनयत् कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने॥36॥
सा च मेने तदाऽऽत्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम्।
हित्वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः॥37॥
किंतु उन व्रजसुन्दरियों को कुछ पता नहीं था कि नन्दनन्दन कहाँ, किस स्थान पर हैं। वे गोपसुन्दरियाँ श्री श्यामसुन्दर में तन्मय होकर एक-दूसरी को श्री श्यामसुन्दर के तथा उनकी प्रिया के चरण चिह्न को दिखलाती हुई उन्हें ढूँढ़ने के लिये व्याकुल हृदय होकर वन-वन भटक रही थीं।
क्रमश:

Comments

Popular posts from this blog

12

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1