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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
द्वितीय अध्याय

अप्येणपत्न्युपगत: प्रिययेह गात्रै-
स्तन्वन्‌ दृशां सखि सुनिर्वतिमच्युतो व:।
कान्तांगसंगकुचकुंकुमञ्जिताया:
कुन्दस्त्रज: कुलपतेहि वाति गन्ध:॥11॥
तदनन्तर हिरणियों की दृष्टि को प्रसन्न देखकर गोपांगनाओं ने सोचा, इन्होंने श्रीकृष्ण को देखा होगा और उनसे कहने लगीं - ‘अरी सखी हिरणियों! अपने प्रेममय स्वभाव में नित्य स्थित श्यामसुन्दर अपनी प्राणप्रिया के साथ अपने मनोहर अंगों के सौन्दर्य-माधुर्य से तुम्हारे नेत्रों को निरतिशय आनन्द प्रदान करते हुए तुम्हारे समीप से तो नहीं गये हैं? हमें तो ऐसा लगता है, वे यहाँ अवश्य आये हैं, क्योंकि यहाँ गोकुलनाथ श्रीकृष्ण के हृदय पर झूलती हुई उस कुन्दकुसुमों की माला की मनोरम सुगन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसी के आलिंगन के कारण लगी हुई उसके वक्षःस्थल की केसर से अनुरंजित रहती॥11॥

बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्‌मो
रामानुजस्तुलसिकालिकुलैर्मदान्धै:।
अन्वीयमान इह वस्तरव: प्रणामं
किं वाभिनन्दति चरन्‌ प्रणयावलोकै:॥12॥
हिरणियों को निस्तब्ध देखकर उन्होंने सोचा, एक बार पुनः वृक्षों से पूछकर देखें; अतः वे बोलीं - ‘पवित्र तरुवरों! तुलसी -मंजरी के मधुपान से मत्त हुए भ्रमर जिनके पीछे-पीछे मँडराते चले जा रहे हैं, जो अपने दाहिने हाथ में नीला कमल धारण किये हुए हैं और बायें हाथ को प्रियतमा के कंधे पर रखे हुए हैं, ऐसे श्री बलराम जी के छोटे भाई हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर इधर से विचरते हुए निकले थे क्या? तुम जो प्रणाम करने की तरह झुके हुए हो सो क्या उन्होंने प्रेमपूर्ण दृष्टि से तुम्हारे इस प्रणाम का अभिनन्दन किया था?’॥12॥

पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्र्लिष्टा वनस्पते:।
नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो॥13॥
कुछ गोपियों ने कहा - अरी सखियों वृक्षों से क्या पूछ रही हो। इन लताओं से भी पूछो, जो अपने पति वृक्षों की भुजाओं-शाखाओं से लिपटी हुई हैं। पर इनके शरीर में जो नये-नये अंकुरों के उद्गम रूप में पुलकावली छायी हुई है, यह अवश्य ही इनके पति-वृक्षों से लिपटी रहने के कारण नहीं है। यह तो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के नखों के स्पर्श का ही परिणाम है। अहो! इनका कैसा सौभाग्य है॥13॥

इत्यन्मुत्तवचोगोप्य: कृष्णान्वेषणकातरा:।
लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिका:॥14॥
परीक्षित! इस प्रकार पागलों की भाँति प्रलाप करती हुई व्रजसुन्दरियाँ भगवान श्रीकृष्ण को ढूँढती हुई विरह दुःख के कारण कातर और असमर्थ हो गयीं। तब उनकी कृष्ण तन्मयता फिर बढ़ी और वे अपने को भगवान श्रीकृष्ण ही मानकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं॥14॥

कस्याश्चित्‌ पूतनायन्त्या: कृष्णायन्त्यपिबत्‌ स्तनम्‌।
तोकयित्वा रुदत्यन्या पदाहञ्छकटायतीम्‌॥15॥
श्रीकृष्णलीला का अनुकरण करने वाली एक गोपी पूतना बन गयी, दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तनपान करने लगी। एक गोपी छकड़ा बन गयी तो दूसरी बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसको चरण की ठोकर मारकर उलट दिया॥15॥

दैत्यायित्वा जहारान्यामेका कृष्णार्भभावनाम्‌।
रिंगयामास काप्यङ्‌घ्नी कर्षन्ती घोषनि:स्वनै:॥16॥
कोई एक गोपी तृणावर्त दैत्य बन गयी और बालकृष्ण बनी हुई दूसरी गोपी का हरण करने का भाव दिखाने लगी। किसी गोपी ने अपने पैरों की पायजेब की मधुर ध्वनि को श्रीकृष्ण की किंकिणी-ध्वनि समझकर अपने को शिशु कृष्ण मान लिया और दोनों चरणों को भूमि पर घसीट-घसीट कर रेंगने लगी - भगवान की मधुर बकैयाँ चलने की लीला का अनुकरण करने लगी॥16॥

कृष्णरामायिते द्वे ते गोपायन्त्यश्च काश्चन।
वत्सायतीं हन्ति चान्या तत्रैका तु बकायतीम्‌॥17॥
दो गोपियाँ श्रीकृष्ण और बलराम बनकर उनके-जैसे खेल करने लगीं। कुछ गोपियाँ गोप - बालकों के समान बनकर क्रीड़ा करने लगीं, कुछ बछड़ों का अनुकरण करने लगीं। एक गोपी वत्सासुर बन गयी, दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसे मारने की लीला करने लगी। इसी प्रकार एक गोपी बकासुर बनी और दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसे चीर डालने का भाव दिखाने लगी॥17॥

आहूय दूरगा यद्वत्‌ कृष्णस्तमनुकुर्वतीम्‌।
वेणुं क्वणन्तीं क्रीडन्तीमन्या: शंसन्ति साध्विति॥18॥
जिस प्रकार श्रीकृष्ण वन में दूर गये हुए गाय-बछड़ों को वंशी बजा-बजाकर बुलाया करते थे, वैसे ही एक गोपी अपने को श्रीकृष्ण समझकर वंशी ध्वनि के द्वारा गायों को बुलाने का भाव दिखाने लगी। उस गोपी की इस वंशी बजाने की लीला को देखकर दूसरी कुछ गोपियाँ ‘वाह-वाह! तुम बहुत ही मधुर मुरली बजा रहे हो’ यों कहकर उसकी प्रशंसा करने लगीं॥18॥

कस्यांचित्‌ स्वभुजं न्यस्य चलन्त्याहापरा ननु।
कृष्णोऽहं पश्यत गतिं ललितामिति तन्मना:॥19॥
श्रीकृष्ण के साथ एक मन हुई एक दूसरी गोपी अपने को श्रीकृष्ण मानकर दूसरी किसी गोपी के गले में बाँह डालकर चलने लगी और कहने लगीं - अरे सखाओं! मैं श्रीकृष्ण हूँ, तुम मेरी यह मनोहर चाल तो देखो॥19॥

मा भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्त्राणं विहितं मया।
इत्युक्त्वैकेन हस्तेन यतन्त्युन्निद्‌धेऽम्बरम्‌॥20॥
एक गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहने लगी - तुम लोग आँधी-पानी से मत डरो, मैंने उससे बचने की सारी व्यवस्था कर दी है। यों कहकर वह गोपी गोवर्धन-धारण का अनुकरण करती हुई एक हाथ से अपनी ओढ़नी को ऊपर उठाकर उसे तानकर खड़ी हो गयी॥20॥

आरुह्यैका पदाऽऽक्रम्य शिरस्याहापरं नृप।
दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दण्डधृक्‌॥21॥
राजा परीक्षित! एक गोपी कालिय नाग बनी तो दूसरी कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर पैर से ठोकर मारकर और उसके सिर पर चढ़कर बोली - ‘अरे दुष्ट सर्प! तू यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों को दण्ड देने के लिये ही आविर्भूत हुआ हूँ॥21॥

तत्रैकोवाच हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्बणम्‌।
चक्षूंष्याश्वपिदध्वं वो विधास्ये क्षेममञ्जसा॥22॥
उसी समय एक गोपी कृष्ण बनकर दावानल से डरे हुए गोपों का अनुकरण करने वाली कई गोपियों से बोली - हे गोपो! देखो वन में भयंकर दावानल जल उठा है; तुम लोग डरो मत, तुरन्त अपनी आँखें मूँद लो। मैं अनायास ही तुम लोगों की रक्षा कर लूँगा॥22॥
क्रमश:

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