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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रथम अध्याय

एवं भगवतं कृष्णाल्लब्धमाना महात्मन:।
आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्योऽभ्यधिकं भुवि॥47॥
परम उदारशिरोमणि सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण ने जब गोपियों का इस प्रकार सम्मान किया, तब उनके मन में ऐसा प्रेमाभिमान आ गया कि पृथ्वी भर की समस्त स्त्रियों में हम ही सबसे श्रेष्ठ हैं॥47॥

तासां तत्‌ सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशव:।
प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत॥48॥
तब उन व्रजसुन्दरियों के उस सौभाग्य के गर्व को तथा अकस्मात् उदय हुए प्रणय-अभिमान को देखकर उस गर्व को शान्त करने तथा मान को दूरकर उन्हें प्रसन्न करने के लिये भगवान श्रीकृष्ण वहीं उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये। रहे वहीं, पर उनको दीखने बंद हो गये॥48॥

दूसरा अध्याय

श्रीशुक उवाच
अन्तर्हिते भगवति सहसैव व्रजांगना:।
अन्तप्यंस्तमचक्षाणा: करिण्य इव यूथपम्‌॥1॥
श्री शुकदेव जी बोले - भगवान श्रीकृष्ण अकस्मात् अन्तर्धान हो गये, उन्हें न देखकर व्रजसुन्दरियों की वैसी ही विकल दशा हो गयी, जैसी दल के स्वामी गजराज को न देखकर हथिनियों की हो जाती है। उनके हृदय में विरह की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी॥1॥

गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितै-
र्मनोरमालापविहारविभ्रमै:।
आक्षिप्तचित्ता: प्रमदा रमापते-
स्तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिका:॥2॥
रमापति श्रीकृष्ण की ललित गति, प्रेमभरी सुमधुर मुस्कान, अत्यन्त मधुर तिरछी भृकुटी, प्रीतिभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप तथा अन्यान्य विविध लीला-विलास एवं श्रृंगार की भाव-भंगियों से उनका चित्त खिंचकर श्रीकृष्ण में लगा हुआ था। वे व्रज की गोपियाँ श्रीकृष्ण में ही तन्मय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की ही विभिन्न चेष्टाओं का ध्यान करने लगीं॥2॥

गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु
प्रिया: प्रियस्य प्रातिरूढमूर्तय:।
असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका
न्यवेदिषु: कृष्णविहारविभ्रमा:॥3॥
इससे प्रियतम श्रीकृष्ण की ललित गति, मधुर हास, मनोरम चितवन, अमृतमय वचन आदि में वे श्रीकृष्ण की प्यारी व्रज सुन्दरियाँ उनके समान ही बन गयीं। उनके शरीर में भी वैसी ही चेष्टाओं का प्राकट्य हो गया और वे श्रीकृष्ण लीला-विलास के स्मरणजनित भाव से उन्मादिनी होकर श्रीकृष्ण स्वरूप ही बन गयीं तथा ‘मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’ परस्पर इस प्रकार अपना परिचय देने लगीं॥3॥

गायन्त्य उच्चैरमुमेव संहता
विचिक्युरुन्मत्तकवद्‌ वनाद्‌ वनम्‌
पप्रच्छुराकाशवदन्तरं बहि
र्भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन्‌॥4॥
जब उनका यह श्रीकृष्णावेश कुछ शिथिल हुआ, तब भाव बदला और वे सब मिलकर ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं तथा प्रेम में पागल-सी होकर एक वन से दूसरे वन में उन्हें ढूँढने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण जड़-चेतन सभी पदार्थों के अंदर और उनके बाहर भी सदा आकाश के सदृश एक रस तथा व्याप्त हैं। वे कहीं गये नहीं थे, परन्तु गोपियाँ उन्हें अपने बीच में न देखकर वनस्पतियों से वृक्ष लताओं से उनके समीप जा जाकर प्रियतम का पता पूछने लगीं॥4॥

दृष्टो व: कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मन:।
नन्दसूनुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनै:॥5॥
व्रजसुन्दरियों ने पहले बड़े-बड़े वृक्षों के पास जाकर उनसे पूछा - ‘हे पीपल, पाकर, वट नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेम भरी मुस्कान तथा चितवन से हम लोगों के मन चुराकर कहीं चले गये हैं, क्या तुम लोगों ने उनको देखा है?॥5॥

कच्चित्‌ कुरबकाशोकनागपुंनागचम्पका:।
रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मित:॥6॥
हे कुरबक! अशोक! नागकेशर! पुंनाग! चम्पक! जिनकी मधुरतम मुस्कान मात्र से बड़ी-बड़ी मानिनी रमणियों का दर्प चूर्ण हो जाता है, वे बलराम जी के छोटे भाई श्रीकृष्णचन्द्र इधर से गये हैं क्या॥6॥

कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविन्दचरणप्रिये।
सह त्वालिकुलैर्बिभ्रद्‌ दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युत:॥7॥
जब इन पुरुषजातीय वृक्षों से उत्तर नहीं मिला, तब उन्होंने स्त्रीजाति के पौधों से पूछा - ‘बहिन तुलसी! तुम तो कल्याणमयी हो, सबका कल्याण चाहती हो। तुम्हारा श्रीगोविन्द के चरणों में बड़ा प्रेम है और वे भी तुमसे प्रेम करते हैं; इसीलिये भ्रमरों से घिरी हुई तुम्हारी माला को सदा हृदय पर धारण करते हैं। उन अपने प्रियतम अच्युत-जो अपने प्रेम-स्वभाव से कभी च्युत नहीं होते - श्यामसुन्दर को क्या तुमने इधर से जाते देखा है?॥7॥

मालत्यदर्शि व: कच्चिन्मल्लिके जाति यूथिके।
प्रीतिं वो जनयन्‌ यात: करस्पर्शेन माधव:॥8॥
गोपियों ने समझा तुलसी श्रीकृष्ण को अति प्यारी है, इसको उनका अवश्य पता होगा। पर जब उसने भी कोई उत्तर नहीं दिया, तब वे सुगन्धित पुष्पों वाले पौधों से पूछने लगीं - सोचा कि श्रीकृष्ण को इनके पुष्प बहुत प्रिय लगते हैं, अतः इनको पता होगा। हे मालती! चमेली! जूही! तुम्हारे सुन्दर, सुगन्धित पुष्पों का चयन करते समय अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हें आनन्द देते हुए क्या हमारे प्रियतम माधव को तुमने इधर से जाते देखा है?॥8॥

चूतप्रियालपनसासनकोविदार-
जम्ब्वर्कबिल्वबकुलाम्रकदम्बनीपा:।
येऽन्ये परार्थभवका यमुनापकूला:
शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां न:॥9॥
पुष्प लताओं से भी जब उत्तर नहीं मिला, तब यह सोचकर कि बड़े-छोटे सभी वृक्ष दीन-दुखियों के उपकार में ही सदा लगे रहते हैं, हम सब दुःख संतप्त हैं, अतः इनके स्वभाव की स्मृति कराते हुए इन वृक्षों से पूछें, वे उनसे बोलीं - हे रसाल, प्रियाल, कटहल, पीतशाल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसिरी, आम, कदम्ब, नीम और यमुना तट पर विराजमान अन्यान्य तरुवरों! तुमने तो केवल परोपकार के लिये ही जीवन धारण किया है। हमारा हृदय श्रीकृष्ण के बिना सूना हो रहा है; अतएव हम तुम लोगों से प्रार्थना करती हैं कि तुम कृपा करके श्रीकृष्ण का पता हमें बता दो॥9॥

किंते कृतं क्षिति तपो बत केशवाङ्‌घ्नि-
स्पर्शोत्सवोत्पुलकितागंरुहैर्विभासि।
अप्यङ्‌घ्निसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्‌ वा
आहो वराहवपुष: परिम्भणेन॥10॥
वृक्षों से भी जब कोई उत्तर नहीं मिला, तब उन्मादिनी व्रजसुन्दरियों ने पृथ्वी को सम्बोधन करके कहा - ‘भगवान की प्रियतमे पृथ्वी देवि! तुमने ऐसा कौन-सा तप किया है जो तुम श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का स्पर्श प्राप्त करके आनन्द से उत्फुल्ल हो रही हो और तृण-अंकुर आदि के रूप में रोमांचित होकर शोभा पा रही हो? तुम्हारा यह आनन्दोल्लास अभी-अभी श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श के कारण है। अथवा बलि को छलते समय वामनावतार में विराट रूप से अपने चरणों के द्वारा उन्होंने तुमको नापा था, उसके कारण है? या उससे भी पूर्व जब तुम्हारा उद्धार करने के लिये उन्होंने तुमसे वाराह रूप से आलिंगन किया था, उसके कारण तुम्हें इतना आनन्द हो रहा है?॥10॥
क्रमश:

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