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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रथम अध्याय

यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया
दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य।
अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमंग
स्थातुं त्वयाभिरमिता बत पारयाम:॥36॥
हे कमललोचन! तुम्हारे चरणतल वनवासियों को बड़े प्रिय हैं; और-तो-और नारायण की प्रिया लक्ष्मी देवी को भी सुख देने वाले हैं; उन चरणों का गोवर्धन आदि कुञ्जस्थलों में हमें जिस क्षण स्पर्श प्राप्त हुआ और तुमने हमें सेवा के लिये स्वीकार करके आनन्दित किया, उसी क्षण से प्यारे! हम किसी दूसरे के पास एक पल के लिये खड़ी भी नहीं हो सकतीं, पति-पुत्रादि की सेवा करना तो दूर की बात है॥36॥

श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या
लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम्‌।
यस्या: स्ववीक्षणकृतेऽन्यसुरप्रयास-
स्तद्वद्‌ वयं च तव पादरज: प्रपन्ना:॥37॥
जिन लक्ष्मी जी की कृपा दृष्टि प्राप्त करने के लिये ब्रह्मादि बड़े-बड़े देवता प्रयास करते रहते हैं, वे लक्ष्मी जी भी श्रीनारायण के वक्षःस्थल पर नित्य स्थान प्राप्त कर लेने पर भी तुलसी जी के साथ तुम्हारे चरण-कमल की उस राज को पाने के लिये लालायित रहती हैं, जो तुम्हारे सेवकों को सहज प्राप्त है; श्रीकृष्ण! हम लोग भी उन्हीं की भाँति सर्वत्याग करके तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आयी हैं॥37॥

तन्न: प्रसीद वृजिनार्दन तेऽङ्‌घ्निमूलं
प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशा:।
त्वत्सुन्दरस्मितानिरीक्षणतीव्रकाम-
तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम्‌॥38॥
भगवन तुम सबके सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाले हो, हम सब तुम्हारे चरणों की सेवा करने की आशा से ही घर-कुटुम्बादि सब कुछ त्याग कर तुम्हारे चरणों की शरण में आयी हैं; अब तुम हम पर प्रसन्न होओ। हे पुरुषरत्न! तुम्हारी मधुर मुस्कान तथा तिरछी चितवन ने हमारे देह तथा मन को प्रेम-मिलन-लालसा की तीव्र अग्नि से संतप्त कर दिया है, अब तुम हम लोगों को दासी के रूप में स्वीकार कर सेवा का सौभाग्य प्रदान करो॥38॥

वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री-
गण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम्‌।
दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य
वक्ष: श्रियैकरमणं च भवाम दास्य:॥39॥
प्रियतम तुम्हारे मुखकमल को, जो घुँघराली अलकों के भीतर से झलक रहा है, जिसके कमनीय कपोलों पर कुण्डलों की छवि छा रही है, जिसके मधुर अधर अमृतमय हैं तथा जो हृदय को हर लेने वाली तिरछी चितवन तथा मधुर मुस्कान से समन्वित है, निरखकर तथा अभय दान देने वाली दोनों भुजाओं को एवं सौन्दर्य की एकमात्र मूर्ति श्रीलक्ष्मी जी के नित्य रतिप्रद वक्षःस्थल को निहारकर हम सब तुम्हारी सदा के लिये बिना मोल की दासी बन चुकी हैं॥39॥

का स्त्र्यंग ते कलपदायतमूर्च्छितेन
सम्मोहिताऽऽर्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम्‌।
त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं
यद्‌ गोद्विजद्रुममृगा: पुलकान्यबिभ्रन्‌॥40॥
प्रियतम तीनों लोकों में ऐसी कौन-सी रमणी है, जो तुम्हारे मधुर-मधुर पद और आरोह-अवरोह क्रम से विभिन्न प्रकार की मूर्च्छनाओं से समन्वित मुरली-संगीत को सुनकर तथा त्रिभुवन के सौभाग्य रूप इस त्रिभंग-ललित श्यामसुन्दर-रूप को देखकर सर्वथा मोहित हो अपनी आर्य मर्यादा से विचलित न हो जाए। स्त्रियों की तो बात ही क्या है, तुम्हारा त्रिभुवन-मन-मोहन रूप तथा मुरली-संगीत ऐसा मोहक है कि इसे देख-सुनकर गौ, पक्षी, वृक्ष और मृग आदि प्राणी भी परमानन्द से पुलकित हो गये हैं॥40॥

व्यक्तं भवान्‌ व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो
देवो यथाऽऽदिपुरुष: सुरलोकगोप्ता।
तन्नो निधेहि करपंकामार्तबन्धो
तप्तस्तनेषु च शिरस्सु च किंकरीणाम्‌॥41॥
दयामय आप आर्तों के बन्धु हैं और यह प्रसिद्ध है कि जिस प्रकार आदिदेव भगवान श्रीनारायण देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी व्रजमण्डल के भय को दूर करने के लिये प्रकट हुए हैं। हम भी आपके मिलन-मनोरथ की अग्नि से संतप्त, अत्यन्त आर्त हैं। अतएव आप हम किंकरियों के वक्षःस्थलों पर और सिर पर अपने कमल-कोमल हाथ रखकर हमें दुःख मुक्त कर दें॥41॥

श्रीशुक उवाच
इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्र्वरेश्र्वर:।
प्रहस्य सदयं गोपीरात्मारामोऽप्यरीरमत्‌॥42॥
श्री शुकदेव जी बोले - परीक्षित सनकादि-शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर, नित्य आत्मस्वरूप में रमण करने वाले भगवान ने जब व्रज गोपियों की इस प्रकार मार्मिक व्यथा और व्याकुलता से पूर्ण वाणी को सुना, तब उनका हृदय दया से द्रवित हो गया और शुद्ध मन से हँसकर वे अपने कर-कमलों से उनके आँसू पोंछकर उनके साथ विलास-विहार करने लगे - उन्हें अपना स्वरूपभूत आनन्द देने लगे॥42॥

ताभि: समेताभिरुदारचेष्टित:
प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युत:।
उदारहासद्विजकुन्ददीधिति
र्व्यरोचतैणांक इवोडुभिर्वृत:॥43॥
प्रियतम की अत्यन्त समीपता प्राप्त करने से गोप रमणियों का विरह दुःख तथा प्रणय कोप शान्त हो गया और श्रीकृष्ण के दर्शन तथा उनकी प्रेम भरी चितवन के आनन्द से उनका मुख-कमल प्रफुल्लित हो उठा। वे जब हँसते थे, तब उनकी उज्ज्वल दन्त पंक्तियों पर कुन्दपुष्पों- जैसी शोभा छा जाती थीं। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो ताराओं से घिरे हुए पूर्ण चन्द्रमा हों। श्रीकृष्ण इस प्रकार व्रजबालाओं को सुख देकर भी अपने सच्चिदानन्द घर स्वरूप से जरा भी च्युत नहीं हुए थे अर्थात गोप रमणियों के साथ उनका यह क्रीडा-विहार सच्चिदानन्दमयी दिव्यलीला थी॥43॥

उपगीयमान उद्गायन्‌ वनिताशतयूथप:।
माला बिभ्रद्‌ वैजयन्तीं व्यचरन्मण्डयन्‌ वनम्‌॥44॥
उस समय व्रज गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के गुण, रूप तथा लीला आदि का मधुर स्वर से गान करने लगीं, उधर श्रीकृष्ण भी उच्च स्वर से उनके प्रेम और सौन्दर्य के गीत गाने लगे। इस प्रकार व्रज सुन्दरियों के सैकड़ों यूथों के नायक श्रीकृष्ण वैजयन्ती माला धारण किये श्रीवृन्दावन की शोभा बढ़ाते हुए विचरण करने लगे॥44॥

नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्‌।
रेमे तत्‌तरलानन्दकुमुदामोदवायुना॥45॥
तदनन्तर गोपांगनाओं के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने यमुना के उस परम रमणीय पुलिन पर पदार्पण किया। वह पुलिन यमुना जी की तरल तरंगों के स्पर्श से शीतल हो रहा था और कुमुदिनी की सुन्दर सुगन्ध से युक्त मन्द-मन्द वायु के द्वारा परिसेवित था। वहाँ बर्फ के समान उज्ज्वल तथा शीतल बालू बिछी हुई थी। इस प्रकार के आनन्दप्रद पुलिन पर भगवान अपनी स्वरूपभूता गोपियों के साथ क्रीड़ा करने लगे॥45॥

बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु-
नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातै:।
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणा-
मुत्तम्भयन्‌ रतिपतिं रमयांचकार॥46॥
हाथ फैलाकर आलिंगन करना, हाथ, चोटी, जंघा, लँहगे और वक्षःस्थल का स्पर्श करना, विनोद करना, नखक्षत करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना, मुस्काना-इन सब चेष्टाओं के द्वारा गोपरमणियों के दिव्य कामरस-विशुद्ध प्रेम का उद्दीपन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण क्रीड़ा के द्वारा उन्हें आनन्द देने लगे, अपने दिव्य स्वरूपानन्द का वितरण करके उनको तृप्त करने लगे॥46॥
क्रमश:

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