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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रथम अध्याय

राजोवाच कृष्णं विदु: परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने।
गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणधियां कथम्‌॥12॥
महाराज परीक्षित ने पूछा - श्रीकृष्णलीलामाधुरी का नित्य मनन करने वाले श्री शुकदेव जी! गोपियाँ तो श्रीकृष्ण को केवल परम प्रियतमरूप से ही जानती थीं; वे साक्षात परब्रह्म हैं, ऐसा अनुभव तो वे करती नहीं थीं। उनकी बुद्धि तो श्रीकृष्ण के सौन्दर्य-माधुर्य-लावण्य आदि गुणों में ही लगी हुई थी। ऐसी स्थिति में वे त्रिगुणमय देहादि संसार के प्रवाह से मुक्त कैसे हो गयीं? वे संसार से मुक्त होकर परमात्मा श्रीकृष्ण से कैसे जा मिलीं?॥12॥

उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्य: सिद्धिं यथा गत:।
द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रिया:॥13॥
श्री शुकदेव जी ने कहा - परीक्षित मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल सभी इन्द्रियों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से द्वेष रखने पर भी प्राकृत शरीर को त्यागकर अप्राकृत पार्षद देह रूप सिद्धि को प्राप्त हो गया था। फिर जो सम्पूर्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत श्रीकृष्ण की प्रिया हैं और उनमें अनन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियाँ उनको प्राप्त कर लें - इसमें कौन आश्चर्य की बात है॥13॥

नृणां नि:श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप।
अव्ययस्याप्रेमयस्य निर्गुणस्य गुणात्मन:॥14॥
राजन भगवान श्रीकृष्ण जन्म-मृत्यु आदि षडविकारों से रहित अविनाशी परब्रह्म हैं, वे अपरिच्छिन्न हैं, मायिक गुणों से अथवा गुण-गुणी-भाव से रहित हैं और अचिन्त्यानन्त अप्राकृत परम कल्याण रूप दिव्य गुणों के परम आश्रय तथा सम्पूर्ण गुणों का नियन्त्रण करने वाले हैं, वे तो जीवों के परम कल्याण के लिये ही आविर्भूत होते हैं॥14॥

कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च।
नित्यं हरौ विद्धतो यान्ति तन्मयतां हि ते॥15॥
इसलिये जो व्यक्ति किसी भी सम्बन्ध से अपने जीवन को उन सर्व-दोषहारी भगवान से जोड़ देते हैं, वह सम्बन्ध चाहे सदा काम का हो, क्रोध का हो, भय का हो अथवा स्नेह, एकात्मता या सौहार्द का हो, वे निश्चय ही भगवान में तन्मय हो जाते हैं॥15॥

न चैवं विस्मय: कार्यो भवता भगवत्यजे।
योगेश्वरेश्र्वरे कृष्णे यत एतद्‌ विमुच्यते॥16॥
अतएव तुम सरीखे भागवत को जन्मादिरहित, योगेश्वरों के भी परम ईश्वर, ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य के परम निकेतन भगवान नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से केवल परम प्रियतम मानने वाली गोपियों की गुणमय देह से मुक्ति कैसे हो गयी - इस रूप में तनिक भी आश्चर्य नहीं करना चाहिये। गोपियों की तो बात ही क्या, श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से तो स्थावर आदि समस्त जगत संसार-बन्धन से मुक्त हो सकता है॥16॥

ता दृष्ट्‌वान्तिकमायाता भगवान्‌ व्रजयोषित:।
अवदद्‌ वदतां श्रेष्ठो वाच:पेशैर्विमोहयन्‌॥17॥
अस्तु, अब आगे क्या हुआ, यह सुनो! वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि व्रजसुन्दरियाँ मेरे अत्यन्त समीप आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी मनोहर वाक्चातुरी से उनको सर्वथा मोहित करते हुए कहा॥17॥

श्रीभगवानुवाच
स्वागतं वो महाभागा: प्रियं किं करवाणि व:।
व्रजस्यानामयं कच्चिद्‌ ब्रूतागमनकारणम्‌॥18॥
भगवान श्रीकृष्ण बोले - महाभाग्यवती गोपियों तुम भले आयीं, तुम आज्ञा दो, तुम लोगों को प्रिय लगने वाला मैं कौन-सा कार्य करूँ? व्रज में सब कुशल-मंगल तो है न? इस समय तुम लोग यहाँ मेरे पास किस प्रयोजन से पधारीं ,यह तो बताओ॥18॥

रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता।
प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभि: सुमध्यमा:॥19॥
इस बात को सुनकर गोपियाँ लज्जायुक्त होकर मुस्कराने लगीं, तब उन्हें भय दिखाकर उनके प्रेम की परीक्षा लेते हुए भगवान ने फिर कहा - अरी सुन्दरियों! यह रात्रि का समय है; जो स्वभावतः बड़ा भयानक है; फिर इस वन में बाघ-सिंह आदि हिंसक प्राणी भरे हुए हैं। अतः तुम सब तुरंत व्रज को लौट जाओ। रात के समय इस घोर वन में स्त्रियों का ठहरना उचित नहीं है॥19॥

मातर: पितर: पुत्रा भ्रातर: पतयश्च व:।
विचिन्वन्ति ह्यपश्यंतो मा कृढ्वं बंधुसाध्वसम्‌॥20॥
जब भय का उन पर कोई असर नहीं हुआ, तब भगवान ने उन्हें अपने घरवालों की दुश्चिन्ता का स्मरण दिलाया और कहा - देखो, तुम्हारे माता-पिता, पुत्र, भाई और पति तुम्हें घर में देखकर इधर-उधर ढूँढ रहे होंगे। उन आत्मीय स्वजनों के मन में यह भय मत उत्पन्न होने दो कि पता नहीं, तुम्हारा क्या अनिष्ट हो रहा होगा॥20॥

दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितम्‌।
यमुनानिललीलैजत्तरुपल्लवशोभितम्‌॥21॥
(उपर्युक्त तीन श्लोकों के द्वारा भगवान ने गोपियों के अनन्य प्रेमभाव की परीक्षा की। अनन्य-एकनिष्ठ प्रेम हुए बिना भगवान कभी प्रेमास्पद रूप से प्राप्त नहीं होते।) जब भगवान की ऐसी बातें सुनकर भी गोपियाँ कुछ बोलीं नहीं तथा प्रणय-कोप के वश होकर दूसरी ओर देखने लगीं, तब भगवान उन्हें वनशोभा की बात कहकर सती रूप से पतिसेवा करने तथा वात्सल्य भाव से बालक-वत्सों की सँभालने का कर्तव्य दिखाते हुए फिर कहने लगे-
कदाचित तुम सब वन की शोभा देखने आयी होगी तो तुम लोगों ने भाँति-भाँति रंगो वाले परम विचित्र सुगन्धि से सम्पन्न पुष्पों से परिशोभित, पूर्णचन्द्रमा की किरण प्रभा से प्रभासित तथा यमुना जल का स्पर्श करके बहने वाले शीतल पवन की मन्द-मन्द गति से नाचते हुए वृक्षों के पत्तों से विभूषित वृन्दावन को भी देख लिया॥21॥

तद्‌ यात माचिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन्‌ सती:।
क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान्‌ पाययत दुह्यत॥22॥
इसलिये हे सतियों! अब देर मत करो, बहुत शीघ्र व्रज को लौट जाओ। घर जाकर अपने-अपने पतियों की सेवा करो। देखो, तुम्हारे घर के बछड़े और छोटे-छोटे बच्चे रो रहे हैं, जाकर उन्हें दूध पिलाओ तथा बछड़ों के लिये गौएँ भी दुहो॥22॥

अथवा मदभिस्नेहाद्‌ भवत्यो यन्त्रिताशया:।
आगता ह्युपपन्नं व: प्रीयंते मयि जन्तव:॥23॥
भगवान की इस बात को सुनकर गोपियों के मन में बड़ा क्षोभ हुआ, तब भगवान उनको आश्वासन देते हुए सती स्त्रियों के परम धर्म पतिसेवा तथा जार सेवन के दुष्परिणाम का स्मरण कराकर बोले - ‘अथवा यदि तुम लोग मेरे प्रति अत्यन्त प्रेमपरवश होकर आयी हो तो यह तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि प्राणिमात्र मुझसे प्रेम करते हैं॥23॥

भुर्त: शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया।
तद्‌बन्धूनां च कल्याण्य: प्रजानां चानुपोषणम्‌॥24॥
परन्तु हे कल्याणी सतियों यह सब होते हुए भी स्त्रियों का परम धर्म तो यही है कि निष्कपट भाव से पति और उसके भाई-बन्धुओं की सेवा करें तथा पुत्र-कन्यादि का और सेवक आदि का पालन-पोषण करें॥24॥
क्रमश:

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