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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय

श्रीबादरायणिरुवाच
भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः॥1॥
श्रीबादरायणि (व्यास जी) के पुत्र शुकदेव जी ने कहा - ऐश्वर्य वीर्य आदि षडविध महान गुणों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण ने वस्त्र हरण के समय गोपकुमारियों को दिये हुए वचन के अनुसार शरत्कालीन विकसित मल्लिका- चमेली आदि पुष्पों से परिशोभित उन रात्रियों को देखकर योगमाया नामक अपनी अचिन्त्य महाशक्ति को प्रकट किया और गोपरमणियों के साथ विहार करने की इच्छा की॥1॥

तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं
प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शंतमैः।
स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्
प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः॥2॥
जब भगवान ने विहार करने की इच्छा की, तब उसी क्षण-दीर्घ प्रवास के पश्चात घर में आया हुआ प्रियतम जैसे अपने अत्यन्त सुखद हाथों से अपनी प्रेयसी का मुख-कमल अरुण वर्ग केसर से रँग दे, वैसे ही नक्षत्र पति चन्द्रमा ने गगन-मण्डल में उदित होकर अपने सुखमय सुस्निग्ध किरण रूपी कर-कमलों द्वारा पूर्व दिशा रूपी वधू का मुख अरुण वर्ण केसर से रँग दिया। इससे जगत के प्राणियों का शरत्कालीन सूर्य की प्रखर किरणों से उत्पन्न संताप दूर हो गया॥2॥

दृष्ट्‌वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं
रमाननाभं नवकुंकुमारुणम्‌।
वनं च तत्कोमलगोभिरञ्जितं
जगौ कलं वामदृशां मनोहरम्‌॥3॥
रासलीला के इच्छुक भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि कुमुदिनी को विकसित करने वाला पूर्ण चन्द्र आकाश-मण्डल में उदित हो गया है, लक्ष्मी जी के मुखकमल की भाँति उसकी किरण प्रभा सुशोभित है तथा नवीन कुंकुम के समान वह अरुणवर्ण हो रहा है और उसकी कोमल किरणों से समस्त वन प्रकाशित एवं सुरञ्जित हो उठा है, तब इसी समय को रासक्रीड़ा के लिये उपयुक्त दिव्य उज्ज्वल रस के उद्दीपन की पूर्ण सामग्री से युक्त समझकर उन्होंने सुन्दर नेत्रों वाली व्रज सुन्दरियों के मन को हरण करने वाला सुललित स्वरों में मधुर मुरली का वादन किया॥3॥

निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं
व्रजस्त्रिय: कृष्णगृहीतमानसा:।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमा:
स यत्र कांतो जवलोलकुण्डला:॥4॥
व्रज सुन्दरियों का मन तो पहले से ही श्यामसुन्दर ने अपने वश में कर रखा था। अब उस मिलन लालसा प्रेम बढ़ाने वाले वेणुगीत को सुनकर तो वे सर्वथा विमुग्ध हो गयीं। उनकी भय, संकोच, मर्यादा, धैर्य आदि सभी वृत्तियाँ विलुप्त हो गयीं। और वे जहाँ प्रियतम मुरली बजा रहे थे, वहाँ शीघ्रता से जा पहुँचीं। उनमें किसी ने भी परस्पर किसी को जाने की सूचना तक नहीं दी। बड़े वेग से चलने के कारण उस समय उनके कानों के कुण्डल नाच रहे थे॥4॥

दुहंत्योऽभिययु: काश्चिद्‌ दोहं हित्वा समुत्सुका:।
पयोऽधिश्रित्य संयावमनुद्वास्यापरा ययु:॥5॥
श्रीकृष्ण का वंशीनाद सुनते ही-प्रियतम भगवान का आह्णान सुनते ही उनकी ऐसी दशा हुई कि श्रीकृष्ण से मिलने के लिये सदा ही समुत्सुक रहने वाली कुछ गोपियाँ जो दूध दुह रही थीं, वे दुहना बीच में ही छोड़कर चल दीं। कुछ चूल्हे पर दूध औटा रही थीं, वे दूध उफनता हुआ छोड़कर तथा कुछ दूसरी गोपियाँ हलुआ पका रही थीं, वे तैयार हुए हलुए को चूल्हे से बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोड़कर चली गयीं॥5॥

परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा पाययन्त्य: शिशून्‌ पय:।
शुश्रुषन्त्य: पतीन्‌ काश्चिदश्नन्त्योऽपास्य भोजनम्‌॥6॥
कुछ अपने पति-पुत्रादि को भोजन परोस रही थीं, वे परोसना छोड़कर, कुछ छोटे बालकों को दूध पिला रही थीं, वे दूध पिलाना छोड़कर चल दीं। कुछ अपने पतियों की सेवा-शुश्रुषा कर रही थीं, वे सेवा-शुश्रुषा छोड़कर और कुछ स्वयं भोजन कर रही थीं, वे भोजन करना छोड़कर प्रियतम श्रीकृष्ण के पास चल पड़ीं॥6॥

लिम्पन्त्य प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्य: काश्च लोचने।
व्यत्यस्तवस्त्राभरण: काश्चित्‌ कृष्णान्तिकं ययु:॥7॥
कुछ दूसरी गोपियाँ अपने शरीर में अंगराग-केसर-चन्दनादि लगा रहीं थीं, वे उसे छोड़कर, कुछ उबटन लगा रही थीं, वे उबटना छोड़कर और कुछ आँखों में अन्जन लगा रही थीं, वे अन्जन लगाना छोड़कर चल दीं। कुछ गोपांगनाएँ वस्त्र-अलंकार पहन रही थीं, वे उलटे-पलटे वस्त्राभूषण धारणकर-जैसे ओढ़नी को कमर में बाँधकर, लहँगा ओढ़कर, गले का हार कमर में पहनकर और करधनी को गले में डालकर-प्रियतम श्रीकृष्ण से मिलने के लिये पागल की तरह उनके पास दौड़ पड़ीं॥7॥

ता वार्यमाणा: पतिभि पितृभि: पितृभिर्भ्रातृबन्धुभि:।
गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिता:॥8॥
श्रीगोपांगनाओं का आत्मा-मन श्रीगोविन्द के द्वारा हर लिया गया था; इसलिये वे ऐसी सर्वथा मोहित-बाह्य विवेक से शून्य हो गयीं कि अपने पति, पिता तथा भाई-बन्धुओं के द्वारा रोकी जाने पर भी मुड़ीं नहीं। वे अपने-आपको भूलकर श्रीकृष्ण -संग की प्राप्ति के लिये दौड़ पड़ीं॥8॥

अंतर्गृहगता: काश्चिद्‌ गोप्योऽलब्धविनिर्गमा:।
कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचना:॥9॥
श्रीगोपांगनाएँ दो प्रकार की थीं- नित्य सिद्धा और साधनसिद्धा। श्रीराधा तो भगवान की आह्लादिनी शक्ति ही थीं। ललिता, विशाखा, रूपमंजरी, अनंगमंजरी आदि सखी-सहचरी नित्यसिद्धा थीं। उन्हें तो कोई रोक ही नहीं सकता था। दण्डकारण्यवासी महर्षि आदि जो गोपीदेह को प्राप्त थे, वे साधनसिद्धा गोपियाँ थीं। उनमें से कुछ गोपांगनाओं की साधना अभी पूर्ण नहीं हुई थी, इसलिये उनकी श्रीकृष्ण के मिलन की रीति दूसरी थी। अतएव वे उस समय घर के भीतर गयी हुई थीं। पतियों ने घरों के दरवाजे बंद कर दिये; इसलिये उनको बाहर निकलने का मार्ग ही न मिला। तब वे आँखें मूँदकर उन प्रियतम श्रीकृष्ण की भावना से भावित होकर बड़ी तन्मयता से उनके सौन्दर्य-माधुर्य और उनकी मधुरतम लीलाओं का ध्यान करने लगीं॥9॥

दुस्सहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधु ताशुभा:।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमंगल:॥10॥
तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि संगता:।
जहुर्गुणमयं देहं सद्य: प्रक्षीणबंधना:॥11॥
परम प्रियतम श्रीकृष्ण के साक्षात मिलने में जब यों बाधा पड़ गयी, तब उसी क्षण उनके हृदयों में असह्य विरह की तीव्र ज्वाला धधक उठी - इतनी भयानक जलन हुई कि उनके अंदर अशुभ संस्कारों का जो कुछ लेशमात्र शेष था, वह सारा भस्म हो गया। फिर तुरन्त ही वे श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न हो गयीं। ध्यान में प्राप्त हुए श्रीकृष्ण के आलिंगन से उन्हें इतना सुख मिला कि उनके सब के सब पुण्य के संस्कार भी एक ही साथ समूल नष्ट हो गये। यद्यपि गोपियों ने उस समय उन श्रीकृष्ण को जार-भाव से ही केवल ध्यान में प्राप्त किया था, फिर भी वे थे तो साक्षात परमात्मा ही, चाहे किसी भी भाव से उनका आलिंगन प्राप्त हुआ हो; अतएव उन्होंने पाप और पुण्यरूपी बन्धन से रहित होकर उसी क्षण प्राकृत शरीर को छोड़ दिया और भगवान की लीला में प्रवेश करने योग्य दिव्य अप्राकृत देह को प्राप्त कर वे प्रियतम श्रीकृष्ण से जा मिलीं॥10-11॥
क्रमश:

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