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श्रीरासपंचाध्यायी

इनके अतिरिक्त व्रज में जो समस्त अल्प वयस्का गोप कुमारियाँ रहीं जिन्होंने श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने की उत्कण्ठा से कात्यायिनी व्रत किया था और जिनकी सगाई हो चुकी थी उस ब्रह्ममोहन लीला में, वे सब की सब श्रीगोपकुमारियाँ वहाँ आ गयीं। वे सब उत्कण्ठित पर भगवान ने धैर्य इसलिये रखा-कि उन सबके प्रेम का वेग और बढ़े। उस प्रेम के वेग में कहीं कोई कल्पना भी संसार की रही हो तो कल्पना भी नाश हो जाय। भगवान के अतिरिक्त इनके मन में, संसार की किसी वस्तु की कल्पना का लेश-गन्ध न रह जाय। इसलिये भगवान ने धैर्य धारण करके विलम्ब किया।

शरद्पूर्णिमा की रजनी जब आयी और वृन्दावन की शोभा देखी भगवान ने तो नित्यलीलामय श्रीभगवान का रूप गोपियों के साथ मिलने का उद्दीपन रूप में परिणित हो गया। शरद्पूर्णिमा की रजनी को देखकर व्रजेन्द्रनन्दन को उस कात्यायिनीव्रत अनुष्ठान के परायण व्रजकुमारियों की बात याद आ गयी। और वे आगामी पूर्णिमा को उनका मनोरथ पूर्ण करेंगे-यह अपनी प्रतिश्रुति भी याद आ गयी। यह वचन दिया था। उसके साथ-साथ वृन्दावन की सारी वनभूमि में दिव्य प्रसून कुसुमादि खिल गये। वृन्दावन को इन्होंने परिशोभित कर दिया और सारा वन ऐसी मनोहर मूर्ति में खिल उठा कि उसको देखकर सर्वमन मनोहर व्रजराजनन्दन का मन भी प्रेमवती गोपरमणियों से मिलने को व्याकुल हो उठा।

भगवानपि ता रात्रीः ---------- इस श्लोक का ‘शरदोत्फुल्ल मल्लिकाः ता रात्रीः वीक्ष्य’ इस अंश पर विचार करने से यह मालूम होता है कि गोपियों के साथ नित्य मिलन और अनाद्यन्त मिलनेच्छा का यह भाव नवोद्दीपन का संकेत मात्र है। जिस रात्रि के दर्शन से भगवान के अन्दर नित्य मिलन की नवीन उद्दीपना जाग्रत हुई उस अभिनव रात्रि के साथ जागतिक रात्रि जो चार प्रहर वाली होती है इसमें बड़ा भेद। इसलिये ‘ता रात्रीः’ इस बहुवचन से इस बात को स्पष्ट कर दिया है; क्योंकि भगवान ने रात्रि को देखकर गोपरमणियों के साथ मिलने की आकांक्षा की, रासक्रीडा की। उस रात्रि को भागवत में ‘ब्रह्मरात्रि’ कहा गया है।
ब्रह्मरात्र उपावृत्ते वासुदेवानुमोदिताः
अनिच्छन्त्यो ययुर्गोप्यः स्वगृहान् भगवत्प्रियाः॥

अब रासक्रीड़ा से लौटने के वक्त की बात है। भगवान द्वारा रासक्रीड़ा करते करते ब्रह्म रात्रि का अवसान हो गया तो भगवान के आदेश से श्रीप्रेमवती गोपांगनाएँ अनिच्छापूर्वक अपने अपने घरों को लौट गयीं। इससे मालूम होता है कि जिस रात्रि में भगवान ने रासक्रीड़ा की वह रात्रि मृत्युलोक की चार प्रहर वाली रात्रि नहीं। वह रात्रि सहस्र चतुर्युगवाली ब्रह्मरात्रि है। यहाँ रात्रियों के भेद बताते है। कहते हैं उस रात्रि को देखकर श्रीकृष्ण ने मिलन की इच्छा की और उस रात्रि में लीलाशक्ति के प्रभाव से अनन्त ब्रह्माण्डों की अनन्त रात्रियाँ संयुजित हो गयीं।

नहीं चुका सकता मैं बदला, कर सकता न कभी ऋण शोध।
बँध प्रेम बन्धन, मैं करता स्वतंन्त्रता का कभी न बोध॥
सहज स्वतन्त्ररूप मैं रहता स्वयं रचित सुखमय परतन्त्र।
नहीं छूटना कभी चाहता, नहीं चाहता बनूँ स्वतन्त्र॥
मधुर प्रेम-परवशता मेरी प्रभुतापर प्रभुत्व करती।
रस स्वरूप मुझमें यह पल-पल मधुर नित्य नव रस भरती॥
भूल सभी सत्ता भगवत्ता मैं रस-सागर बन जाता।
नयी नयी रस सरिताओं से भर मैं रससे सन जाता॥
यह मेरा रस-लुब्ध, नित्य रस मत्त, सदा रस-पूर्ण स्वरूप।
ब्रह्म सच्चिदान्नद पूर्ण से नित्य विलक्षण, परम अनूप॥
अतः सिद्ध-मुनि, परमहंस योगी-विज्ञानी आत्माराम।
इसे जानने के प्रयत्न में रहते लगे सदा अविराम॥
किंतु न पाते इस सागर की गहराई का थाह कभी।
हार मान, ऊपर आ जाते परम सिद्ध वे लोग सभी॥
निर्मल प्रेम-बन्ध से जो मेरा रसरूप बाँध पाते।
वही विलक्षण इस स्वरूप को रसिक सुजान देख पाते॥
वे फिर इसमें अवगाहन कर करते मधुमय रस का पान।
वे ही फिर मुझको देते मेरा अभिलषित मधुर रस-दान॥
(हनुमान प्रसाद पोद्दार)
क्रमश:

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