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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

उनके हृदय में आनन्द भर जाता और वह पूर्णिमा का चन्द्र जब अस्तगमन करते अस्ताचल की ओर जाता तो बेचारी फिर निराशा-सागर में डूब जातीं। साथ ही राधिकादि तथा अन्यान्य गोप-वधुएँ हैं इनका भी एक साल पूर्व शरद्कालीन वन-विहार के समय जब मोहन की मुरली बजी थी उस समय श्रीकृष्ण के साथ मिलना हुआ और तभी से पुनर्मिलन का सुयोग नहीं हुआ। इस प्रकार से वहाँ केवल पूर्वरागमात्र था।

यह अन्वेषण कर रहीं थीं पर अब तक यह मिलन नहीं हुआ पर आज इतने दिनों के बाद गोपियों की मनोकामना पूर्ण करने का सुयोग आ गया। उनके अश्रुपात और मिलनाकांक्षा की वेदना से संतप्त श्वास ने आत्मकाम, पूर्णकाम निर्विकार निरीह सच्चिदानन्दघनविग्रह भगवान के हृदय को विगलित कर दिया। परमानुरागिणी और मिलनाकांक्षिणी श्रीगोपरमणियों के भावों के अनुरूप भावों से भावित होकर आज भगवान ने उन गोपरमणियों के साथ मिलन-इच्छा की। इसके कारण हैं वो निर्जन अश्रुपात और मिलनाकांक्षा की वेदना सं संतप्त उष्ण श्वास। इसी ने पूर्णकाम भगवान में इच्छा उत्पन्न की।सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ और ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ तथा ‘साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च’ इत्यादि सैकड़ों श्रुति वाक्यों से जो भगवान का परिचय मिलता है वहाँ पर भगवान की इस प्रकार की किसी रमण इच्छा की सिद्धि नहीं हो सकती परन्तु रासारम्भ में भगवान की रमणेच्छा, शरत्पूर्णिमा की रजनी की शोभा देखकर के उनका भावोद्दीपन और वंशीनाद के द्वारा गोपरमणियों का अपने निकट आनयन, इससे मालूम होता है कि गोप रमणियों के प्रेम में भी कोई विशेषता है जो ‘सत्यं ज्ञानमनतं ब्रह्म’ और ‘साक्षी चेता केवलो निगुर्णश्च’ इस प्रकार के ब्रह्म के हृदय का निर्माण करके इसमें इच्छा पैदा कर दी। यह गोपरमणियों की कोई विशेषता है।गोपरमणियों के प्रेम का इतना महान आकर्षण कि आत्माराम शिरोमणि आत्मारामों को आत्मरमण प्रदान करने वाले, आत्मेच्छुओं को आत्मा का दान देने वाले, ब्रह्म दर्शनकारी लोगों को ब्रह्म में प्रतिष्ठित कराने वाले, ब्रह्म स्वरूपभूत और ब्रह्म के भी आधार भगवान में स्वाभाविक दिव्य भाव-विकार का उन्मेष हुआ। निरीह भगवान ने वीक्ष्य भगवान ने मिल की इच्छा और चेष्टा की। यहाँ पूर्णकाम भगवान सकाम हो गये। यह विशेषता है भक्तों के प्रेम की, त्यागमय दिव्य प्रेम की। इसमें नयीं बात नहीं। यह भगवान के गुण ऐसे हैं और इन गुणों की तरफ जिनका आकर्षण हो जाता है वे महामुनि भी भगवान से प्रेम करते हैं। इन महामुनियों के प्रेम को पराकाष्ठा पर पहुँचाने के लिये आत्मारामों को आत्मारामता देने वाले भगवान भी इस प्रकार से लीला करने लगते हैं।

आत्मस्वरूपानन्दास्वादन में निमग्न आत्माराम मुनिगण समस्त विधि-निषेधों से अतीत होकर भी अहैतु की भक्ति करने को बाध्य होते हैं, भगवान के चरण-भजन का। उनमें किसी प्रकार का प्रयोजन न होने पर भी वे भजन क्यों करते हैं? इस प्रश्न का उत्तर वहीं पर दिया कि ‘इत्थं भूतगुणो हरिः’ वे आत्माराम है उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है, उन्हें किसी बात की इच्छा नहीं है तब फिर उन्होंने क्यों भगवान की भक्ति की? क्यों भजन किया? इसलिये किया कि भगवान में ऐसे गुण है जो आत्माराम मुनियों को भी खींच लेते हैं। पर यहाँ पर तो आत्मारामों के भी मनोहारी-मन को हरण करने वाले हरि हैं। यहाँ कौन-सी ऐसी बात हो गयी कि जो उन्होंने ऐसी इच्छा की, भजन किया। भगवान तो नित्य तृप्त हैं आप्तकाम हैं निर्विकार हैं, निरीह हैं, सच्चिदानन्दघन विग्रह हैं उन्होंने गोपरमणियों के साथ रमण की इच्छा की इसके कारण का अनुसंधान करने पर भगवान का स्वरूप-श्रुति प्रतिपादित भगवान का रूप, भगवान का ऐश्वर्य सभी सिद्ध होता है कि ऐसा नहीं होना चाहिये इनमें यह कैसे हो गया? सीधी बात यह है कि जैसे ‘इत्थं भूतगुणो हरिः’ भगवान के गुण आत्माराम मुनियों को खींच लेते हैं इसी प्रकार ‘इत्थं भूत प्रियमानो हि व्रजदेव्याः’- यह व्रजदेवियों का प्रेम है कि जिस प्रेम ने भगवान को बाध्य कर दिया इच्छा करने के लिये।

व्रजरमणियों के प्रेम की ऐसी विशेषता, ऐसे गुण जिससे अनिर्वचनीय भगवान सर्वातीत भगवान, उनको आकृष्ट कर उनमें प्रवृत्त हो गये। भगवान का एक नाम है ‘आत्मारामगणाकर्षी - आत्माराम मुनियों के मन को भी खींच लेने वाले। श्रीकृष्ण का एक नाम है - आत्मारामगणाकर्षी - यह भगवान व्रजरमणियों के सर्वातिशायी प्रेम के किसी अनिर्वचनीय गुण से आकृष्ट होकर उनके साथ रमण में प्रवृत्त होते हैं और साफ आता है वहाँ पर कि उनकी आत्मारामता में कोई कसर नहीं। यहीं पर आवेगा कि ‘आत्मारामोऽप्यरीमत्’ भगवान आत्माराम होकर के भी प्रेमवती गोपियों के साथ रमण करते हैं। भगवान की आत्मारामता का-आत्मारामतादिगुणों का अनुसंधान करने पर जो लोग भगवान की इस रमणलीला का तत्त्व नहीं समझ सकते वे कहते हैं कि यह मिथ्या है, यह मायिक है, यह कल्पना है, यह अभिनय है, यह नाट्य है, यह आध्यात्मिकता है।वे लोग जो आगे बढ़ते हैं वे इस परम दिव्य रसमयी रासलीला को आध्यात्मिकता की गर्त में डाल देते हैं, आध्यात्मिकता के गड्ढें में फेंक देते हैं। वे भगवान की परम अनुग्रह दान का रहस्य ग्रहण नहीं कर पाते प्रेम के अचिन्त्य प्रभाव के सम्बन्ध में उनकी धारणा नहीं होती। जो लोग सर्वेश्वर, सर्वनियन्ता, सर्वलोकमहेश्वर, सर्वातीत, सर्वगुणरहित, निर्विशेष, निरीह श्रीभगवान के भक्तवत्सलता और प्रेमाधीनता गुणों का अनुसंधार कर सकते हैं उनकी इस प्रेमाधीनता गुण में जिन लोगों का विश्वास है और जो इस प्रेम के अचिन्त्य वैभव के सम्बन्ध में विश्वास रखते हैं वे ही लोग भगवान की इस परम मधुरलीला वली का तत्त्व समझ सकते हैं। यहाँ पर भगवान के समस्त लीला प्रसंग में क्या वितरण हुआ है? यहाँ अयाचित करूणा और दिव्य रस का वितरण हुआ है। जो ऐसे लोग विश्वासी हैं वही इस रस को ग्रहण करके कृतार्थ हो सकते हैं। भगवान की भक्ताधीनता यहाँ तो प्रत्यक्ष प्रकट है और भगवान ने जहाँ बहुत प्रेम का प्रसंग नहीं भक्तरक्षा का प्रसंग है वहाँ अपने मुँह से अपनी पराधीनता स्वीकार की है।

अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥
जब विष्णु चक्र के द्वारा संचालित होकर दुर्वासा ऋषि भागे तीनों लोकों में तब विष्णुलोक में गये। भगवान विष्णु के चरणों में प्रणत होकर बोले- त्राहि-त्राहि, बचाओ नाथ मुझे, मरा! आपके चक्र ने मुझे मारा। भगवान ने दूर से पुकारकर कहा द्विजराज ब्राह्मण सवेश्वर तो हूँ मैं यह ठीक पर भक्त पराधीन हूँ।
क्रमश:

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