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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

सबके सामने यह स्वीकार करते हैं कि यह हमारे पिता जी है। जिन ऋषि-मुनियों ने, जिन महात्मा-महापुरुषों ने, परमहंसों ने भगवान के तत्त्व को जानकर यह मान लिया कि यह पिता-पुत्र सम्बन्ध विहीन हैं। ये तो तत्त्व हैं। ये उन ऋषि-मुनियों के सामने भी यह कहते हैं कि हमारे पिता जी हैं और पिता जी को प्रणाम करते हैं। पिता जी की आज्ञा मानते हैं और केवल यही नही व्रजलीला में तो ये बच्चों की भाँति चंचलता करते हैं, बड़े चापल्य का प्रकाश करते हैं। भूखे होकर रोने लगते हैं। राम जी ऐसे रोये नहीं थे। राज दरबारी थे वहाँ मिला भी बहुत था। भगवान बालकों के साथ गोष्ठ क्रीडा करते हैं और नवनीत लुब्ध होकर नवनीत का अपहरण करते हैं और यशोदा मैया के पास इसी बात को लेकर डाँट-फटकारे जाते हैं। उसके सहन करते हैं। यह सब लीलाएँ भागवतादि में वर्णित है। यह भक्तों के आनन्द वर्धनार्थ भगवान का प्रपञ्चानुकरण है। यहाँ भगवत्ता कहीं गई नहीं है। उपनिषदादि में जो भगवान के लिये यह आया है कि-
अशब्दमस्पर्शमरुपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत्
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुव निचाप्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते॥
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥

यह उनके निर्विशेष रूप का संकेत है। पर निर्विशेषता, सविशेषता एक साथ रहती है इनमें। यह निर्विशेष रहते हुए भी सविशेष हैं और सविशेष रहते हुए भी निर्विशेष है। यह ‘अशब्द’ ‘अस्पर्श’ होते हुए भी यह सारा शब्द, स्पर्श इन्हीं के द्वारा होता है। इसलिये इनके सम्बन्ध में कोई अमुक धारणा नहीं करनी चाहिये कि ऐसे हैं वैसे नहीं और वैसे ही हैं, ऐसे नहीं। यह बात नहीं। भगवान यहाँ पर भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिये सब प्रकार के भक्तों के मनोनुकूल दिव्य मन-काम का निर्माण करके लीला करना स्वीकार करते हैं। यह उनका स्वभाव है। यह उनके भक्ताधीनता का विरद है, शंका की कोई बात नहीं।भगवान असीम होकर भी सीमाबद्ध जगत में आते हैं निष्क्रिय होकर भी विविध लीला करते हैं। निर्विकार होकर भी भक्त की रक्षा के लिये व्यग्र हो जाते हैं और अरूप होकर भी जगन्मोहन श्यामसुन्दर आदि रुपों से आविर्भूत होकर सबके मनों को हर लेते हैं और वे अपने नित्य सिद्ध अचिन्त्य महाशक्ति के प्रभाव से ऐसी लीला करते हैं कि जिसको सुनकर, गाकर, देखकर बड़े-बड़े महात्मा, महापुरुष-जिनके मन ही नहीं रहा ऐसे लोग लीला-माधुर्य-सिन्धु में डूब जाने को बाध्य होते हैं। यह लीला-माधुर्य है। श्रीभगवान की महिमा पर विचार करने से यह पता लगता है कि उनको मन के द्वारा इच्छा नहीं करनी पड़ती और वे किसी व्यक्ति विशेष या वस्तु-विशेष के लिये इच्छा करें इसकी भी उन्हें आवश्यकता नहीं होती परन्तु रासलीला में प्रवृत्त भगवान मन के द्वारा प्रेमवती श्रीगोपांगनाओं के साथ रमण करने की इच्छा करते हैं।

परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी ने भक्तवांक्षा कल्पतरु भगवान की भक्त पराधीनता का यहाँ संकेत किया है। यह बात ध्यान में रखनी चाहिये। उनकी कोई इच्छा हो सो बात नहीं। श्रीभगवान ने प्रेमवती श्रीगोपांगनाओं के साथ रमण की इच्छा की। किन्तु उनकी इच्छा शक्ति से यह स्वाभाविक काम नहीं हुआ है। यह इच्छा उन्होंने मन के द्वारा की। बिना मन के यूँ ही ईश्वर से जो अपने आप काम हो जाते हैं वो नहीं और यदि कोई कहे कि भई! भगवान तो अमना हैं, अप्राणा हैं-श्रुतियाँ कहती हैं तो यह बात ठीक है परन्तु जो भगवान अपनी शक्ति से अज होकर भी जन्म ग्रहण कर सकते हैं वे भगवान अपने उसी शक्ति से अमना होकर मन के द्वारा इच्छा करें। इसमें उनको कौन रोकता है?

जो भगवान अज होकर जन्म ले सकते हैं; अजन्मा का जन्म होता है तो अमना का मन भी हो सकता है। यह अमना के मन के द्वारा रमण की इच्छा है। इसलिये यह जानना चाहिये कि यह हमारा वाला गन्दा मन वहाँ नहीं था। वहाँ अमना का मन था। भगवान की रमण इच्छा-यह केवल प्रेमवती गोपियों की मन की पूर्ण करने के लिये नहीं थीं। इसमें उनकी अपनी भी आकांक्षा थी। यदि प्रेमवती गोपरमणियों के साथ भगवान की रमण करने की कोई इच्छा न होती, प्रयोजन न होता; यदि रमणेच्छा केवल अभिनय मात्र ही होती तो परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ न कहकर-‘रन्तुं मनश्चकार’ कहते। यह व्याकरण का नियम है कि कर्ता यदि क्रिया का फल भागी है तो वहाँ आत्म ने पद का प्रयोग होता है और कर्ता यदि फलभागी नहीं है तो आत्म ने पद के परिवर्तन में परस्मै पद का प्रयोग होता है जैसे कोई पुरोहित जी महराज यजमान के लिये पूजादि करते हैं और पुरोहित उसके फल भागी नही तो वह संकल्प की क्रिया में परस्मै पद का प्रयोग करते हैं। यदि यजमान स्वयं पूजा करते हों तो संकल्प वाक्य में आत्म ने पद का प्रयोग करेंगे।

भगवान की रास क्रीडारूप इस महायज्ञ में भगवान केवल पुरोहित की भाँति फलाकांक्षा शून्य होकर कर्म करने वाले नहीं हैं। क्योंकि उस महायज्ञ में यजमान की भाँति फलभागी होने का संकल्प करते हैं। इसीलिये परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी ने ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ कहकर रासयज्ञ की इस संकल्प वाक्य में आत्म ने पद का प्रयोग करवाया है। परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी महाराज ने ‘भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ न कहकर ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ क्यों कहा? अपि क्यों लगाया? इसलिये कि इसमें भगवान की रमणेच्छा व्यक्त हुई परन्तु अपि शब्द से जाना जाता है कि भगवान ने रमण की इच्छा की और भगवान के साथ-साथ गोपियों ने भी। गोपियों ने की होती तो अपि की जरूरत नहीं थी और भगवान में इच्छा नहीं होती तो भी अपि की जरूरत नहीं थी।इससे मालूम होता है कि गोपरमणियों के साथ भगवान की रमण करने की इच्छा थी और गोपरमणियों की भगवान को प्राप्त करने की इच्छा थी। इन गोपरमणियों में गोपकुमारियाँ भी थीं जिन्होंने एक वर्ष पूर्व कात्यायिनी व्रत के समय से भगवान से मिलन की इच्छा की। कात्यायिनी व्रत के शेष दिन जब पूजा का समापन हो गया तब भगवान ने उनके प्रति-प्रतिश्रुति की कि आगामी पूर्णिमा को तुम लोगों की मनोकामना पूर्ण होगी। तो एक वर्ष में जितनी पूर्णिमा आती तब तक वे गोपकुमारियाँ समझतीं कि आज मिलन होगा, आज मनोवासना पूर्ण होगी।क्रमश:

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