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श्रीरासपंचाध्यायी

कहते हैं कि उन्होंने ‘रन्तु मनश्चक्रे’ न कहकर ‘रिरन्सामास किंवा रन्तुं एष’ अथवा रन्तुं एष’ ऐसा कह देते तो थोड़े में ही वक्तव्य प्रकट हो जाता और यह वाक्य है ऐसा ‘नितुन्तु सारंन्तु वचो हि वाग्मिता।’ वाग्मिता तो उसी का नाम है कि थोड़े से में सार बात कह दे। बहुत विस्तार से कहना तो बकवाद कहलाता है। वाग्मिता वास्तविक वह है जो मित और सार-थोड़े से में सार बात कह दे। जो मितभाषी होते हैं वे असार बहुत कम बोलते हैं। जो बहुत बोलने वाले हैं उनको चूँकि बहुत बोलना है इसलिये वो चाहें जैसे बका करते हैं पर जो मितभाषी होते हैं थोड़ा कम बोलने वाले और उनको जरा अपनी बात समझानी है तो थोड़े से में सार-सार बात कह देते हैं।ज्यादा नमक मिर्च नहीं लगाते। शुकदेव जी के समान वाग में कौन होगा? भगवान व्यास के समान वाग में कौन होगा जो वाग्मणि-शिरोमणि हैं। अतः अपना वक्तव्य प्रकाशित करने के लिये इतना लम्बा वाक्य क्यों कहा उन्होंने और फिर दूसरी बात यह है कि केवल कवि ही नहीं परमहंस शिरोमणि जो शुकदेवजी हैं ये तो व्यर्थ बात कहना जानते ही नहीं। यह तो मुनि हैं। जो सार चीज है वही कहना जानते हैं इससे अधिक ये कहते नहीं। स्वभाव नहीं इनका व्यर्थ बोलने का। उन्होंने यहाँ ‘रिरंसामास किंवा रन्तुं एष’ न कहकर ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ कहा इससे मालूम पड़ता है कि कोई विशेष तात्पर्य है। तो क्या तात्पर्य है? यह साहित्यकारों का जरा समझने का विषय है।

शुकदेव जी जो ‘भगवानपि रिरंसामास किंवा रन्तुं एष’ कहते तो क्या सिद्ध होता कि अखण्ड इच्छाशक्तिमान भगवान ने रमण की इच्छा की। किंतु वह इच्छा हम लोगों की इच्छा की भाँति नहीं होती। क्योंकि यहाँ भगवान हमारी मनोवृत्ति के अनुसार काम कर रहे हैं। हमारी मनोवृत्ति में और भगवान की मनोवृत्ति में बड़ा अन्तर है। हमारे देखने, सुनने, सूँघने में और भगवान के देखने, सुनने, सूँघने में बड़ा अन्तर है। हमारा देखना, सुनना, इच्छा करना, गमन करना यह भगवान के देखने, सुनने, इच्छा करने, गमन करने के समान नहीं है। बड़ी पृथकता है। हम आँख द्वारा किसी वस्तु विशेष को देखते हैं, कान द्वारा किसी शब्द विशेष को सुनते हैं, मन के द्वारा किसी अभीष्ट विषय की इच्छा करते हैं और पैरों के द्वारा किसी स्थान विशेष पर जाते हैं किन्तु भगवान सर्वद्रष्टा हैं। वे सब कुछ देखते हैं। वे आँख के द्वारा किसी निर्दिष्ट वस्तु विशेष को नहीं देखते। वे सब सुनते हैं, वे कान के द्वारा किसी निर्दिष्ट शब्द को ही नहीं सुनते। वे इच्छामय हैं उनकी इच्छा किसी एक निर्दिष्ट-अभीष्ट विषय के लिये नहीं होती। उनको मन से इच्छा ही नहीं करनी पड़ती यहाँ तो मन से इच्छा करनी पड़ती है। वे सर्वगत हैं इसलिये पैरों के द्वारा किसी स्थान विशेष में गमन नहीं करते हैं। श्रीभगवान के इस प्रकार के चक्षु-कर्णादि इन्द्रियाधीनताविहीन और किसी निर्दिष्ट विषय के साथ सम्बन्धविहीन दर्शन श्रवणादि होने के कारण से वो इच्छा दूसरी। यहाँ उपनिषद् वचन द्वारा यह आता है कि-
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः

परब्रह्म परमात्मा जिसके हाथ-पैर नहीं वह चलता भी है और ग्रहण भी करता है। इसकी आँखें नहीं पर वह सब कुछ देखता है। उसके कान नहीं, पर वह सब सुनता है। इससे स्पष्ट है कि सर्वशक्तिमान श्री भगवान सर्वदा ही समस्त विषयों का दर्शन श्रवण आदि करते हैं, करते ही हैं। पर हमारे आँखों की भाँति किसी इन्द्रिय के द्वारा किसी निर्दिष्ट विषय का श्रवण दर्शनादि नहीं करते हैं।परमहंस शिरोमणि श्री शुकदेवजी महाराज सर्वशक्तिमान श्री भगवान की रासलीला कथा के वर्णन प्रसंग में यदि ‘भगवान रिरंसामास किंवा रन्तुं एष’ कह देते तो मन-सम्बन्ध शून्य और किसी विषय विशेष से सम्बन्ध शून्य सर्वतोमुखी इच्छा की बात वहाँ होती। सर्वतोमुखी की चीज यहाँ है नहीं, किन्तु वह गोपियों के साथ जो रासक्रीडा करने की इच्छा की यह बात धारण में नहीं आती। तो ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ स्पष्ट भाषा में कहने से यह बात मालूम हुआ कि उनकी इच्छा, इच्छा शक्ति के प्रभाव से सर्वदा सर्वविषयिनी इच्छा नहीं है। यह इच्छा भक्ताधीनता से परिभावित अन्तःकरण की भक्त मनोहर पूर्तिकारिणी वृत्ति का पूर्ण विकास है।

भगवान मन के वश में नहीं हैं परन्तु भगवान तो भक्तवांक्षा कल्पतरु हैं। तो भक्त का मनोरथ पूर्ण करने वाली भागवती वृत्ति है; मन की वह वृत्ति नहीं। यहाँ कहनी है मन की बात कहनी है साथ में भगवान के मन की बात भी। वे इस सम्बन्ध के अनुसार किया करते हैं प्रपंन्च की भाँति। वे क्रिया करते हुए भी निष्प्रपन्च ही है। इसलिये इस बात को खोल देते हैं कि यह क्या है? यह अन्तःकरण की वह चीज है जो भक्ताधीनता से परिभावित भक्त-मनोरथ को पूर्ण करने वाली भागवती वृत्ति है उसका पूर्ण विकास यहाँ पर है। यह नहीं कि किसी इच्छा के वश में होकर भगवान किसी वस्तु को पाने की इच्छा करते हैं।भगवान अपनी इच्छा-शक्ति के प्रभाव से सर्वदा सर्वविषयक इच्छामय होते हुए भी भक्ताधीनता के गुणवश मन के द्वारा यहाँ अभीष्ट पूर्ण करने की इच्छा करने में प्रवृत्त हुये। ‘रन्तुं मनश्चक्रे।’ यहाँ साधारण भाव से दर्शन, श्रवण, गमन इच्छा इत्यादि जन्य चक्षु, कर्ण, पद, मन आदि कि साथ इनका संग और किसी निर्दिष्ट विषय के संग के साथ भगवान का संग कदापि न होने पर भी भक्ताधीनता का गुण प्रकाश करके भक्त के मनोरथ को पूर्ण करने के लिये भगवान ने यह लीला की।इसीलिये उन्होंने आँखों के द्वारा देखा, उन्होंने कानों के द्वारा सुना, उन्होंने पैरों के द्वारा गमन किया, उन्होंने मन के द्वारा इच्छा की-यह भागवती इच्छा। व्रज राजनन्दन की स्तुति करते समय विवशतुष्टा ब्रह्मा जी ने भगवान के लिये कहा था-
प्रपञ्च निष्प्रपन्चोऽपि विडम्बयसि भूतले
प्रपन्नजनतानन्दसन्दोहं प्रथितुं प्रभो॥
हे भगवन! आप प्रपन्च से अतीत होकर भी प्रपन्च मेुं अवतीर्ण होकर प्रपञ्च का अनुकरण करके नाना प्रकार की लीला करते हैं और उससे अपने चरणों के नित्य शरणागत और आपकी विविध प्रकार की सेवा करने के लिये समुत्कण्ठित भक्तों का आनन्दवर्धन होता है। गीता में आया है-

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
जन्मरहित होकर भी जन्म लेते हैं। सर्वनियन्ता सर्वकारण कारण होकर भी नन्दगोप वसुदेव, दशरथ इत्यादि को पिता बोलकर स्वीकार करते हैं।
(हनुमान प्रसाद पोद्दार ) क्रमश:

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