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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

ऐसा प्रसंग आता है कि जिसमें पतिव्रता सती शिरोमणि के रूप में अरून्धती, अनुसूया, सती इत्यादि ने मिलकर राधा की पूजा की है। इसलिये जितना राधा में निजसुख विस्मरण और परित्याग है जो केवल पतिसुख चाहने वाली देवियों में होना चाहिये वह अन्य कहीं नहीं है। निजसुख की कभी-न-कभी कुछ-न-कुछ वांछा किसी-न-किसी रूप में रहती है। इसीलिये यह नाम तो परकीया है पर परकीया भाव होने पर भी यह भाव-परकीया है। परकीया से निजसुख की इच्छा रहती है। उसका इसके साथ अत्यन्त विरोध है। यह पतिव्रताओं के द्वारा पूजित हैं। हमारे पूज्य करपात्री जी महाराज कहा करते थे कि यह अनुसूया, अरून्धती, पार्वती इत्यादि जो देवियाँ हैं ये राधा की उपासना किया करती हैं इसलिये कि त्याग की शिक्षा मिले।

परकीया भाव क्या है? इसमें रस का उल्लास होता है और व्रज के अतिरिक्त यह रस कहीं नहीं है। व्रज वधुयें इस भाव की सीमा हैं और राधा जो हैं ये सीमातिरेक-सीमा को भी पार किया जो महाभाव है वह इनमें हैं। श्रीगोपांगनाओं के भावों का आत्मप्रकाश निरूपण करते हैं-प्रीति, स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग भाव और महाभाव। जहाँ प्रीति हैं वहाँ से प्रारम्भ होता है गोपी भाव और गोपी भाव की पूर्ण-परिणति है महाभाव में और महाभावरूपा श्रीराधा जी मानी गई हैं। उनमें मोहन और मादन नामक दो भेद हैं जो राधाजी के अतिरिक्त और कहीं अन्यत्र सम्भव नहीं है। ऐसा मानते हैं। इसलिये इस रासलीला की जहाँ पर चर्चा हो वहाँ पर यह मानना चाहिये कि यह भाव जगत की दिव्य चीजें हैं। इनका सम्बन्ध हमारे तरह के शरीरों के साथ नहीं है तो-

प्रौढ़ निर्मल भाव प्रेम सर्वोत्तम
कृष्णेर माधुरी आस्वादनेर कारण॥
यह जो प्रेम है यह प्रौढ़ है, निर्मल है और सर्वोत्तम है। जिस प्रेम में कहीं भी किसी भी प्रकार की कामना का, स्वसुख की इच्छा का कलंक है वह प्रेम निर्मल नहीं होता है। वह प्रेम उत्तम ही नहीं चरमोत्तम कहाँ से होगा। वह तो निकृष्ट काम कलुष चित्त की विकार लीला है - प्रेमलीला नहीं। यहाँ प्रेम केवल श्रीकृष्ण के माधुर्य का आस्वादन, श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये है। इस भाव से श्रीगोपांगनाओं की यह मनोभिलाषा और उनकी मनोभिलाषा की पूर्ति के लिये श्रीकृष्ण का उनको वंशीध्वनि के द्वारा आवाहन करना हैं।इसलिये यहाँ जो चीज है वह अत्यन्त दिव्य होने पर भी इस भाव के अनुरूप इसका नाम है - जारभावमयप्रेम। यह श्रीगोपांगनाओं का श्रीकृष्ण के प्रति था और उनकी उस उत्कंठा ने ही उनके द्वारा सर्वत्याग करवा दिया। वे सर्वस्व त्याग करके, सर्वस्व का सर्वथा परित्याग करके श्रीकृष्ण के चरणों में जाकर उपस्थित इस प्रकार से हो गयीं कि जैसे कोई नित्य-नित्य सदा के लिये भगवत-चरणारविन्द का किंकर होकर उनके चरणों में स्थान पा जाता है। भगवान की यह लीला परम मधुर परम दिव्य है। श्रीगोपियाँ वहाँ गयीं। इसके बाद श्रीकृष्ण रासस्थली से जब अन्तर्धान हुये तो वहाँ पर ‘अनयाऽऽराधितो नूंन भगवान हरिरीश्वरः’ यह वर्णन है। इस श्लोक में श्री राधिका का ही सौभाग्य कीर्तन गोपियों के द्वारा किया गया है। राधिका के प्रेम में कोई विशेषत्व है जो और कहीं नहीं है। इसलिये उनके साथ लीला-विलास में ही श्रीकृष्ण पूर्ण आनन्दास्वादन करते हैं और वहीं मिलन हुआ। यही रासलीला में अभिप्रेत है।

यह माना गया है कि इस लीला में प्रधान नायिका दो हैं। सर्वगोपी प्रधान दो हैं एक श्रीराधिकाजी और एक श्री चन्द्रावली जी। इन दोनों के दो समूह हैं, अलग-अलग। इनमें श्रीराधिका जो हैं वे श्रीकृष्ण की नित्य वल्लभा हैं।
तयोरप्युभयोर्मध्ये राधिका सर्वथाधिका
महाभावस्वरूपेयं गुणैरतिवरीयसी॥
यह जीवगोस्वामी के वाक्य हैं कि राधिका जी और चन्द्रावली जी दोनों ही यूथेश्वरी हैं और दोनों ही सर्वप्रधाना है और दोनों में राधिका जी श्रेष्ठ मानी गई हैं क्योंकि ये महाभावस्वरूपा हैं और श्रीकृष्ण की जिससे प्रीति होती है, सुख होता है इस प्रकार के अनन्तगुणों से समन्विता हैं। इन राधिका के साथ मिलन रसास्वादन के लिये ही श्रीकृष्ण का यह अनन्य उत्कण्ठायुक्त प्रयास है। राधिका के साथ विविध विलास ही श्रीकृष्ण का पूर्णतम सम्भोग है। यह सम्भोग का अर्थ पहले आ गया है। सम्भोग का अर्थ है मिलन, सम्भोग का अर्थ है स्वरूपानन्द वितरण, सम्भोग का अर्थ है प्रेमास्पद की सुख सम्पत्ति का सम्पादन। यहीं पर पूर्णतम है। यहाँ इस योगमाया शब्द के द्वारा इसीलिये राधिका का अर्थ किया। श्रीकृष्ण का पूर्ण सम्भोग की बात यहाँ पर कहनी है और पूर्ण सम्भोग राधिका के बिना सम्भव नहीं। श्रीकृष्ण श्रीराधिका के मिलन का रसास्वादन करना चाहते हैं। इसीलिये अंसख्य गोपियों का यहाँ आवाहन है।

राधा सह क्रीड़ा रसवृद्धिर कारण
और सब गोपीगण रसोपकरण॥

अन्य अन्य गोपीवृन्द जो हैं वह तो रसोपकरण हैं और क्रीड़ारस-आस्वाद में कारण हैं। यह भेद है। यह गोपियों का बड़ा भारी त्याग है। इसीलिये कि श्रीगोपांगनाएँ भगवान के साथ इस प्रकार का प्रणय-सम्बन्ध रखते हुए भी श्रीराधाकृष्ण के मिलन का कार्य सम्पादन करती हैं और कुछ नहीं करतीं। यह रसोपकरण हैं। श्रीकृष्ण की जो अनन्त प्रेयसियाँ हैं उनमें राधिका सर्वश्रेष्ठा हैं। उन्हीं के साथ मिलन है श्रीकृष्ण रूप में, यह रसास्वादन ही यहाँ है। इसीलिये उन्हीं को योगमाया कहा गया है। श्रीकृष्ण को ‘योगमायामुपाश्रितः अर्थात ‘सर्वप्रियावलीं मुख्याम् श्रीराधिकां मनश्चिन्तितः सन्’

श्रीराधिका के साथ मिलन रस के रसास्वादन का संकल्प करके ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ - रासक्रीडा करने की इच्छा की। कहते है कि श्रीमद्भागवत में टीकाकारों ने विविध भाँति से व्युत्पत्ति करके योगमाया शब्द का राधा अर्थ प्रतिपादन किया है और राधा को ही रासलीला के मूल स्तम्भ रूप में माना है। हमने तो यहाँ उसमें दो प्रकार का उल्लेख करके रसास्वादन करने की चेष्टा की है।राधिका के सम्बन्ध में कुछ विशेष बात और कहनी है। यहाँ तो ‘भगवानपि ता रात्रीः’ यही प्रसंग है तो यहाँ तक योगमाया के सम्बन्ध में बात चीत हुई। कुछ विशेष समझने के लिये एक बात और है। अचिन्त्य अनन्त महाशक्ति निकेतन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की परम मधुर रासलीला का वर्णन करने में प्रवृत्त होकर, परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी ने ‘भगवानपि................रतुं मनश्चक्रे’ इस भाषा में रमणेच्छा का वर्णन किया। कवि जो होते हैं वो ऐसी बात कहते हैं जिसमें थोड़े से में कहा जाय और पूरी बात आ जाय। यह साहित्यिक विषय है परन्तु उससे मिला हुआ है।
क्रमश:

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