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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

यद्यपि प्रथम मिलन के समय तो इनमें मिलनोत्कण्ठा है। रूक्मिणीजी में, सत्यभामाजी में अतीव उत्कण्ठा है परन्तु पत्नी रूप में अंगीकृत होकर मिल जाने पर और सेवा प्राप्ति में कोई बाधा न रहने पर उत्कण्ठा नहीं रहती। नित्य की वस्तु प्राप्त हो गयी।इसलिये जो विवाह विधि के अनुसार भगवान की पटरानियाँ हो गयीं वो विवाह के बाद निरूद्वेग-निर्बाध और निश्चिन्त भाव से पति बुद्धि से भगवान की सेवाधिकारिणी होती हैं। उनकी जो सेवा है वह उत्कण्ठा रहित है। इन सब में चार चीजों का अभाव है। चार चीज वे क्या हैं? एक तो है मिलन की उत्कंठा का अभाव, दूसरी है नित्य-स्मृति का अभाव, मिल ही गयी तो स्मरण कैसा? तीसरी चीज है दोष-दर्शन की सम्भावना-पत्नी अपने पति को कह सकती है कि आज अपने भूल की या यह काम ठीक नहीं किया, ऐसा नहीं करना चाहिये और चौथी चीज है सकाम भावना-अपने लिये न सही, घर के लिये सही। तो ये चार बातें हैं-सकाम भावना, दोष-दर्शन की सम्भावना, नित्य-स्मृति का अभाव और मिलनोत्कंठा का अभाव। इसलिये इनका जो प्रेम सुखानुभव है वह अपूर्ण है। लक्ष्मी का भी अपूर्ण और राजरानियों का भी अपूर्ण है। क्यों-
न विना विप्रलम्भेन संभोगपुष्टिमश्नुते’
यह रसशास्त्र का सिद्धान्त है। उज्ज्वल नीलमणि का यह वाक्य है। इस सिद्धान्त से संभोग रस की पुष्टि विरह के बिना, विप्रलम्भ के बिना सम्भव नहीं। जहाँ निरन्तर मिलन है वहाँ विरह की सम्भावना नहीं। वहाँ मिलन की सुखानुभूति भी विरह के पश्चात होने वाले मिलन के समान नहीं। स्वाभाविक बात है। बेटा को ही ले लीजिये, बेटा रोज पास रहे तो माँ जानती है कि बेटा पास ही है रोज-रोज घर में ही रहता है। उसके लिये कौन-सी उत्सुकता होती है पर परदेश चला गया। वर्ष-दो वर्ष-चार वर्ष बीत गये तब माँ भाव-विह्वल हो गयी। अब कहीं बेटा आता है तो सब कुछ भूल करके माँ उसके लालन-पालन में लग जाती है। यह सुख रोज रहने वाले बेटे के साथ नहीं होता। इसी प्रकार सभी रसों में वात्सल्य में भी, सख्य में भी, मधुर में भी यही पद्धति है।

इसलिये सुखानुभूति विरह के बाद के मिलन में जो होती है वह नित्य मिलन में नहीं होती। जैसे एक तो भूख लगने पर अन्न खाया जाय और एक रसोई पकने पर बैठ जाय कि भूख लगे न लगे अपने थाली पर बैठ गये कि कुछ खा ही लो तब आनन्द नहीं आता। बढ़िया-से-बढ़िया चीज परोसी हुई हो और भूख नहीं लगे तो खाने में आनन्द नहीं आता। चीज बढ़िया है पर कहीं भूख जोर से लगी हो और वहाँ अगर बढ़िया चीज मिल जाय तो फिर कहना ही क्या? भूख लगने पर आनन्द तो घटिया चीज में भी आ जाता है और फिर सबसे बढ़िया मिले तो सोने में सुहागा सोना सुगन्ध दोनों है।विरह के बाद मिलन में जिस माधुर्य का आस्वादन होता है वह चिरमिलन में या अगाध मिलन में कभी नहीं होता। निर्बाध मिलन और नित्य मिलन इन दोनों में वह नहीं होता। लक्ष्मियाँ भगवान की प्रेयसी अवश्य हैं परन्तु उनको विरह के स्वरूप का पता ही नहीं। विरह के स्वरूप की अनुभूति उनको जीवन में कभी हुई ही नहीं। विरह के बाद प्राप्त होने वाला जो मिलन सुख है इसको वे जानती हैं नहीं। यह सत्य तथ्य है तथा सिद्धान्तयुक्त है और भगवान का है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुये ही रासपञ्चाध्यायी को समझना है नहीं तो समझ में ठीक नहीं आता है।

‘भगवानपि ता रात्रीः’ पहला शब्द ‘भगवान’ बड़ी बुद्धिमानी से शुकदेव जी ने रखा है। बस यह भगवान की लीला है। यह रमण भगवान का है। इसी में सारी बात आ जाती है। भगवान के रमण में भोगेच्छा होती नहीं और भगवान के रमण में आत्मारामता या आत्मरमण की इच्छा होती नहीं। वे स्वयं नित्य आत्माराम हैं, आत्मस्वरूप हैं और भोगेच्छा की वहाँ कहीं कल्पना नहीं। तो है क्या? भगवान का स्वयं रमण। स्वयं रमण क्या? यह बड़ा सुन्दर भाव है - स्वरूपानन्दवितरण। अपने स्वरूपभूत आनन्द का वितरण करना-यह उनका रसास्वादन है। यह उनका रमण है इसलिये इसकी रक्षा करते हुये ही चलते हैं।यहाँ योगमाया श्रीराधिका है; यह प्रतिपादन किया जा रहा है। सबसे पहली चीज यह ध्यान में रखने की है कि यह भगवान की लीला है और श्रीराधा, श्रीगोपांगनायें और भगवान इनमें कोई अन्तर नहीं है। एक भगवान ही तीन रूपों में हैं। नित्य एक राधाकृष्ण हैं, उनमें दो हुये राधा और कृष्ण और राधा से काय-व्यूहरूपा गोपियाँ उत्पन्न हुई। इसलिये एक ही रूप की यह लीला है। यह स्वकीया-परकीया इत्यादि जो भाव हैं, यह रस-निष्पत्ति के भाव हैं। इनको लौकिक स्वकीया-परकीया इत्यादि रूप में नहीं देखना चाहिये और जो ऐसा देखना चाहते हैं उनको यह कथा नहीं सुननी-सुनानी चाहिये। यहाँ पर टीकाकारों ने यह बात कह दी है कि जिनके मन में श्रीकृष्ण के प्रति और राधा तथा गोपियों के प्रति लौकिक बुद्धि को हो उनको यह प्रसंग नहीं सुनना-सुनाना चाहिये। नहीं तो अपराध होगा उनका। श्रीकृष्ण का तो कुछ बिगड़ेगा नहीं लेकिन जो उनमें लौकिक बुद्धि करके और अपनी उस बुद्धि के अनुसार लौकिक अर्थ लेंगे उनका अपराध होगा। अब विषय ऐसा आयेगा कि जिसमें यह सिद्ध किया जायेगा कि लौकिक भावानुरूप ही भगवान ने रमण की इच्छा की, भगवत भावानुरूप नहीं। इसीलिये सावधान किया गया है।

भगवान की कान्ताओं के तीन रूप हैं। लक्ष्मी, महीषी और व्रजांगनाएँ। भगवान नारायण की नित्य स्वरूपभूता जो लक्ष्मी आदि हैं - वे लक्ष्मी हैं, श्री हैं, भू हैं, लीला हैं - अनेक उनके नाम हैं। वे सारे लक्ष्मी के ही भेद हैं। वे हैं और महिषियाँ जिनका विवाह पद्धति के अनुसार भगवान राघवेन्द्र के साथ रामावतार में, द्वारिकाधीश भगवान श्रीकृष्ण के साथ इस कृष्णलीला में विवाह सम्पन्न हुआ है वे राजमहिषियाँ भी कान्ता हैं। ये राजमहिषियाँ और लक्ष्मी यह स्वकीया कान्ता भाव से भगवान के साथ सम्बन्ध रखती हैं और रसास्वादन करती हैं। ये पतिव्रता शिरोमणि हैं और श्रीराधा जी परकीया कान्ता भाव से सम्बन्ध रखती हैं और लीला रसास्वादन करती हैं। पर इनका त्याग इतना ऊँचा है कि ये पतिव्रता शिरोमणियों के द्वारा पूजित हैं।
क्रमश:

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