50

50
श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

वंशी ने क्या किया? यह योगमाया के रूप में केवल श्रीकृष्ण के साथ इनका योग करा दिया और गोपियों के साथ उनके पति, भ्राता, पुत्र, मित्र, स्वजन, आत्मीय, वेदधर्म, लोकधर्म, देहधर्म, कुल, शील, लज्जा, धैर्य इत्यादि सबके साथ अयोग करवा दिया। यह वंशी है अयोग माया और वंशी ही योगमाया है। कहते हैं कि लज्जा, शील जो है यह तो मोह का किला और गुरुजन का मान डर यह सिंहद्वार। इस किले का धर्म इसके किवाड़ और कुल का अभिमान इसका बड़ा भारी ताला। इस पर बिजली गिरी। बिजली क्या गिरी? वंशीरव मानो यहाँ बिजली आयी। यह किला ढह गया।
लज्जा शील मोहगृह भारी, सिंहद्वार गुरुजन का मान।
धर्म-कपाट लगे थे अति दृढ़ ताला था कुल का अभिमान।
वंशीरव के वज्रपात से टूटा लज्जा-दुर्ग महान।
भूमिसात हो गया सभी कुछ, हुई भूमि सब एक-समान॥

भूमि बननी चाहिये तो वंशीरव ने भूमि बनायी। दौड़ने योग्य भूमि बन गयी, अगर वंशीरव नहीं तो नाच कैसे हो। वंशीरव ने भूमिका बनायी। जिस भूमिका पर चलकर के श्रीगोपिकायें तमाम बाधा विघ्नों से बचकर निकल गयीं। नहीं तो इतनी बाधा होती है कि लोग कथा में नहीं आते हैं। कहते हैं लज्जा आती है, मान भंग होता है। बोले हमारा इतना शील है और हम फालतू आदमी की तरह जाकर बैठ जायँ। मानस का वर्णन किया मानसकार ने वहाँ विघ्न बताये कि यह अटपटा लगता है। यह गोपियों के लज्जा, शील का नहीं हम सबको लगता है। बोले-अपने इतने बड़े आदमी और वहाँ जाकर बैठे। अपने इस दर्जे के आदमी नहीं। हमारे दर्जे का जहाँ हो वहाँ जायँ। क्लब में चले जायेंगे, होटल में चले जायेंगे, नाच घर में चले जायेंगे, सिनेमा में चले जायँगे पर कथा में, सत्संग में, भजन में उनका कुल-शील-मान बाधक बन जायगा। यह कुल-शील-मान का बड़ा किला है। यह ममता का बड़ा दुर्ग है। जब वंशी बजती है भगवान की, जब वंशी का आह्वान होता है-उनके लिये तो होता है मधुर आह्वान और उनके कठिनाइयों के किलों को तोड़ने के लिये होता है वज्रपात।रास-रसिक श्रीभगवान के साथ योग और उनसे अतिरिक्त समस्त वस्तुओं में अयोग हो। इन दोनो का सम्पादन करने वाली, स्थावर-जंगम-विमोहिनी वंशी योगमाया का अवलम्बन करके भगवान ने प्रेमवती गोपियों के साथ रास-नृत्य करने की इच्छा की। ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ यह यहाँ का प्रतिपाद्य है।

योगमायामुपाश्रितः भगवान ने योगमाया का गुण प्रकाशित कितने प्रकार से किये इसके अनेक वर्णन मिलते हैं और सभी गुण ठीक है। अब इसका बड़ा सुन्दर अर्थ है। इस अर्थ के बिना रासलीला की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होती। उस अर्थ को जानना भगवान के कृपा-साध्य ही है। उनकी कृपा के बिना यह अर्थ ध्यान में नहीं आता और सब अर्थ तो आ जाते हैं। इस पर विचार करने से मालूम होता है कि रासचक्र का बीच की कील है जैसे कोई चक्का घुमाओ तो बीच की धुरी चाहिये। बीच की कील न हो तो चक्का घूमे कहाँ। तो रस चक्र की मध्य कील, और रासनृत्य की प्रधान नायिका, रासविहारी की हृदय विहारिणी, रासरसरसिक श्रीकृष्ण प्राणाधि का राधिका के बिना रास कहीं रचित होता ही नहीं। यद्यपि भागवत में स्पष्टतया राधा का नामोल्लेख नहीं है परन्तु जहाँ कृष्ण हैं और जहाँ रास है वहाँ एकमात्र राधा ही उसका प्रधान अवलम्बन हैं। उनके बिना यह क्रीड़ा सम्भव ही नहीं। अन्यान्य पुराणों में, तन्त्रों में इस विषय पर बड़ा विचार है।

कहते हैं कि-‘अनयाऽऽराधितो नूनं भगवान हरीश्वरः’ इस श्लोक की व्याख्या में हम भी कहेंगे कुछ। यहाँ योगमाया शब्द का उद्देश्य यही मालूम होता है कि राधिका को साथ लेकर भगवान ने ‘रन्तुं मनश्चक्रे।’
योगस्य संभोगस्य च मायः मानं पर्याप्त यत्र सा योगमाया श्रीराधा’
कहते हैं यह मधुररस के मिलन का रसास्वादन है। यह रस शास्त्र की बात है। मिलन का नाम है संभोग और अमिलन का नाम है विप्रलम्भ। तो मधुर रसके मिलन के रसास्वादन का नाम ही संभोग है। श्रीराधा के साथ श्रीकृष्ण का जिस प्रकार का मिलन रसास्वादन होता है वैसा रसास्वादन भगवान की किसी लीला में, किसी श्रीविग्रह में, किसी प्रेयसी के साथ कभी सम्भव ही नहीं होता। इसका कारण देखने पर मालूम होता है यह विषय ऐसा है कि जो समझने का तो है पर है थोड़ा सा कठिन।कहते हैं कि भगवान की प्रेयसियों में तीन श्रेणियाँ हैं - लक्ष्मी, महीषी और गोपी। इनमें लक्ष्मी जो है वह भगवान नारायण मूर्ति की प्रेयसी हैं, महिषियाँ भगवान राघवेन्द्र, द्वारिकानाथ श्रीकृष्ण, मथुरानाथ श्रीकृष्ण इन भगवान की लीला-विग्रह की प्रेयसी है। नारायण रूप की प्रेयसी लक्ष्मी आदि और महाराज-लीला-विग्रह-महाराज के रूप में भगवान के लीला की प्रेयसी यह महिषियाँ। ये भगवान रामचन्द्र रूप की, द्वारिकाधीश के रूप की प्रेयसी और गोपियाँ व्रज बिहारी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी हैं।भगवान का यह तीन प्रेयसी वर्ग है। इन महिषियों में तीनों ही भगवान को अपना निजकान्त मानती हैं और तीनों ही भगवान की मधुर भाव से विविध प्रकार से सेवा करती हैं। लक्ष्मी जी, राजा की पटरानियाँ आदि भी और गोपियाँ भी। यह सभी उनको अपना कान्त मानती हैं और मधुर भाव से सेवा करती हैं इनमें जो लक्ष्मी जी हैं वह तो अनादिकाल से ही भगवान की नित्य कान्ता हैं और वे मधुर भाव से ही नित्य सेवा परायण रहती हैं। इसलिये लक्ष्मी जी नारायण-वक्ष-विहारिणी हैं। भगवान के वक्षस्थल पर श्रीलक्ष्मी हमेशा रहती हैं। यह वक्ष-विलासिनी होने पर भी ईश्वरज्ञान से नारायण चरण सेवा में लगी रहती हैं। लक्ष्मी जी का कभी ईश्वर ज्ञान छिपता नहीं। ईश्वर ज्ञान से लक्ष्मीजी नित्य मधुर भाव से सेवा परायण हैं। इनका नारायण के साथ मिलन होने में न आदि है न अवसान है। अनादिकाल से अनन्तकाल तक ये भगवान श्रीनारायण के साथ रहती हैं। इनकी प्रेम सेवा में न तो मिलनोत्कण्ठा है और न विरहास्वादन है।यहाँ पर समझाने का तात्त्विक विषय है। जिसमें मिलनोत्कण्ठा नहीं, जिसमें विरहास्वादन नहीं वह अधूरा प्रेमराज्य है। इसलिये यहाँ की जो मिलनासक्ति है और मिलनसुखानुभूति है वह अपूर्ण है। लक्ष्मी जी की मिलनानुभूति मिलन सुखानुभूति-यह अपूर्ण है और महिषियाँ, पटरानियाँ विवाह विधि के अनुसार भगवान श्रीरामचन्द्रादि के लीला-विग्रह के साथ या भगवान श्रीद्वारिकाधीश के लीला विग्रह के साथ आजीवन पतिबुद्धि से उनकी सेवा करती हैं।
क्रमश:

Comments

Popular posts from this blog

12

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1