49

49-
श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

इसमें कान खींचने, आँख मींचने की आवश्यकता नहीं है। यह तो दौड़े खुले आम उनके पीछे-पीछे, अब ढूँढ़ो। यह जाकर निकुंज में घुसे और घुसकर एक पेड़ की आड़ में हो गये तो ये गोपियाँ वहाँ पहुँच गयीं। तब इन्होंने देखा कि अब तो पकड़े जायेंगे तो नारायण बन गये। शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी बड़े सुन्दर, विशाल नेत्र और बड़े सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने हुये। मुकुटधारी तमाम दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित भगवान खड़े वहाँ पर। गोपियाँ आश्चर्य में पड़ गयीं। सम्भ्रम हो गया, भय हो गया और इनके सामने खड़े होकर हाथ जोड़ लिया। मुस्कुराये और बोले क्यों? तब हिम्मत करके बोली, हे नाथ हमारे श्यामसुन्दर कहीं चले गये हैं।आप कृपा करके बता दीजिये कि कहाँ हैं? तो उस रूप को देख करके सहम गयीं। सम्भ्रमवती हो गयी। मानवती हो गयीं। इसका मान करना है, इसके सामने हाथ जोड़ना है। नहीं तो कहीं कृष्ण मिल गये होते उस दिन वहाँ पर तो फटकारतीं। चुपचाप रहीं तो उन्होंने इशारा आगे कर दिया। उन्होंने सोचा नहीं कि क्यों इशारा किया। वह तो वो जाने। गोपियाँ बेचारी चल दीं वहाँ से आगे।

यहाँ पर व्रज में शंख, चक्र, गदा, पद्म का, सारंग धनुष का काम नहीं। यहाँ तो वंशी ने बहुत कुछ किया साथ में। सिंगा ही ले लिया बजाने के लिये। बस! सिंगा और वंशी इन दोनों को लेकर ही ये घूमे। यहाँ तक कि असुरों को जब मारा यहाँ पर, तो असुरों के मारण में भी इन्होंने किसी आयुध का प्रयोग नही किया व्रज में। हथियार लिये हों तो बताइये। बड़े-बड़े असुरों को मारा, तृणावर्त, अघासुर, बकासुर, पूतना पर कहीं हथियार हाथ में लिया? इनका तो वही हथियार-खेल ही हथियार, बच्चों की भाँति खेलते-खेलते ऐश्वर्य शक्ति ने प्रकट होकर उनका वध कर दिया। न तो कोई आयुध और न कहीं सैन्य-सामन्त-कोई सेना-सेनापति इनके साथ रही। बन्दरों की भी फौज यहाँ रहती कहीं साथ तो माखन खाने में रहती हैं, लड़ने में नहीं रहती। वहाँ मधुर-मधुर, मीठा-मीठा माखन मिलता तो सब बन्दरों की फौज साथ हो जाती। यह नहीं कि बन्दरों को कहीं बाण लगे और उनको किसी को काटने के लिये दौड़ना पड़े, लंकाकाण्ड वाली बात। यह बन्दर भी यहाँ सेवा में साथ नहीं। न तो कोई सेना का संग्रह, न कोई आयुध का संग्रह, न कोई उग्र मूर्ति और न कोई दो-चार हाथ और न ही कोई लम्बा युद्धकाल। राक्षस आया तो खेलते-खेलते समाप्त कर दिया घड़ी भर में ही। यह नहीं कि वर्षो तक युद्ध चलता रहा रावण के साथ। इसलिये नारदजी ने कहा-

ये दैत्या दुश्चकाहम् त्वम् चक्रेनापि रथांगना
ते त्वया निहत्थ कृष्ण नव्ययाबाललीलयां॥
सा क्रीडन भूभंगं कुरुषे यदि
संशंका बहुर्द्वावाङ्या कम्पन्ते षष्टिता तदा॥

यह ब्रह्माण्डपुराण का वचन है तो नारद जी ने कहा कि चक्रधारी नारायण चक्र धारण करके भी जिन असुरों का विनाश सहज में नहीं कर सकते। आप नयी-नयी बाल लीला से कर दिये। वह भी बाललीला का एक अंग हुआ, वह भी खेल की एक पद्धति ही हुई असुर मारन। उसमें कोई असुर मारन का प्रयास नहीं किया। वह भी एक खेल का ढंग। श्रीकृष्ण ने नयी-नयी बाललीला करते हुए उन सबका विनाश कर दिया। आपकी कृष्णलीला का जो अपरिसीम माहात्म्य है यह कहा नहीं जा सकता। आज सुदामा, श्रीदाम, सुबल आदि गोप बालकों के साथ गोष्ठ में खेलते-खेलते जहाँ बाल लीला वश-खेल में देखा टेढ़ी भौंह कर दी गुस्से में तो महाराज जो आकाश में ब्रह्मादि देवता हैं वे भी डरने लगें। यह कन्हैया ने खेलते-खेलते भौंह टेढ़ी कैसे कर दी। यह स्थिति।

यह भगवान वंशीधारी श्रीकृष्ण इनकी लीला बड़ी अद्भुत और बड़ी मनोरम। कितनी और दूसरी मूर्तियाँ हैं। बढ़िया-से-बढ़िया मूर्ति हो, सुन्दर-से-सुन्दर हो पर ये जब हाथ में मुरली ले करके और शरीर में तीन टेढ़ बनाकर, बड़ी बंकिमा के साथ जब कदम्ब के नीचे खड़े हो जाते हैं तो फिर इस मूर्ति को देखकर के सारा सौन्दर्य का सागर भी सूखने लगता है इनके सामने। तमाम-तमाम लोग मोहित हो जाते हैं ये किन्नर, गन्धर्व इत्यादि की तो बात ही क्या है कामदेव भी मूच्छित हो जाते हैं कि हम तो मरे और मर ही जो हैं यहाँ रहते नहीं। सारा काम सौन्दर्य प्रतिहत होकर अपना जीवन लेकर भागता है कि यहाँ रहेंगे तो मर जायेंगे। इस सौन्दर्य के सामने जल जायेंगे, रहेंगे नहीं। इस प्रकार की सुन्दरता इस मुरली मनोहर रूप में है। तो कहते हैं कि श्रीकृष्ण की मूर्ति में और लीला में जो सौन्दर्य-माधुर्य का प्रकाश है वह व्रज में ही है। बोले-

चतुर्धा माधुर्य तस्य ब्रजैव विराजते
ऐश्वर्य क्रीड वेणुस्तथा श्रीविग्रहश्च॥
भगवान के माधुर्य-सम्पुटित ऐश्वर्य, गोप-गोपीगणों के प्रेम से मुग्ध होकर प्रेममयी लीला, समस्त प्राणियों के मन को हरण करने वाला वेणुनाद और अपने आपको भी आकर्षित करने वाला श्रीविग्रह सौन्दर्य माधुर्य रूप यह केवल व्रजधाम में ही है और कहीं नहीं। यह मूर्ति कहीं नहीं। यहाँ पर ‘भगवान्पि ता रात्रीः’ जिन भगवान ने लीला की वह भगवान कौन?वंशीधारी भगवान, मुरलीधारी भगवान, यह यहाँ पर भगवान का स्वरूप है क्योंकि यह मुरलीधारी भगवान के बिना दूसरे किसी आयुधधारी भगवान के लिये यह परमरमणीय रमणलीला कभी सम्भव हीं नहीं है। यह मुरली मनोहर जो भगवान हैं इनको छोड़कर किसी दूसरे आयुधधारी-वो भगवान ही हैं पर उनके लिये यह रमण लीला सम्भव नहीं, और लीला भले वे कर लें। इस लीला में प्रेममत्त गोपियों के रास-नृत्य हैं। प्रेम-आलस्य-शिथिल बाहु-लता द्वारा श्रीकृष्ण का कण्ठालिंगन होता है। कृष्णमय पीतवसन द्वारा उकने श्रमजलसक्त वदनों का मार्जन करते हैं। उनके कपोल के साथ कपोल-संस्थापन करके चर्बित ताम्बुल अर्पण करते हैं। वन-विहार, नृत्य-गीतादि, यमुना-विहार करते हैं। यह मुरलीधारी के सिवा और कहीं नहीं हो सकता।
‘गोपवेष वेणुकर किशोर नटवर’ बस, यही वेष रासलीला का है। श्रीकृष्ण के वंशीरव को सुनकर कृष्णगतप्राणा व्रजरमणियों का कृष्ण के साथ मिलन हुआ। यहाँ पर योगमाया वंशी ही रासक्रीडा में प्रधान सहायिका और अपार धैर्य लज्जादिशालिनी अन्तःपुरचारिणी गोप कुल कामिनी अपने-अपने लज्जा, धैर्य आदि सारे बन्धनों को छिन्न करके इस वंशी की प्रेरणा से ही, वंशी के द्वारा आकर्षित हो करके ही उन्होंने इस योग को प्राप्त किया।
क्रमश:

Comments

Popular posts from this blog

12

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1