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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
यह साधन है, वंशी ध्वनि को सुनना, भगवान के आवाहन मंत्र को सुनने के लिये कान लगाये रहना चाहिये। जब वाते बुला लें सब छोड़ के चले जायँ।वंशी ध्वनि क्या करती है? श्रीदाम, सुदाम, सुबल आदि गोपबालकों को माता की गोद त्याग देने के लिये बाध्य कर देती है। मातृ क्रीड़ (गोद) का परित्याग करके कृष्ण के निकट दौड़े चले आते हैं और फिर क्या करती है वंशी ध्वनि? जब संध्या का समय हुआ, गायों को बटोरना है तो कहाँ ढूँढ़ते फिरेंगे, चढ़ जाते हैं कदम्ब पर और जाकर वंशी-ध्वनि करते हैं। ध्वनि होती है तो सारी गाये दूर-दूर से दौड़ी आकर वहाँ इकट्ठी हो जाती हैं। सब-की-सब उर्ध्वपुच्छ-पूँछों को उठा-उठाकर और हम्बाख करती हुई सारी गायें इकट्ठी हो जाती हैं और यमुना-समुद्रगामिनी यमुना विपरीत गति से लौटकर कृष्ण के चरण प्रान्तों में लुट पड़ती हैं। यह प्रसंग आया है कि वंशीध्वनि से-यमुना की गति बदल जाती। यमुना स्वाभाविक बहती है समुद्र की ओर पर इनकी जब वंशी ध्वनि होती है तो यमुना की गति पलट जाती है। यमुना चाहती है कि जल्दी से जल्दी आकर उमड़कर श्यामसुन्दर के चरणों को धो दें। यह वंशी-ध्वनि का जादू और वंशी-ध्वनि को सुनकर यह व्रजवधुयें घर के कामों को, कुलधर्म इत्यादि को, जलांजलि देकर कृष्ण के पास आ जाती हैं। जलांजलि होता है मरने के बाद जो तर्पण में जलांजलि देते हैं। तो सारे कुल धर्म, गृहकर्म और अपनी ममता की तमाम चीजों को जलांजलि देकर कृष्ण के निकट आ जाती है। इससे सिद्ध होता है कि यह जो वंशी है यह कृष्ण के साथ मिलन कराने वाली एक माया-योगमाया यही है; और खास करके गोपियों के साथ कृष्ण का मिलन कराने वाली सर्वश्रेष्ठ दूती यह वंशी ध्वनि ही है। इसलिये जब जब श्रीकृष्ण की इच्छा होती है कि गोपियों से मिलें तो किसी के पास आदमी नहीं भेजते, चिट्ठी भेजने की आवश्यकता नहीं, बस मुरली फूँक देते हैं। जहाँ मुरली बजी कि सब अपने-आप दौड़ी आयीं। आकर्षण जाग गया। कहते हैं कि यह जो वंशी है यह प्रिय सखी है।
श्रियः कान्ताः कान्तः परम-पुरुषः कल्पतरु
द्रुमाभूमिश्चिन्तामणिगणमयी तोयममृतम्।
कथा गानं नाट्यं गमनपि वंशी प्रियसखी
चिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदा स्वाद्यमपि च॥
यह ब्रह्म संहिता का मंत्र है। गोलोक धाम का वर्णन करते हैं कि वहाँ क्या चमत्कार है। कहते हैं कि जो कृष्ण की कान्तायें हैं यह तो साक्षात लक्ष्मी हैं और कान्त स्वयं भगवान परम पुरुष श्रीकृष्ण हैं - ‘कान्तः परमपुरुषः’ और उनकी लीलास्थली वृन्दावन के जो वृक्ष है, ये सारे-के-सारे दिव्य कल्पतरु हैं और यहाँ की जो भूमि है यह चिन्तामणिमयी है और यहाँ का जल ही अमृत है, यहाँ की बोली ही गान है। बोली बोलते हैं मानो गाते ही हैं - ऐसी मीठी और यहाँ का चलना ही मानो नाचना है। सब नाचते हुये चलते हैं मौज से। यहाँ शोक तो आता नहीं विषाद आता नहीं, भय आता नहीं तो यहाँ सबका जीवन नाचता है। वंशी प्रिय सखी है। ये चन्द्र, सूर्यादि, ज्योतिर्मण्डल और शब्द, स्पर्शादि जितनी भोग्य वस्तुएँ हैं सब यहाँ पर सच्चिदानन्दमयी हैं।
श्रीकृष्ण की वंशी साधारण वंशी की भाँति कोई बजने वाली चीज नहीं है। यह बाजा नहीं है। यह तो श्रीकृष्ण के साथ मिलन करा देने वाली सर्वश्रेष्ठ दूती है। यह जड बाँस की बनी हुई चीज नहीं। यह सच्चिदानन्दमयी है। यह कैसे मानें? गोपियाँ परम प्रेमवती थीं और श्रीकृष्ण को अपना मन दे चुकी थीं यह भी ठीक और समुत्कण्ठित भी थीं यह भी ठीक, परन्तु धैर्य, लज्जा, कुलशील, मान इत्यादि जो बेड़ियाँ पड़ी हुई थीं इन बेड़ियों को तोड़कर श्रीकृष्ण के समीप पहुँचना उनके लिये बड़ा कठिन था। मिलनोत्कण्ठा में धैर्य, लज्जादि बड़े भारी बन्धन थे। इनको हटाना बड़ा मुश्किल है। परन्तु इस वंशी ने जादू कर दिया। जहाँ यह वंशी बजी और जहाँ वंशी की ध्वनि श्रीगोपांगनाओं के कानों में पहुँची कि सारे बन्धन पटापट टूट गये। अपने आप बन्धन सारे छिन्न हो गये और वे उसी क्षण श्रीकृष्ण से मिलने के लिये दौड़ पड़ी। अतः श्रीकृष्ण के साथ गोपियों का मिलन करा देने में परम सहायता करने वाली यदि कोई है तो वंशी ध्वनि ही है।
श्रीकृष्ण भगवान है, ईश्वर हैं, ऐश्वर्य के द्वारा भी उनको बुला सकते थे पर ऐश्वर्य से उनको बुलाते तो ऐश्वर्य में ही ढ़िठाई-लीला होती। मधुर लीला नहीं होती। राजा हैं अगर मुरली के बदले परवाना-वारंट भेज देते कि जाओ ले आवो तो वहाँ डर रहे, मान रहे, संभ्रम रहे, लज्जा रहे, संकोच रहे न मालूम क्या-क्या रहे तो मधुर लीला होती नहीं।भगवान ने जब मधुर मिलन के द्वारा रसास्वादन करने की इच्छा की तो वंशी दूती की सहायता के बिना उनके पास कोई गति नहीं। इसलिये वंशी की सहायता से उन्होंने रासक्रीडा करने की इच्छा की - ‘योगमायामुपाश्रितः।’ फिर कहते हैं बड़ी सुन्दर बात कि यह वंशी जो है यह न तो मत्स्य, कूर्म, वाराहादि अवतार में रही और न हीं भगवान के रामवतार में ही रही। भगवान ने बड़ी-बड़ी लीलाएँ की और सारी लीलाएँ भगवान की परम दिव्य है। कोई भी लीला कम हो तात्त्विक दृष्टि से सो बात नहीं। सभी लीलाओं में योगमाया भी साथ थी। पर वंशी-योगमाया जो है यह तो बस यहीं पर है। वंशीधारी जो कृष्ण हैं-भगवान वंशीधारी, ‘भगवानपि’ यह वंशीधारी भगवान यहाँ कि सिवा कहीं नहीं। भगवान का सारी मूतियों में शंख रहे, चक्र हरे, गदा रहे, पद्म रहे, वाण, खड्ग इत्यादि यह भी रखे हैं। कुरुक्षेत्र में गये तो वहाँ भी चक्के को बुला लिया। चक्का उठाकर घुमाया तो वह सुदर्शन चक्र बन गया। लेकिन यह व्रज में भगवान ने वन-वन में घूम-घूमकर वंशी ध्वनि की। कुंज-कुंज में, यमुना के पुलिन-पुलिन पर, गोवर्धन की तराई में, गोवर्धन के ऊपर, सड़सी के पेड़ पर सुख से विचरण करते हुये भगवान ने जो परमानन्द रसास्वादन किया और उसका वितरण किया उसमें वंशी की परम सहायता रही। इसलिये वंशी को उन्होंने कभी छोड़ा नहीं।एक दिन की बात है ये जाकर कहीं निकुंज में छिप गये। इनको मजा आता है इसमें कि कुछ उत्कंठा बढ़े, कुछ लोग हमको ढूँढ़े। योगियों का ढूँढना दूसरा होता है उसमें माधुर्य नहीं होता है। वहाँ आँख मीच के बैठे हैं।
क्रमश:
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