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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
वहाँ वो देवियाँ सब हैं ब्राह्मणी मातायें उनसे जाकर कहो कि मैया! कन्हैया को भूख लगी है तो वे दे देंगी। बच्चे बोले मारेंगी तो नहीं, उनके घर में जायं? बोले, मारेंगी नहीं तो हिम्मत की। कन्हैया की बात तो सबको माननी ही है तो सब गये। अन्दर चले गये। बाह्मणियों ने कहा, लाला यहाँ कहाँ से आये हो? प्रेम से बोलीं तो बच्चों को बड़ा संतोष मिला कि यहाँ मारने-वारने की बात नहीं। क्यों आये हो लाला? दौड़े-दौड़े आये हो क्या बात है?
बोले मैया कन्हैया आया हुआ है। बोली, कन्हैया आया हुआ है श्यामसुन्दर? क्या कुछ कहलाया है? बोले, हाँ मैया बड़ी भूख लगी है उसको और हम सब भूखें हैं। ब्राह्मणियाँ जो जो पकवान बना था उन सबको थाल में सजाकर चलीं। ब्राह्मण बोले कहाँ जा रही हो? सुना ही नहीं किसी ने। पहुँच गयीं वहाँ ले करके। भगवान को देखा, बलदाऊजी के कन्धे पर हाथ दिये खड़े हैं; निहाल हो गयीं देख करके। कहते हैं कि औरों की बात तो अलग रही है विप्र-पत्नियाँ जो थीं यज्ञ-पत्नियाँ यह भी श्रीकृष्णनुरागिणी थीं, श्रीकृष्ण में उनका अनुराग था। इसीलिये वे पति-पुत्रादि का त्याग करके केवल श्रीकृष्ण की सेवा के लिये ही तो आयीं थीं, खाना ले करके। उनका और क्या भाव था।श्रीकृष्ण को सुख मिले, उनकी भूख मिटे, उनको खिलाने के लिये ही तो बढ़िया-बढ़िया चीजें लेकर आयी थीं। और वे पति-पुत्रादि का त्याग करके आयी थीं। वे कृष्णानुरागिणी थीं इसलिये कन्हैया का नाम सुनते ही उनके हृदय में उमंग आ गयी कि भोजन ले चलना है। परन्तु वंचना करने वाली योगमाया तो साथ थी। इस माया की महापरीक्षा में वे पास नहीं हो सकीं। उत्तीर्ण नहीं हो सकीं। भगवान तो साथ में योगमाया को लेकर रहते हैं। गोपियों से भी यही कहा कि तुम आ गयी बड़ा अच्छा किया-
‘स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः’
तुम्हारा स्वागत है। यही शब्द यहाँ, यही शब्द वहाँ, दोनों जगह यही शब्द है। पहला आधा श्लोक एक साथ। आओ, तुम्हारा स्वागत है। कहो क्या करें? तुम्हारे लिये कोई सुख की चीज। कहा-महराज! कुछ नहीं बस आ गयी। भोजन जो लायी थीं वह तो खाना था ही। वो खा-पीकर बोले अच्छा अब लौट जाओ। अब देखिये यहाँ पर वचना-वो बोलीं कि श्रीकृष्ण! तुमने जाने की बात कही सो तो ठीक है और जाना हम चाहती भी हैं लेकिन हम वहाँ पर पतियों को, पुत्रों को त्याग करके उच्छृंखलता से उनकी बात न मान करके मनमाने तौर पर आ गयी हैं तो वे हमको घरों में रखें या न रखें। अगर न रखें हमको घरों में तो बताओ हम क्या करें? श्रीकृष्ण की योगमाया अर्थात अपने साथ मिलने देने में वंचना करने वाली। बस, यह हो गयी प्रकट और बोली-मैं तुम लोगों को वर दे रहा हूँ कि तुम लोग जाओ और तुम जब घर पहुँचोगी तो तुम्हारे पति पुत्र सभी तुम लोगों का सत्कार करेंगे और बड़े आदर के साथ तुम्हें घरों में रखेंगे-
धिग् जन्म नस्त्रिवृद् विद्यां व्रतं धिग् बहुज्ञताम्
धिक् कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ते त्वंधोक्षजे॥
वे बेचारे ब्राह्मण रोये पीछे कि हाय-हाय हमसे बड़ी भूल हो गयी। हमारे कुल को धिक्कार, द्विज्जन्म होने को धिक्कार, हमारे कुल, क्रिया-दक्षता को धिक्कार। अरे, ये तो जा पहुँची उनके पास उनकी सेवा कर आयीं। हम वंचित रह गये। भगवान ने कहा तुम जाओ। तुम्हें खेदेड़ेगे नहीं। बड़े आदर से तुमको रख लेंगे। यज्ञ पत्नियाँ मान गयीं, लौट गयीं। फिर वे जरा भी बोली नहीं। इसलिये कृष्णसंग कृष्णसेवा का परित्याग हो गया उनका। यद्यपि गयीं थी कृष्ण का चिन्तन करते ही। पर लौट गयीं अपने घरों को।
कहते हैं कि इसी प्रकार योगमाया की महान वंचना में पड़कर के बड़े-बड़े लोग कोई मुक्ति को पाकर के सेवाधिकारी को छोड़ देते हैं और जो बहुत मन्द बुद्धिवाले लोग हैं वो तो विनाशी भोग के लिये ही सेवा छोड़ देते हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि बहुत दिन श्रीकृष्ण की सेवा की, पूजा करते-करते आज उसका फल मिला है। अब पूजा पुजारी जी करेंगे। कुछ रुपये देकर के पुजारियों को रख लिया और अपने भगवान का दिया वैभव है उसे भोगना है। मन्दिर में पुजारी जी हैं ही अब हमको फुरसत नहीं। इस प्रकार से वो भुक्ति को लेकर के भोगों को लेकर के सेवाधिकार को छोड़ देते हैं; और कोई जो बड़े भारी साधन-सम्पन्न महापुरुष हैं वे मुक्ति को ले लेते हैं और सेवाधिकार को छोड़ देते हैं।
सालोक्यसार्ष्टि सामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत
दीयमानं त गृह्णन्ति बिना मत्सेवनं जनाः॥
भगवान ने कहा कि जो मेरे जन हैं - मेरे निजजन-उनके अपने बहुत कम होते हैं। कोई मुक्ति के होते हैं, कोई भुक्ति के जन होते हैं। हरिजन असली नहीं होते। आज कल के हरिजन दूसरे। जो निजजन भगवान के हैं वे निज सेवा में रहते हैं, व्यक्तिगत होते हैं। एक तो होते हैं आफिस के सेक्रेटरी, आफिस का काम करते हैं। खूब मजे में दरबार का काम करते हैं। और एक होते हैं पर्सनल सैक्रेटरी वो व्यक्तिगत काम जो उसका है उसको देखते हैं। उनका महत्त्व अधिक होता है। उनके समने अन्तरंग बात भी खुलती है। क्योंकि वे अन्तरंग सेवा करते हैं। इसी प्रकार जो निजजन भगवान के होते हैं; वे सेवा को छोड़कर किसी और चीज को नहीं ग्रहण करते। उनको कोई अगर दूसरा बड़ा भारी महकमा दे दे, राजा बना दे तो कहते हैं यह नहीं, हमकों तो सेवा में रखो। यहाँ पाँच प्रकार की मुक्तियों का भेद बताया है। सालोक्य, सामीप्य, सार्ष्टि, सारुप्य और एकत्व-इन पाँच प्रकार की मुक्तियों को देने पर भी वे मेरे निजजन मेरी सेवा को छोड़कर इन्हें स्वीकार नहीं करते।ऐसे जो लोग हैं उनके सामने भगवान बाध्य हो जाते हैं। भगवान की योगमाया-वंचनामाया का वहाँ काम नहीं पड़ता। कहते हैं कि यहाँ पर विप्र-पत्नियाँ तो लौट गयीं परन्तु कृष्ण सेवा लाभ की अनधिकारी हो गयीं और ये व्रजरमणियाँ जब श्रीकृष्ण के वंशीनाद को सुनकर आकृष्ट होकर श्रीकृष्ण के समीप पहुँची तो वहाँ भी यही चेष्टा हुई। योगमाया ने वंचना की कि जाओ लौट जाओ। वहाँ परतो एक ही बात कही पर यहाँ तो योगमाया के द्वारा भगवान ने बड़ा व्याख्यान दिया।क्रमश:
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