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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवान के आसन पर बैठ जाते हैं किन्तु कहते हैं कि रासलीला में भगवान ने जिस कृपा का प्राकट्य किया वह तो बड़ी चमत्कारमयी लीला है।भगवान की इस कृपा को जिसने पाया वह फिर कभी कृपा से वंचित नहीं हो सका-निश्चला कृपा। भगवान की कृपा जो वितरित होती है उस कृपा में ही ऐसी कोई शक्ति रहती है कि वह शक्ति जिसमें आ जाती है; तो वह कृपा ही कृपा प्राप्त व्यक्ति को कृपा ग्रहण करने की और कृपा की रक्षा करने की शक्ति दे देती है। गोपांगनाओं ने उस शक्ति को प्राप्त किया और उनके लिये भगवान ने वो शक्ति दी। इसका नाम है ‘योगमायामुपाश्रितः’ योगः ऐश्वर्य तद्युक्ता या माया कृपा तामुपाश्रिता भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’
कहते हैं कि भगवान का योग शब्द का अर्थ है भगवान का ऐश्वर्य और ऐश्वर्य की जो कृपा है उसका नाम है योगमाया-योग माने ऐश्वर्य, माया माने कृपा। श्रीकृष्ण की लीला में यह ऐश्वर्य युक्त कृपा ही नाना प्रकारों से अपना काम करती है। पूतना राक्षसी को माँ की गति दे दी। वहाँ से लेकर और जितनी भी लीलाएँ भगवान ने की वहाँ-वहाँ पर योगमाया ने-ऐश्वर्य-कृपा ने प्रकट होकर सारा काम यों बना दिया कि कहीं किसी प्रकार की अड़चन आयी ही नहीं। मानों पहले से बना बनाया तैयार। इस ऐश्वर्ययुक्त कृपा का रासलीला में पूर्ण विकास दीखता है प्रथम से अन्त तक।
श्रीभगवान ने जब अनुरागिणी व्रजबालाओं पर कृपा करके उनके साथ रासक्रीड़ा करने की इच्छा की और उनको अपने-अपने घरों से वन भूमि में बुलाने के लिये वंशीनाद किया तो भगवान ने यह जो वंशीनाद किया कृपा करके, यह अगर सभी सुन देते तो भगवान के पास इन सबका आना ही मुश्किल हो जाता। भगवान की कृपा ने वहाँ ऐश्वर्य प्रकाश करके वंशीनाद केवल सुनाया गोपरमणियों को ही। वंशी बजी सबके लिये लेकिन उनके कानों को अवरूद्ध कर दिया ऐश्वर्य शक्ति ने। यदि सब कोई सुनते तो एक आफत और होती। यह वंशी तो सबको मोहित करने वाली है। तो वंशीनाद को सुनकर सभी घरवाले चल पड़तें, सारा व्रज ही वहाँ उमड़ पड़ता। तो फिर यह लीला होती ही नहीं। ऐश्वर्य प्रकाश हुआ फिर सब इनके पति-पुत्रों ने निवारण किया-रोका परन्तु जब जाने लगीं तो भूल गये और अपने-अपने घरों को वापिस लौट आये। नहीं तो साथ ही चले चलते। पीछे-पीछे दौड़ते तो काम नहीं बनता।रासस्थली में तो योगमाया की ऐश्वर्य शक्ति ने पूर्ण प्रकाश किया। यह भगवान ने रासनृत्य में प्रवृत्त होकर के प्रत्येक गोपी का हाथ धारण कर लिया। दो-दो गोपी बीच में एक-एक कृष्ण। अनन्त गोपिकाओं में अनन्त कृष्ण रूप से प्रकट होकर के भगवान ने गोपिकाओं की मनोवांक्षा पूर्ण की।
कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः॥
जितनी गोपांगनाएँ थीं रासस्थली में उतनी मूर्ति प्रकट करके भगवान ने रास-नृत्य किया। यह ऐश्वर्ययुक्त कृपा का पूर्ण विकास है।योगमाया शब्द पर विचार करने पर भगवान की लीला के और वैभव भी सामने आते हैं।
भगवानपि ता रात्रीः शदोत्फुल्लमल्लिकाः
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः॥
रास पञ्चाध्यायी के पहले श्लोक का प्रसंग चल रहा है और उसमें ‘योगमायामुपाश्रितः’ इस पर विचार हो रहा है तो एक यह अर्थ है कि-
‘योग आत्मना सह मिलने या माया यज्ञपत्नियादि स वंचना तामुपाश्रितोऽपि भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’
भगवान का एक स्वभाव यह है कि वे भुक्ति-मुक्ति तो सहज में दे देते हैं पर भक्ति या प्रेम छिपाकर रखते हैं, देना नहीं चाहते हैं। भक्ति या प्रेम चाहने वालों को उनकी माया पहले वंचित करती है, हटाती है कि किसी तरह ये ज्ञान या मुक्ति लेकर चले जायँ। किसी तरह इनसे पिण्ड छूटे। योगमाया का अर्थ है कि अपने साथ मिलने में जो वंचना करे-न मिलने दे-ऐसी योगमाया को साथ लेकर भगवान ने ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ किया। वास्तव में यही बात है। कहते हैं कि जो सर्वत्याग करके सब प्रकार से दुःख-दैन्यादि को स्वीकार करके किसी भी बात की परवाह न करके लोक, वेद, देह इनके धर्म, कर्म, लज्जा, धैर्य, सुख, आत्मसुख, मर्म इत्यादि किसी चीज की परवाह न करके सबको अग्राह्य करके एकमात्र श्रीकृष्ण सेवा ही जिनका सारसर्वस्व हो वही इस वंचनारूपी माया से मुक्त होकर श्रीकृष्ण का संगसुख और सेवासुखास्वादन कर सकते हैं। यह खास चीज है सेवा-सुखास्वादन। यह कर सकते हैं।
कहते हैं कि दूसरों की बात तो दूर रहीं श्रीकृष्ण की परम अनुरागिणी विप्र पत्नियों की बात है। एक बार भगवान श्रीकृष्ण वन में गये गोचारण के लिये-अब उनको तो विप्र पत्नियों की इच्छा पूर्ण करनी थी सो उस दिन छाक आने में देर हो गयी तो भूख लग गयी। बच्चों को भूख लगा दी। उन्होंने कहा कि कन्हैया आज तो भूख लग गयी और कलेवा आया नहीं तो क्या करें? तो बोले सहन करो भई! कुछ देर ठहरो। गोपबालक बोले हमसे तो रहा नहीं जाता। बच्चों को भूख लग गयी और रहा नहीं जाता। अब कुछ पास तो था नहीं बेचारे खाते क्या तो कहा भई एक काम करो। थोड़ी दूर पर ब्राह्मण लोग यज्ञ कर रहे हैं तो तुम लोग जाओ और जाकर कहो कि कन्हैया श्रीकृष्ण आये हैं उनको भूख लगी है तो कुछ दे दो। बच्चे बेचारे सरल हृदय के वे समझे सभी गोकुलवासी के समान हृदय के हैं, लोग दे ही देंगे माँगने से। उनको क्या पता कि यह बहुत विधि-विधान मानने वाले, सब बड़े-बड़े पण्डित लोग हैं। वे पहुँचे तो पण्डित वेद की ऋचाओं के साथ यज्ञ में आहुति दे रहे थे। विप्र बोले कि भई कहाँ आये तुम लोग? डाँटकर कहा। डर गये बेचारे। बोले, कन्हैया ने भेजा है बाबाजी। क्या काम है? बोले वह आया हुआ है। नजदीक ही है।आपके यहाँ माल बना है उसमें से कलेवा दे दीजिये। विप्र बोले-हटो यहाँ से, यह यज्ञ है कि कोई ग्वालों का घर है। दूर हटो। अब वे बेचारे डर के मारे बोलेन की हिम्मत नहीं। फिर लौट आये। आ करके बोले, कन्हैया वहाँ तो मिला नहीं, केवल डाँट मिली। कन्हैया बोले-क्या करें? तो वे बोले भूख लगी है कोई उपाय बताओ। कन्हैया ने कहा-उपाय है कि अब की तुम लोग ब्राह्मण के पास न जाकर उनकी कुटिया के अन्दर चले जाओ।
क्रमश:
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