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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

साधन सिद्धा जो गोपियाँ थीं उनको ऐसा मानते हैं कि रसलीला के दिन ही इनका नित्यलीला में प्रवेश होता है। साधन सिद्धा गोपियों का हित सिद्धा गोपियों के साथ जो मिलन है, प्रवेश है नित्य लीला में, वह इसी समय होता है। यह रासलीला इसीलिये होती है कि ये साधनानुष्ठान का फल है। साधन सिद्धा गोपियों को हित सिद्धा गोपियों के साथ मिलाने का यह महान उत्सवपूर्ण आयोजन है।कहते हैं कि ज्ञानी, योगी, कर्मी-इनके साधन के फल में और रागनुगा भक्ति के साधकों के फल में कुछ अन्तर है क्योंकि ज्ञानी अपनी ज्ञान साधना से सिद्धावस्था में ब्रह्मतत्त्व को प्राप्त करते हैं और सर्वव्यापी सायुज्य लाभ करते हैं और उनको ब्रह्मस्वरूप में सायुज्य लाभ करने के लिये स्थानान्तरण का गमन नहीं करना पड़ता। जहाँ देह छूटा वहीं पर-

‘न तस्य प्राणा उत्कामन्त्यमेव समक्लीयन्ते’
जहाँ प्राण निकले, प्राणों का उत्क्रमण हुआ नहीं और वहीं-के-वहीं उनके सूक्ष्म देह का नाश हो गया और वो परब्रह्म में विलीन हो गये। योगी भी अपने हृदयेष्ठ परमात्मा के साथ जीवात्मा की एकात्मता करके वहीं पर विलीन हो जाते हैं। कर्मी भी अपने-अपने कर्मफलों के अनुसार देव तिर्यगादि विविध देह धारण करके इन्हीं ब्रह्माण्डों में रहते हैं; और लोकों में नहीं जाना पड़ता उन्हें। किन्तु गोपी भाव से श्रीकृष्ण की सेवा प्राप्ति की लालसा से जो लोग रागानुगाभक्ति करते हैं वे न तो परब्रह्म में विलीन होते हैं और न वे देव, तिर्यगादि देह धारण करके ब्रह्माण्ड में रहते हैं। उनकी साधना की जो सिद्धि है वह गोपी देह से श्रीकृष्ण की सेवा प्राप्ति में ही पर्यवसित होती है। गोपी गर्भ से जन्म ग्रहण करके वे लोग नित्य सिद्ध गोपियों का संग प्राप्त करते हैं और उसके बाद भगवान की नित्य सेवा में वे अधिकारी होकर संलग्न होती हैं।

यह श्रीकृष्ण का धाम जो है यह धाम-रासधाम, विलासधाम, लीलाधाम-यह ब्रह्माण्ड से बहुत दूर है। इसकी लोक कल्पना भी है गोलोक, व्रजलोक। और लोक कल्पना जहाँ नहीं है वहाँ भी यह ब्रह्माण्ड से बहुत दूर है क्योंकि ब्रह्माण्ड की जो कुछ साधन-सामग्री-सामान है उसमें नहीं है। यहाँ का काम वहाँ नहीं होता है। यहाँ से बहुत दूर। इस जगत से बहुत दूर वह प्रेम का धाम है। रागानुगाभक्ति वालों को इस ब्रह्माण्ड में नहीं रहना पड़ता। बहुत दूर लीला धाम में पहुँच जाते हैं और इसे लोक-दृष्टि से देखे तो अनन्त ब्रह्माण्ड और मायासमुद्र की बात तो है। कारणार्णव-कारण समुद्र उसके बाद है, सिद्धलोक, उसके बाद है परम व्योम वहाँ अनन्त वैकुण्ठ की स्थिति है और उसके बाद है भगवान का लीलाधाम-व्रजलोक। वहाँ अपनी इच्छा से कोई जा सके या साधना से यह नहीं हो सकता।गोपीभाव से श्रीकृष्ण की प्रेम सेवा करने का लोभ जिनके मन में जागृत हो जाता है और जो गोपियों के समान अपने को बना लेते हैं वे ही उस साध्यापि प्रेमभाव में पहुँच सकते हैं और लोग नहीं पहुँच सकते। इसलिये श्रीभगवान जब लीला प्रकट करते हैं तो उनकी सेवा प्राप्ति की उत्कंठा रखने वाले साधक योगमाया की सहायता से वहाँ प्रकटलीला में गोपी गर्भ से प्रकट होते हैं और फिर नित्य सिद्धा गोपियों के संगी की महिमा से भाव परिपक्व होने पर रासलीला में श्रीकृष्ण के साथ मिल जाते हैं।

यह विषय आयेगा कि इनमें जो गोपियाँ थीं उनमें कुमारियाँ भी थीं, अविवाहिता भी थीं, तरुणी भी थीं। इन सबके अलग-अलग भाव हैं। यह प्रपञ्चातीत भगवान का धाम-प्रेमधाम यह तो गतिविहीन है। कृपा के बिना यहाँ कोई जा नहीं सकता। अपनी चाल से चलकर भगवान के प्रेमधाम में कोई नहीं पहुँचता। यह तो बस अपने अन्दर इस प्रकार की जिसके अन्दर भावना जागृत हो गयी वही चुम्बक के सामने जैसे लोहा आता है वैसे ही भगवान की कृपा आ जाती है।कहते हैं कि भई भगवान करुणाधाम के समुद्र हैं और निरंतर उनकी कृपाधारा विश्व को प्लावित करती रहती है परन्तु कृपाधारा की शक्ति को धारण करने वाले भी तो होने चाहिये। उनकी कृपा के ग्राहक भी तो हैं। कृपा तो उनकी है। कोई भी ऐसा दयालु हो और परम उदार महापुरुष हो जो अकारण दिन-रात देता ही रहे, देता ही रहे और जिसके देने में कभी किसी प्रकार की कमी न आवे, जिसका नित्य प्राचुर्य बढ़ता रहे। देने में जिसका देनापन और देने की वस्तु नित्य बढ़ती रहे। ऐसे भगवान उदार शिरोमणि हैं लेकिन कोई दरिद्र इस धन को लेकर रखेगा कहाँ? रखने की जगह नहीं। उसकी उस टूटी झोंपड़ी में अगर धन लाकर रख दे तो चोर चुराकर ले जाय। दाता का दान प्राप्त करने पर भी ग्राहक के लिये- उसके लेने वाले के लिये उसकी रक्षा करनी बड़ी कठिन है। भगवान की अयाचित कृपा बहुत दफे बहुतों को मिल भी जाती है किन्तु वे उसको रख नहीं सकते, खो देते हैं, बेच डालते हैं चोरों के हाथ। सारे भोग चोर ही हैं। भगवान की कृपा को भोगरूपी चोरों के हाथों बेंच डालते हैं। घर है ही नहीं कि उसे रख लें।

संसारासक्त जीव भगवान की कृपा पाते हैं परन्तु दुर्भाग्यवश उसे खो देते हैं अथवा या तो चोर आ जाते है या वैसा संग मिल जाता है बहुत खराब या धर्मध्वजी सिद्ध पुरुषों को मिल जाते हैं। बने हुए सिद्ध लोग जिनके हाथ में गिरे फिर उनको दूर ले जाकर फेंक देते हैं। कृपा सारी खो जाती है और कोई अगर आगे ही बढ़ता है तो क्या होता है कि बड़ा तूफान आता है उस तूफान में फँसकर वे संसार सागर में गिर पड़ते हैं। तूफान क्या है? वह तूफान है मान-प्रतिष्ठा, कीर्ति की आँधी। इससे रक्षा होनी बड़ी कठिन। लोग कहते हैं ये भगवान के बड़े भक्त, ये भगवान के बड़े प्रेमी, भगवान तो इनके वश में रहते हैं। अब चाहे वश में हों या न हों परन्तु कुछ कृपा प्राप्त हुई थी, अब वह कृपा इस प्रकार से खोयी जाने लगी। तूफान आ गया, आँधी बड़े जोर की आ गयी। इस आँधी में ये पूजा, प्रतिष्ठादि की प्राप्ति में ही इन्हीं के गुलाम बन जाते हैं। कृपा का आधिपत्य उठा-उठाकर दूर फेंक देते हैं। हमको कृपा नहीं चाहिये। हमको तो मान चाहिये, प्रतिष्ठा चाहिये, नाम चाहिये, कीर्ति चाहिये, पूजा चाहिये।
क्रमश:

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