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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
ज्ञानी, योगी पुरुष जब अपने ज्ञान का फल तत्त्वज्ञान पाते हैं तो क्या होता है कि जो सच्चिदानन्द रूपी स्वरूप सागर हैं उसमें बूँद की तरह जाकर मिल जाते हैं, सागर बन जाते हैं। भगवान की कृपा के बिना किसी को सेवाधिकार नहीं मिलता। अतएव भगवान की कृपा का प्रत्यक्ष भोग वह नहीं कर सकते। अचल होकर ही रहती है वह कृपा किन्तु भगवान ने अपनी कृष्ण लीला में जिन पर कृपा की, उन पर अगमाया ही की। निश्चल कृपा की। अन्य अवतारों में सबमें भगवान की कृपा तो समान ही है पर इस प्रकार भगवान ने दिखाया नहीं अपनी कृपा का अगमायास्वरूप।इस सम्बन्ध में औरों की बात छोड़ दे, पूतना जो है यह तो जहर लगाकर मारने आयी पर पूतना को मारकर इन्होंने जननी की गति दे दी। वहाँ पर भगवान ने अगमाया का प्रकाश किया। जो श्रीकृष्ण इस अगमाया को लेकर जगत में अवतीर्ण हैं उनके कृपा भण्डार में मानों अगमाया के सिवा और कुछ है ही नहीं। वे जिस पर कृपा करते हैं वह अगमाया ही कतरे हैं-निश्चला ही करते हैं। तो श्रीकृष्ण ने अपनी समस्त लीलाओं में अगमाया का वितरण किया। इसमें कोई सन्देह नहीं किन्तु रासलीला में तो मानों उन्होंने अगमाया के भण्डार का दरवाजा ही खोल दिया, लुटा दिया। इसलिये उन्होंने रासलीला में ‘न परयेऽहं निरवद्यसंयुजां’ इत्यादि श्लोकों में गोपियों के लिये कहा कि ब्रह्मा की लम्बी आयु पर्यन्त भी यदि मैं प्रयत्न करूँ तो तुम्हारे प्रेम का बदला नहीं चुका सकता। तुम्हारा प्रेम सदा के लिये मुझे ऋणी बनाकर रखेगा। गोपियों पर कृपा करने जाकर मानो भगवान ने अपनी कृपा का भण्डार निःशेष कर दिया और फिर ऋण स्वीकार कर लिया। अपनी कृपा का सारा भण्डार देकर भी कहा भई! अभी ऋण उतरा नहीं। ऋण तुम्हारा नहीं गया। ऐसी अगमाया भगवान ने कहाँ प्रकट की? अपने गीता के वाक्य को बदल दिया यहाँ भगवान ने। भगवान की प्रतिज्ञा है-
‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’
प्रतिज्ञा है किन्तु-‘न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां’ अरे सेवा का बदला चुका सकते, वैसा ही भजन कर सकते भजन के बदले में, तो यह कहने की क्या आवश्यकता थी कि मैं ऋणी रह गया। इस प्रकार से भगवान अपनी अगमाया का-निश्चलाकृपा का प्रकाश करते हैं।फिर दूसरे प्रकारान्तर से इसके अर्थ का स्वाद लिया जा सकता है। ‘अगेषु स्थावरेषु वृक्षलता विश्वपि या मायाकृपा ता अगमाया तामुपाश्रिता भगवान रन्तुं मनश्चक्रे।’ कहते हैं श्रीभगवान ने जितनी लीलायें की, जहाँ-जहाँ अवतीर्ण हुये वहाँ कृपा का सम्भार लेकर ही अवतीर्ण हुये। किन्तु श्रीकृष्णलीला में वृक्षलताओं को भी कृपादान देकर कृतार्थ किया। यह अयाचित कृपावर्षण बड़ा अद्भुत है।पद्मनाभ भगवान ने हजारों-हजारों अवतारों में अनेक महाशक्तियों को प्राकट्य किया। हजारों अवतार हुये और हजारों प्रकार के महाशक्तियों से परिपूर्ण पर श्रीकृष्ण के बिना ऐसा कौन हुआ जिसने वृक्ष-लतादि पर भी प्रेम-सिंचन किया। उनको भी प्रेमरस से नहला दिया, अभिसिक्त कर दिया। रासलीला में जब भगवान अन्तर्धान हो जाते हैं तो श्रीगोपांगनाएँ वन-वन में उनको ढूँढती फिरती हैं। तब इनके कृपास्पर्शजनित प्रेमानन्द से पुलकित वृक्ष-लताओं को देखकर-उन्होंने देखा कि यह वृक्ष-देह नहीं पुलकित देह हो रहे हैं-इनके रोमांच क्यों हो रहा है? तो रोमांच इसलिये हो रहा है वृक्ष-लताओं के शरीर में कि श्यामसुन्दर उनको स्पर्श कर देवें। श्यामसुन्दर के स्पर्श से वृक्ष-लतादि प्रेमानन्द से पुलकित हो गये हैं।
पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पतेः
नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो॥
यह देखकर गोपांगनायें कहने लगीं कि देखो, ऐ सखी! वृक्षशाखावलम्बिनी यह जो लता है-वृक्ष की शाखा का अवलम्बन करके फैली हुई निश्चय ही यह श्यामसुन्दर के कर-स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त कर चुकी है। भगवान इसे छू गये हैं इसीलिये यह पुलकित होकर और मृदुल-मृदुल पवन के आन्दोलन से नाच रही है। यह बेल जो नाच उठी यह उन्मत्तता कहाँ से इसमें आ गयी। कहा कि भगवान छू गये, उनका स्पर्श हो गया। श्रीकृष्ण की इस प्रकार की कृपा वृक्ष-लतादि के ऊपर अनन्त हुई।ये स्थावर प्राणी सारे भगवान के पास जा नहीं सकते तो भगवान स्वंय पुष्प चयनादि के बहाने इनके पास जाते। इनके तले पहुँचते, भ्रमण करते और कृपारस सिंचन करके इन्हें कृतार्थ करते। अपने हाथ से किसी बेल को सहला देते, किसी की धूल झाड़ देते, किसी पर रस बरसा देते। किसी का स्पर्श कर देते। अतः ये सबके सब कृतार्थ हो गये। दूर से जब वंशी की ध्वनि होती तो वंशी के मधुर-स्वर को यह वनभूमि लेती तो सारे वन में श्रीकृष्ण के अंग से स्पर्शित वायु फैल जाती। तब क्या होता कि वृन्दावन की वनभूमि में रहने वाले सब वृक्ष सब लतायें प्रेम से पुलकित हो जाती। वंशी ध्वनि सुनकर और भगवान के अंग-गंन्ध को पाकर पुलकित हो जाते और आमूल-जड़ से लेकर तमाम शाखाओं में फल-फूल सब के सब प्रकट हो जाते। सुशोभित हो जाता सारा वन-प्रदेश। पर बेचारों के पैर थे नहीं इसलिये श्रीभगवान के साथ-साथ ये वनभूमि में विचरण नहीं कर सकते थे। इसीलिये ‘अगमायामुपाश्रितः’ भगवान ने उनके निकट जाना स्वीकार किया और इसलिये वे जाकर करूणापूर्ण कर-स्पर्श से उनका आनन्दवर्धन करते।
इस प्रकार भगवान ने अगमाया का प्रकाश करके वृन्दावन के वृक्षों को बेलों को लता-वितानों को धन्य कर दिया और यह जगत में मानों घोषणा कर दी कि भाई देखो! जिसके भी हृदय में मेरी सेवा की आकांक्षा जाग उठी वह अगर मेरे पास नहीं आ सकता तो उनके पास मैं पहुँच जाऊँगा उनको कृतार्थ करूँगा। यह मानों भगवान ने घोषणा कर दी यहाँ पर। क्रियात्मक उपदेश कर दिया, केवल लौकिक नहीं। रासलीला में भगवान ने पूर्णरूप से अगमाया का प्रकाश किया। क्यों ऐसा किया? इसका कारण बताते हैं कि पूर्वकल्पों में कृष्णलीला का दर्शन करके, गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की मधुर लीला का श्रवण करके; गोपी भाव से श्रीकृष्ण की सेवा प्राप्ति के लिये लालसा बढ़ाकर बहुत से ऋषियों ने, मुनियों ने, बहुत-बहुत से साधकों ने रागानुगा भक्ति के द्वारा सिद्धि प्राप्त की थी। वे सभी श्रीकृष्ण की इस प्रकट लीला के समय गोपीदेह धारण करके वात्सल्यवती गोपियों के वहाँ जन्मे थे।श्रीकृष्ण ने रासलीला के समय अगमाया को प्रकट करके उन सबका इस लीला में प्रवेश करा दिया।
क्रमश:
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