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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

भगवान की अयोगमाया का ऐसा प्रभाव है कि एक बार भगवान ने गोपियों के प्रेम की परीक्षा करने के लिये अथवा उनके प्रेम का महत्त्व जगत में प्रकट करने के लिये जब उनसे कहा अपने-अपने घर लौट जाओ। पति-पुत्रादि की सेवा करो तो उनका अयोग कितना हो चुका था कि वो बोलीं-

यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग, स्त्रीणा स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम्।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा॥
गोपियाँ बोलीं-श्यामसुन्दर! आप परम धार्मिक हैं, धर्म के आधार हैं। इसलिये आप हमें उपदेश दे रहे हैं, कह रहे हैं कि तुम पति-पुत्रादि की सेवा में लगो। यह स्त्रियों का परम धर्म है। बहुत ठीक। परन्तु यह उपदेश आपका आप में ही रहे हमारे तो आप ही परमप्रेष्ठ हैं तथा परम बान्धव हैं और सर्वस्व हैं।यहाँ गोपियों के कहने का तात्पर्य यही कि हे श्रीकृष्ण! तुम हमारे लिये करोड़ो-करोड़ों प्राणों की अपेक्षा भी प्रियतम हो। तुम्हारी सेवा के बिना हमारी और कोई भी स्थिति हो ही नहीं सकती। तुम्हारी सेवा को छोड़कर क्षणमात्र के लिये भी हम दूसरा काम करें, इस प्रकार की हममें शक्ति है ही नहीं। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि सब जगह से गोपियों का अयोग हो गया था। अगर अयोग न होता तो इतनी बात कहने की हिम्मत होती ही नहीं जैसे विप्र-पत्नियों में नहीं हुई। श्रीकृष्ण प्रेमवती गोपरमणियों के साथ रासलीला में जब प्रवृत्त हुये तो कितनी प्रकार से उन्होंने अपनी कृपा को प्रकट किया इसकी कोई सीमा नहीं है। योगमाया और अयोगमाया के वर्णन से यह बात समझ में आयी। इसके अतिरिक्त ‘अयोगंमायामुपाश्रितः’ इसकी व्याख्या और भी होती है।

अयः अर्थात ‘अयोगत गच्छतीति अयोगा’ इस प्रकार से व्याख्या करने पर मालूम होता है अयः अर्थात लौह-लोहे के समान जिसकी गति है उसको कहते हैं अयोगा। अयोगात गच्छतीति-लोहे के समान जिसकी गति है भगवान की जो यह माया, कृपा है यह अयोगा है। जैसे अयस्कान्तमणि अपनी शक्ति से लोहे को खींचकर अपने में संयुक्त कर लेता है इसी प्रकार प्रेमी भक्तों को देखकर भगवान की कृपा उनकी ओर दौड़ पड़ती है खींचने के लिये। कहते हैं कि लौह जिस प्रकार से चुम्बक की ओर स्वभावतः ही दौड़ता है-लोहे को दौड़ाना पड़ता नहीं। चुम्बक सामने आ गया तो लोहा दौड़ गया-स्वभावतः। इसी प्रकार से भगवान की कृपा भी प्रेमी भक्तों के सामने दौड़ती है मानों भगवान की कृपा तो लोहा है और भक्तों का प्रेम चुम्बक है। तो जैसे चुम्बक को लोहे का आवाहन नहीं करना पड़ता। चुम्बक कहता नहीं लोहे को कि तुम हमारी तरफ आओ। चुम्बक ख़ाली लोहे के सामने हो जाता है।

इसी प्रकार से भगवान की कृपा भी स्वतः प्रवृत्त होकर अपने आप से चलकर प्रेमी भक्त की ओर दौड़ती है। लेकिन एक बात यह हम लौह-चुम्बक के दृष्टान्त में देखते हैं कि यदि लोहा परिमाण में बहुत ज्यादा हो-हजारों मन हो और चुम्बक तोला भर हो तो वह चुम्बक खींचने वाला होने पर इतने लोहे को नहीं खींच सकता। इसी प्रकार से भगवान की कृपा का परिमाण भी इतना ज्यादा है यह लोहा भी इतना भारी है-भगवान की कृपारूपी लोहा इतना अधिक है-कृपा की शोभा अनन्तता में ही है।भगवान की कृपा अगर इतनी सी हो तो वह भगवान की कृपा नहीं हुई। भगवान हों तब तो उनकी कृपा सीमित हो जाय परन्तु जिस प्रकार से भगवान अनन्त हैं उसी प्रकार से भगवान की कृपा भी अनन्त है।

लोहा, यह विशेष लोहा जो है इसको खींचने के लिये चुम्बक भी बहुत बड़ा होना चाहिये। यह मामूली लौकिक प्रेम में जैसे संसार को चाहते हैं। ऐसे ही भगवान को भी चाह लिया। इस प्रकार मामूली चाह से यह लोहा खिंचता नहीं है। थोड़ा-थोड़ा खींच जाय पर पूरा लोहा नहीं खिंचता। जिस प्रकार की श्रीगोपरमणियों पर कृपा हुई उस प्रकार की कृपा तो गोपरमणियों के समान चुम्बक होने से ही होती है नहीं तो होती ही नहीं। विषयी पहले नहीं चलता है।कहते हैं कि व्रजरमणियों के प्रेम की इतनी बड़ी महिमा और इस प्रेम का परिमाण इतना प्रचुर इतना महान कि भगवान की कोटि-कोटि सुमेरु से भी अधिक वृहत्तर कृपाराशि को विचलित होकर दौड़ना पड़ा उनकी तरफ। भगवान की कृपा विचलित हो गयी अर्थात भगवान की कृपा जो है यह वहाँ देख नहीं सकी कि क्या करने जा रहे हैं। भगवान की कृपा विचलित होकर उस प्रचुर परिमाण के लोहे के सामने, गोपरमणियों के प्रेम के सामने धावित हो गयी, दौड़ पड़ी। इसलिये भगवान की इस परम मधुर रासलीला को ‘अयोगमायामुपाश्रितः’ इस प्रकार की समझकर ‘रन्तुं मनश्चक्रे’-भगवान ने रमण की इच्छा की-यह एक अर्थ है।

फिर कहते हैं कि भगवान के इस रासक्रीड़ा में कृपा के अनेक प्रकार हैं। ‘यः अगमायां उपाश्रितः’ इस प्रकार से यदि पदच्छेद करें तो भगवान की इस कृपा का एक नवीन दर्शन होता है। वहाँ भगवान ने रमण की इच्छा की। ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ तो यहाँ एक प्रश्न होता है कि अनन्तरूपधारी भगवान ने किस रूप में रमण की इच्छा की? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि-‘यः अगमायां उपाश्रितः सः भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ अनन्त मूर्तिधारी भगवान जिस मूर्ति से इस अगमाया का प्रकाश करते हैं जहाँ यह प्रकाश हुआ अगमाया का उसी मूर्ति से इन्होंने इच्छा की। तो योगमाया का अर्थ हम करते हैं-निश्चल कृपा, अचल कृपा-‘न गच्छति न चलति इति अगा, निश्चला सा चा सौ मायाकृपा तेपि अगमाया तामुपाश्रिता प्रकटीकृतः।’ अपार करूणामय श्रीभगवान की कृपा को प्राप्त करना यह भाग्यवानों के भाग्य में हो तो जाता है क्योंकि वह कृपा बड़ी सरल भी है परन्तु स्थायी भाव से कृपा अचल होकर रह जाय। यह सबके लिये सहज नहीं होता।कहते हैं कि भक्तनिष्ठ कर्मयोगादि अनुष्ठान में भगवतकृपा के द्वारा सम्भव है इन्द्रपद मिल जाता है, ब्रह्मा का पद मिल जाता है किन्तु हमेशा के लिये नहीं। पुण्य क्षय होते ही फिर आना पड़ता है। योगी, ज्ञानी आदि निश्चित ही भगवान की कृपा से मुक्त हो जाते हैं पर वो कृपा का भोग नहीं कर पाते क्योंकि संसार की मुक्ति का अर्थ ही है सच्चिदानन्द स्वरूप सिन्धु में विन्दुवत विलीन हो जाना।
क्रमश:

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