41
41-
श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवान नित्य अव्यक्त हैं। वह अपनी शक्ति से ही अपनी कृपा से ही भक्तों के दृश्य हो जाते हैं। उनकी कृपा के बिना इस अपरिछिन्न परमात्म तत्त्व को कोई देख ले, उसके ज्ञानगम्य हो जाय यह भी सम्भव नहीं। व्रजरमणियों में श्रीकृष्ण के प्रति उपबुद्धि से धारणा हुई। श्रीकृष्ण ने भी ठीक इसी भाव से उनके साथ मिलन और विहार किया। श्रीकृष्ण की पूर्ण कृपा के बिना यह लोक-वेद-विद्विष्ट भाव से इस प्रकार का मिलन कदापि सम्भव नहीं। भगवान की उनकी अपनी बहुत प्रकार की लीलाओं में बहुत प्रकार से भगवान का भक्तों के साथ मिलन हुआ, होता है परन्तु रासक्रीडा में जिस प्रकार से गोपर मणियों के साथ में भगवान का मिलन हुआ इस भाव से किसी लीला में किसी के साथ नहीं हुआ। इस लीला में इस प्रकार की कृपाशक्ति का विकास हुआ था कि श्रीगोपांगनाओं को ‘पर’ मानकर विहार में कोई आपत्ति नहीं। भगवान की जो कृपाशक्ति है यह तमाम अनन्त शक्तियों में श्रेष्ठ है और कृपाशक्ति जब प्रकट हो जाती है तो भगवान की सारी शक्तियाँ उस कृपाशक्ति की अनुगामिनी होकर सेवा करने लगती हैं। तो भगवान सर्वेश्वर होने पर भी अपनी इच्छा से स्वयं इस कृपाशक्ति के अधीन हैं।यह कृपाशक्ति जहाँ प्रकट होती है वहाँ नाना प्रकार से भक्तों की मनोवासना भगवान पूर्ण करते हैं। व्रजरमणियों ने अपने इस पर-प्रेमवश धैर्य, लज्जा, कुलशील, भय, मान लोक-परलोक आदि सबका परित्याग करके निर्बाध श्रीभगवान की सेवा करने के लिये अत्यन्त उत्कंठित होकर अर्थात उत्कंठा की चरम सीमा पर पहुँचकर जब उन्होंने भगवान के समीप जाने की इच्छा की तब भगवान की कृपाशक्ति पूर्णरूप से विकसित होकर भगवान को भी उनके प्रेम सेवा के ग्रहण योग्य सजा दिया और उसी प्रकार से गोपियों के साथ श्रीगोपीनाथ का मिलन संघटित हुआ। इसीलिये यह लीला सर्वलीला मुकुटमणि कहलायी। तो इससे - ‘योगमायामुपाश्रितः’ इस वाक्य से भगवान की निर्वधी कृपा का ही संकेत मिलता है। उस कृपा का ही एक बड़ा सुन्दर रूप और दिखाते हैं।
श्रीभगवान की रासलीला में गोपियों के साथ उनका योग करने के लिये-गोपियों का येाग भगवान के साथ हो जाय इसलिये जिस प्रकार अपार कृपा प्रकट हुई ठीक इसी प्रकार गोपियों का पति, पुत्र, पिता, भ्राता, आत्मीय बान्धव, गृह, परिवार, स्वजन, पदार्थ इत्यादि से अयोग करने के लिये भी यह कृपा प्रकट हुई। भगवान ब्रह्मरूप से सर्वत्र और अन्तर्यामीरूप से समस्त जीवों के हृदयों में अवस्थित हैं। अतएव सबके साथ सदा ही उनका योग है। इसमें कोई संदेह ही नहीं किन्तु स्त्री, पुत्र, स्वामी, परिजन, विषय, वैभव, देह, घर इत्यादि के साथ अयोग न रहने के कारण इस नित्य योग का अनुभव नहीं होता। बात समझ में आयी कि नहीं? अर्थात भगवान सभी के हृदय में नित्य रहते हैं इसलिये भगवान का किसी के साथ कभी वियोग है ही नहीं, योग है ही पर योग दीखता क्यों नहीं? इसलिये नहीं दीखता कि घर में, घर वालों में, परिवार में, संसार में, भोगों में, प्राणि-पदार्थों में योग हो रहा है, वहाँ अयोग नहीं है। वहाँ अयोग हो तो यहाँ योग हो। यहाँ कृपाशक्ति ने दोनों काम किया। गोपियों का पति-पुत्रादि से अयोग किया और भगवान से योग किया-योगमाया और अयोगमाया दोनों प्रकार से।
कहते हैं कि जगत में जो साधक भक्त श्रवण, कीर्तन, ध्यानादि के द्वारा भक्ति के अनुष्ठान से भगवान का निर्बाध ध्यान करके दैहिक, सांसारिक, वैषयिक कर्मों से विरत होते हैं। परन्तु निविष्ट भाव से सर्वदा ध्यान में नहीं लगे रह सकते। क्यों नहीं रह सकते? इसलिये कि वह दो घड़ी के लिये ही भगवान की ओर जाते हैं। पर घर में उनका योग बना रहने के कारण से पुनः विषय सागर में कूद पड़ते हैं। उधर गये और यहाँ का योग छूटा ही नहीं, संसार का योग छूटा नहीं और भगवान में योग करने गये तो घड़ी आध घड़ी भगवान में जाकर के लगने की चेष्टा की, योग किया परन्तु यह अयोग हुआ नहीं था। इसलिये फिर विषय सागर में कूद पड़े। इस अयोग के बिना काम नहीं होता। अगर इन ध्याननिष्ठ, साधननिष्ठ लोगों का स्त्री, पुत्र, वित्तादि में सर्वथा अयोग हो गया होता तो साधनकाल में भगवान का योग नित्य बन जाय। उसमें कोई बाधा आवे ही नहीं। यह घर का, संसार का योग ही बार-बार वहाँ से खींचकर भगवान से वियोग कराता है और इसमें लगाता है।
इसलिये देह देहादि देह और देह के सम्बन्धी विषय इन सबसे अयोग हुए बिना भगवान की योग-स्फूर्ति ठीक-ठीक सिद्ध नहीं होती। अर्थात इनसे वियोग हुए बिना भगवान से संयार सिद्ध नहीं होता और होता भी है तो स्थायी नहीं होता औरों की बात तो छोड़ दे।ध्रुव, प्रह्लाद जिनके समान भगवान के भक्त कौन होंगे? भक्त शिरोमणि और इनकी जीवनी पर विचार करके देखिये। साक्षात भगवान के लीला विग्रह का योग सौभाग्य इन्हें प्राप्त हुआ किन्तु ये सम्पूर्ण रूप से विषयों से अयोग न होने के कारण फिर से राजकार्य में रत हो गये। ध्रुव तो लड़ाई करने चले गये। प्रह्लाद ने भी लड़ाई की। उसके बाद कई बार नर नारायण से लड़ाई हो गयी प्रह्लाद की। बड़ा भयानक युद्ध हुआ। जगत में अयोग न रहने के कारण इन भक्तों की भी जीवनी यद्यपि उनकी निष्ठा में अन्तर नहीं मानना चाहिये पर उनके जीवन के बाह्य कार्यों में जगत आ ही गया और जो भगवान का सम्पूर्ण भाव से योग था वह देखने में नहीं रहा उस समय।
इसलिये भगवान का योग जैसे भगवान की कृपा से ही साध्य है उसी प्रकार संसार के विषयों में अयोग भी इनकी कृपा से ही साध्य है। कोई कहे कि हम संसार के भोगों को पुरुषार्थ करके छोड़ दें तो इतने से आसक्ति हमारी छूटेगी नहीं। भगवान की कृपा ही इस योग को छुड़ायेगी और भगवान की कृपा ही उस संयोग में लगावेगी। रासलीला में श्रीभगवान का जो योग है-यह ऐसा हुआ कि भगवान के सिवा अन्यान्य समस्त प्राणि पदार्थ परिस्थिति में अयोग सिद्ध करने वाला हो गया। इस प्रकार की योगमाया और अयोगमाया-योग करने वाली कृपा और अयोग कराने वाली कृपा-इन दोनों कृपाओं का प्रकाश करके भगवान ने रमण की इच्छा की।अतएव इस रासलीला में भगवान ‘योगमायामुपाश्रितः’ भी हैं और अयोगमायामुपाश्रितः भी हैं।क्रमश:
Comments
Post a Comment