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श्रीरासपंचाध्यायी
अब योगमाया का आश्रय क्या? जगत में कोई भी असमर्थ व्यक्ति अपने किसी कार्य को सम्पन्न कराने के लिये किसी सक्षम समर्थ व्यक्ति का आश्रय करता है। क्या यहाँ भी वही बात है? भई! हम असमर्थ हैं तो किसी समर्थ का आश्रय ले तो क्या यहाँ पर भगवान ने वैसा आश्रय लिया? योगमाया भगवान की शक्ति-यह भगवान के आश्रित तो उसका भगवान ने आश्रय कैसे लिया? यह प्रश्न मन में आ जाते हैं शब्दों को देख करके। यहाँ योगमाया उपाश्रित है प्रकटीकृत। ‘भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ भगवान ने योगमाया शक्ति को प्रकट करके रमण करने की इच्छा की। यहाँ इस वक्तव्य का यह भाव है। जैसे सूर्य अपनी किरणमाला को प्रकाशित करके पूर्व गगन में उदय होते हैं और जिस ओर सूर्य की गति होती है उसी ओर किरणमालाओं का प्रकाश जाता है।इसी प्रकार भगवान भी अपनी योगमाया शक्ति का पूर्ण विकास करके गोप रमणियों के साथ रमण करने की इच्छा की और इस रमणलीला में जब जो जिस प्रकार प्रयोजन अघटनघटना पटीयसी अचिन्त्य महाशक्ति ने उस काम को कर दिया। इसीलिये ‘योगमाया आश्रितः’ न कह करके ‘उपाश्रितः’ कहा। यहाँ उपाश्रित शब्द का अर्थ है पूर्णरूप से प्रकट करना-प्रकाश करना - यश चक्षु आश्रित स्थितः - इस श्रुति वाक्य से आश्रित शब्द का प्रकाश अर्थ होता है।
सुतरां ‘योगमायामुपाश्रितः’ अर्थात प्रकटीकृतः यह अर्थ इसका मानना चाहिये। यह बात समझ में आयी कि श्रीभगवान ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध महाशक्ति के प्रकाश में रासलीला के माधुर्य की रक्षा नहीं कर सकते। केवल ऐश्वर्य शक्ति से उनका काम नहीं होता। इसलिये यहाँ योगमाया शक्ति का प्रकाश करना आवश्यक हुआ जो अघटन घटना घटा दे, जो भगवान को मोहित कर दे तभी भगवान आत्महारा अपने को खो सके, अपने को रखकर इस लीला का माधर्यु नहीं कर सकते। उनको अपने को खो देना आवश्यक था। ऐसा करके ही गोपियों के प्रेमवशानुरूप लीला करके उनके मनोवासना को पूर्ण करने में समर्थ हुये। भगवान ने अपनी परम मधुर रासलीला के सम्पादन करने के लिये अपनी अचिन्त्य महाशक्तियों को प्रकट किया और उसके सिवा कुछ और भी विशेषत्व प्रकाशित हुआ यहाँ पर। यह जो और विशेषत्व है यही एक मात्र ‘योगमायामुपाश्रितः’ इस विशेषण वाक्य के द्वारा सिद्ध है।
भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः
वीक्ष्यं रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः॥
यह रासपञ्चाध्यायी का पहला श्लोक है। योगमाया का क्या अभिप्राय है इसको विभिन्न सन्तों ने विभिन्न प्रकार से देखा और यह भगवान की योगमाया है इसलिये सभी को देखना ठीक है। योगमाया के जितने अर्थ हैं वे सभी समीचीन हैं और सभी यहाँ पर लागू होते हैं। भगवान ने अपनी परम मधुर रासलीला में जिस प्रकार अचिन्त्य महाशक्तिरूपा योगमाया का प्राकट्य किया उसी प्रकार से इसमें अन्यान्य विशेषताएँ और भी हैं। थोड़ा-सा उसका रस और ले लिया जाय तो ‘माया दम्भे कृपायां च’ वचनानुसार माया शब्द का अर्थ कृपा भी होता है। तो ‘योगमायामुपाश्रितः’ इस वाक्य का इसके अनुसार व्याख्या करें तो ‘योगे आत्मना सह मिलने या माया कृपा तामुपाश्रिता भगवान रन्तु मनश्चक्रे’ - श्रीभगवान ने श्रीगोपांगनाओं के साथ रमण करने की इच्छा की तब उन्होंने इस प्रकार की कृपा को प्रकट किया कि जिससे श्रीगोपांगनाओं के अबाध मिलन में कोई बन्धन न रहे।
भगवान के साथ मिलने के लिये कोई साधन यदि है तो भगवान की एकमात्र कृपा ही है। कोई मनुष्य कोई साधक यह चाहे कि भगवान की कृपा को बाँधकर अपनी शक्ति से हम भगवान से मिल लेंगे तो यह सम्भव नहीं है। कितना ही साधन किया जाय और किसी भी योग का आश्रय लिया जाय परन्तु भगवद्दर्शन, भगतव मिलन बिना भगवान की कृपा के कभी सम्भव नहीं है। यह सच्ची बात है कि भगवान में अपनी कृपा-वितरण में पक्षपात नहीं है। भगवान अपनी कृपा को बाँटने में कहीं पक्ष करते हों सो बात नहीं परन्तु भक्त की आकुल उत्कण्ठा के बिना नहीं होता है। भक्त अत्यन्त व्याकुल होकर जब उत्कण्ठित होता है भगवान से मिलने के लिये उस समय जैसा कृपा का प्राकट्य होता है वैसा अन्य समय नहीं होता है। कृपा सर्वदा है, सदा है पर आकुल-व्याकुल उत्कण्ठा में वह कृपा प्रकट होकर जितना कार्य करती है उतना कार्य साधारण दशा में नहीं करती है। भगवान की जितनी भी अन्य लीलायें हैं; उन सभी लीलाओं के पार्षदों में-जितने पार्षद आज तक लीला में हुये-श्रीगोपांगनाओं के साथ भगवान के मिलन में श्रीगोपांगनाओं के मन में जिस प्रकार की उत्कट उत्कण्ठा थी ऐसी कहीं आज तक हुई नहीं। इसलिये ऐसा मिलन कहीं नहीं हुआ। जैसे गन्ने में स्वभावतः ही रस परिपूर्ण है परन्तु जितना अधिक उसका पेषण होता है उसी परिमाण में रस निर्गत होता है। रस बाहर निकलता है।
गन्ने पर यदि कम जोर दिया जाय तो कम रस निकलेगा और बहुत अधिक पेषण किया जाय तो बहुत अधिक रस निकलेगा। तो भगवान की कृपा स्वभावतः परिपूर्ण होते हुए भी भक्त की सेवा की आकांशा जिस परिमाण में होगी उसी परिमाण में उस भक्त के सामने भगवान की कृपा का प्रकाश होगा। भक्त की सेवाकांक्षा-भक्त की भगवान की सेवा करने की आकांक्षा जिसकी जितनी जैसी होगी उसी के अनुसार कृपा का प्रकाश होगा। इन व्रजरमणियों जैसी श्रीकृष्ण के सेवा की आकांक्षा त्रिभुवन में आज तक कहीं नहीं हुई। इसीलिये भगवान की वैसी कृपा आज तक कहीं नहीं हुई।भगवान की कृपा के बिना कोई भी न उन्हें देख सकता है न उनसे मिल सकता है और न उनकी सेवा ही कर सकता है। भगवान की कृपा से ही देखने का, मिलने का, सेवा का अधिकार मिलता है-मनुष्य के साधन से नहीं। भगवान अनामनसगोचर है। भगवान को मन नहीं जान सकता। भगवान का बखान वाणी नहीं कर सकती भगवान इन हाथों से सेव्य नहीं होते तथापि अपनी कृपा से वे भक्तों के दृश्य बन जाते हैं वो भक्तों के वाच्य बन जाते हैं। भक्तों के भाग्य बन जाते हैं और भक्तों के सेव्य बन जाते हैं। भक्त उन्हें देख सकते हैं। भक्त उनका वर्णन कर सकते हैं। भक्त उनके सम्बन्ध में विचार कर सकते हैं और भक्त उनकी सेवा कर सकते हैं। यह सब बातें उनमें नहीं होने पर भी भक्त के लिये हो जाती हैं।
नित्याव्यक्तोपि भगवान ईक्षते शक्तितः
ताग्रते परमात्मानम् कः पश्यताम् विभो॥
(हनुमान प्रसाद पोद्दार)
क्रमश:
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