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श्रीरासपंचाध्यायी- हनुमानप्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण के विहार के लिये नवीन मन की दिव्य सृष्टि हुई। वह मन कहाँ से आया? गोपियों का जो मन था वह श्रीकृष्ण का मन बन गया।
यह सृष्टि की किसने? योगमाया ने। योगमाया के दो काम होते हैं माया के कई रूप हैं। एक योगमाया के द्वारा भगवान काम कराते हैं और एक योगमाया भगवान से काम कराती है। भगवान का जो प्राकट्य होता है वह और चीज है। यहाँ पर भगवान के इस रास में योगमाया की जो क्रिया है वह दूसरी है। योगमाया वहाँ सारा स्टेज बनाती है। मन बनाना, स्टेज बनाना, सारा योगमाया का काम। योगमाया को प्रकट करके यहाँ भगवान ने यह सब काम किया। भगवान की जो वंशी है वह कैसी है? इसमें जड़ को चेतन और चेतन को जड़, चल को अचल और अचल को चल बनाने की शक्ति है। विक्षिप्त को समाधिस्थ कर देती है। पागल आदमी जो नाच रहा हो वह वंशीध्वनि को सुनकर समाधिस्थ हो जायेगा और योगी जो समाधिस्थ बैठे हैं वे मुरली सुनते ही विक्षिप्त हो जायेंगे। भगवान का यह प्रेमदान हुआ गोपियों को। प्रेमदान को पाते ही गोपियाँ निश्चिन्त हो गयी थीं। जब तक प्रेम नहीं मिलता भगवान का और भगवान में राग नहीं होता तब तक निश्चिन्त नहीं हो सकता। चिन्ता तब तक मिट नहीं सकती।
गोपियों को मिला भगवान का प्रेमदान इससे गोपियाँ निश्चिन्त हो गयीं। वे घर के काम में लगीं थीं, निश्चिन्त होकर, घर के काम की चिन्ता नहीं। घर का काम गोपियों द्वारा हो रहा है और गोपियाँ निश्चिन्त हैं। यह उसमें लगी हुई थीं। कोई अर्थ में लगी थीं, कोई काम में लगी थीं और कोई मोक्ष साधन में लगी थीं। सब लगी हुई थीं अपने-अपने काम में पर उनमें से किसी पदार्थ की उनको चाह नहीं। किसी पदार्थ में उनकी आसक्ति नहीं। यह उनकी विशेषता थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि वंशीध्वनि सुनते ही कर्म की पूर्णता पर उनका ध्यान नहीं गया। वह रोटी बेल रही है और बेलकर तवे पर डालकर सेंककर चलें, कपड़ा पहन रहीं हैं तो पूरा पहनकर फिर चलें, बच्चे को दूध पिला रही हैं तो पूरा पिला दें तब चलें, ऐसा नहीं हुआ; कर्म की पूर्णता पर उनका ध्यान नहीं गया। काम पूरा करके चलने की बात उनके मन में नही आयी। क्यों? क्योंकि वे काम तो कर रहीं थीं। परन्तु उस काम में उनकी आसक्ति नहीं थी। काम की उनको चिन्ता नहीं। काम की पूर्णता उनका उद्देश्य नहीं। वे पदार्थ नहीं चाहती थीं यह उनकी विशेषता। तो वह चल पड़ी।
यह बड़ी सुन्दर समझने की चीज है कि एक चलना होता है किसी काम से और एक चलना होता है विषयासक्तशून्य संन्यासी का। बाबा (श्रीराधाबाबा) कहा करते थे कि हमारा जो यह काष्ठ मौन है यह अधूरा है। अपूर्ण है। काष्ठ मौन का वास्तविक स्वरूप होता है कि चल दे। कहाँ चल दें इसका पता नहीं। बस चल दे। गंगा के किनारे-किनारे चल पड़े। न कोई आसक्ति है न चलने का कोई अर्थ है। रास्तें में कहीं कपड़ा गिर पड़ा तो गिर पड़ा और शरीर जहाँ गिर पड़ा नींद के लिये तो नींद आ गयी, गिर पड़ा उठा फिर चल दिये। रास्ते में कोई रोटी सामने दे दी तो खा लिया।
इसलिये विषययासक्तिशून्य जैसे संन्यासी चलता है। उसके हृदय में वैराग्य की प्रदीप्त ज्वाला है, उसमें उसका सब भस्म हो गया। इस प्रकार यह गोपियाँ चलीं। इसका वर्णन आगे आयेगा। किसी ने काम नहीं पूरा किया। घरवालों से राय नहीं ली और जो गोपियाँ गयीं वे भी जाने की बात आपस में एक दूसरे से नहीं कही। हम जा रहे हैं साथ चलो, चलना है; नहीं। पूछताछ की, न बात की, न घर में पूछा, न कार्य पूरा किया, जो जैसे थी वह उसी रूप में चल दी। खा रही है और मुँह नहीं धोया तो नहीं धोया। कपड़ा पहन रही है तो, कमर का कपड़ा सिरपर ओढ़ लिया तो ओढ़ लिया। गहना पहन रही हैं उल्टा, हाथ का पैर में पहन लिया तो पहन लिया। इस प्रकार अस्त-व्यस्त गति से जो जैसे थी वह चल पड़ी।
गोपियाँ व्रज और श्रीकृष्ण के बीच में मूर्तिमान वैराग्य है या मूर्तिमान प्रेम-यह कहा नहीं जा सकता। जगत की दो चीजें-जगत की आसक्ति और जगत का काम-यह दोनों उनमें नहीं रहा। तो अब इनकी साधना क्या है? साधना के दो भेद हैं। एक होती है वैध साधना और एक होती है मर्यादा रहित अवैधी साधना। इन दोनों के अलग-अलग नियम होते हैं। वैध साधन में नियमों के बन्धन का, पद्धति का, कर्तव्यों का, धर्मो का विशेष ख्याल रहता है। इनका त्याग साधना को कष्ट करने वाला होता है। मान हानिकर होता है इसलिये वैध साधना के जो अधिकारी हैं उनका यह काम है कि किसी प्रकार से भी अवैध प्रेम साधना में न पड़े। वह वैध साधना का कलंक है, गिराने वाला है। इसलिये वैध साधना को आदमी छोड़ता नहीं है। लेकिन जब अवैध साधना आती है तो छूट जाता है।
यह जैसे नदी के पार पहुँचा हुआ आदमी नाव को छोड़ दे तो वह डूब जायगा। अवैध साधना का अर्थ है कि भगवान का प्रेम जिसे प्राप्त हो गया, जिसकी सारी वृत्तियाँ सहज स्वेच्छा से सदा-सर्वदा एकमात्र भगवान की ओर ही दौड़ने लगी उसके लिये फिर वैधता रहती नहीं। दूसरी चीज को वृत्ति पकड़ती नहीं, धारण करती नहीं, रखती नहीं इसलिये नियमपूर्वक कौन करे? नियमपूर्वक करने वाला जो संस्कारी रहा वह उस रूप में रहा नहीं तो ‘वेदान् उन्मूलयति’ - वेदों का उन्मूलन हो जाता है उस अवैध साधना में। आगे आयेगा कि मर्यादा के सेतु का भंग हो जाता है। पुल से पार हो गए और पुल टूट गया। मर्यादा-सेतु भंग हो गया।
यह गोपी जो हैं हम साधना के उच्च स्तर पर परम आदर्शरूप में थीं। इसीलिये वे घर-द्वार, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्म, भोग-मोक्ष सबको छोड़कर सबका उल्लंघन कर जो परधर्म स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण हैं उनको प्राप्त करने के लिये अभिसार किया। उनका पति-पुत्रों का त्याग धर्म का त्याग नहीं है। यह अवैध साधना के धर्म का पालन है। यहाँ पर ‘स्वधर्म’ है।
क्रमश:
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