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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवान शंकर ने हलाहल पी लिया, सब नहीं पी सकते। तीसरी बात एक और कही कि भगवान के सम्बन्ध में पहले यह जानना है कि भगवान कौन है? गोपियों के पतियों की आत्मा कौन है? भगवान हैं, इसलिये तुम इस पर सन्देह न करो। इस पञ्चाध्यायी को जो कोई भाव से सुनेगा, समझेगा उसके हृदयोद्वेग का नाश हो जायगा। फल बता दिया और कथा बन्द कर दिये।
इसलिये परीक्षित सरीखे लोगों के मन में भी यह प्राकृत राज्य की बात आ जाती है तो यह पहले समझ लेना है कि भगवान का जो शरीर है, वह कैसा है? हम लोगों के शरीर में तीन चीज हैं। एक तो यह बना है कर्म से, स्वेच्छाकृत नहीं है, दूसरे इसमें धातु है, पाञ्चभौतिक है, तीसरे यह जन्म और मरण वाला है। यह पाञ्चभौतिक है, कर्मजनित है और बनने-बिगड़ने वाला है। भगवान की देह ऐसी नहीं है। वह चिदानन्दघन है, पाञ्चभौतिक नहीं। वह नित्य है, अपनी इच्छा बनी हुई।
श्रीमद्भागवत में आया है - ‘स्वेच्छामयस्यन तु भूतमयस्य कोऽपि’
और
श्रीरामचरितमानस में आया है - चिदानन्दमय देह तुम्हारी, बिगत विकार जान अधिकारी।
इसलिये
यह सच्चिदानन्दमय है, पाञ्चभौतिक नहीं
यह जन्मने मरने वाली नहीं, यह प्रकट और अन्तर्धान होती है और
यह कर्मजन्य नहीं है, यह स्वेच्छामय है। यह नित्य शुद्ध सनातन भगवत्स्वरूप है।इसी प्रकार गोपियों की देह भी दिव्य जगत की, भगवान की स्वरूपभूत जो अन्तरंग शक्तियाँ हैं, उनसे उनका शरीर है। इसी प्रकार इनका सम्बन्ध भी चिन्मय है। यह उच्चतम भावराज्य की जो लीला है यह स्थूल शरीर और मन से परे की है।
इसकी प्रतीति होती है आवरण भंग होने की बाद। आवरण कहते हैं जैसे हमारे और किसी दूसरी चीज के बीच पर्दा पड़ा हुआ हो। इस पर्दे का नाम है आवरण। जब तक पर्दा है तब तक चीज स्पष्ट दिखाई नहीं देती है। यह आवरण भंग होने के पश्चात भगवान की स्वीकृति होती है। तब उसमें प्रवेश होता है।
भगवान का शरीर अस्थि, मज्जा, रक्त, मांसमय नहीं है। यह भगवान का शरीर जो है वह सच्चिदानन्दमय है और इसमें विशेषता क्या है? सच्चिदानन्दमय देह में आँख सूँघ सकती है, हाथ देख सकते हैं, कान खा सकते हैं, जीभ सुन सकती है। मतलब यह है कि भगवान चाहें तो हाथों से देख लें, आँखों से चलें, जीभ के बदले त्वक से स्वाद लें क्योंकि उनका सारा-का-सारा अंग अवयव दिव्य है। श्रीकृष्ण का सब कुछ श्रीकृष्ण है। क्योंकि सर्वथा वह पूर्णतम हैं और इसीलिये एक विशेष बात है भगवान के शरीर में। हम लोगों का जो शरीर है यह पहले छोटा बच्चा होता है, फिर बढ़ता है और बढ़कर फिर उसमें धीरे-धीरे विकास होता है फिर क्षय होता है लेकिन भगवान का शरीर तो पन्द्रह वर्ष तक बढ़ता है तथा पन्द्रह वर्ष बाद फिर बढ़ता नहीं’- ज्यों-का-त्यों रहता है। लेकिन उनके सौन्दर्य का उत्तरोत्तर विकास होता है।
सौन्दर्य का विकास होता है इसीलिये उनका जो रूप माधुर्य है यह प्रतिक्षण बढ़ने वाला है क्योंकि वह सच्चिदानन्दमय हैं विकासशील हैं- विनाशशील नहीं। हम लोंगो को जवानी के बाद बुढ़ापा आता है। बुढ़ापे के बाद मृत्यु होती है। जवानी का रूप बुढ़ापे में विकृत हो जाता है और मरने पर भयानक हो जाता है। लेकिन भगवान का जो स्वरूप सौन्दर्य है वह जवान नहीं होता है किशोर अवस्था में रहता है। पन्द्रह वर्ष से बड़ा नहीं होता है और इसके बाद उसका सौन्दर्य उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है। तो भगवान की रूप माधुरी नित्यवर्द्धनशील है और नित्य नवीन सौन्दर्यमयी है। उसमें ऐसा चमत्कार है कि औरों की बात छोड़ दें वह भगवान के अपने मन को आकर्षित कर लेती है। स्वमनमोहिनी उनकी सौन्दर्य माधुरी है। इसलिये इस विशुद्ध स्वरूप में किसी प्रकार की बुरी कामना नहीं करनी चाहिये, बुरे भाव नहीं करने चाहिये।
जब यह गोपी साधना पूरी हो गयी। आवरण भंग हो गया। तब भगवान ने अगली रात्रियों में उनको आश्वासन दे दिया। अब वह अगली रात्रियाँ कौन-सी हैं, यह बात भगवान की दृष्टि के सामने है। उन्होंने शारदीय रात्रियों को देखा - ‘वीक्ष्य।’ भगवान ने देखा इसका अर्थ क्या है? यह जरा कठिन विषय है। उपनिषद में आता है ‘स इच्छत’ एकोऽहं बहुस्याम्।’ भगवान जब सृजन करते हैं संसार का तो क्या करते हैं कि उनमें एक संकल्प होता है कि हमें खेलना है। खेलना अकेले में होता नहीं तब दूसरा संकल्प है ‘एकाकी न रमते’ अर्थात अकेले में रमण नहीं होता। तो क्या करें? ‘स इच्छत, एकोऽहम् बहुस्याम्’ - भगवान ने सृष्टि के प्रारम्भ में संकल्प किया, देखा कि मैं एक बहुत हो जाऊँ। ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’ ऐसी जहाँ इच्छा हुई तो जगत की उत्पत्ति हो गयी।भगवान के देखते ही जगत की उत्पत्ति हो गयी। वैसे ही बड़ी विचित्र बात है कि बसन्त में खिलने वाले तमाम पुष्प शरद में खिल गए। शरद की रात्रि बसन्त की रात्रियों से अधिक भावमयी हो गयी। भगवान ने देखा अर्थात रास के प्रारम्भ में भगवान के प्रेम वीक्षण से, प्रेमेक्षण से शरदकाल की दिव्य रात्रियाँ बन गयीं। इसीलिये वहाँ पर एक बड़ी सुन्दर चीज है समझने की। ‘ता रात्रीः’ कहा है भगवान ने। हम शरद पूर्णिमा की रात्रि को मनाते हैं रास-पूर्णिमा। वह एक रात्रि नहीं थी।
भगवान ने देखा तो अनेक रात्रियों की एक रात्रि हो गयी। अनेक दिव्य शरदकालीन रात्रियों की सृष्टि हो गयी देखते ही। मल्लिका पुष्प, चन्द्रिका इत्यादि जितनी भी उद्दीपन सामग्री वह सारी भगवान के द्वारा वेक्षित अर्थात लौकिक नहीं अप्राकृत - यह भाव दिखाया वेक्षित से कि भगवान ने देखा और उनके देखते ही वह अप्राकृत रात्रियों, अप्राकृत पुष्प, अप्राकृत चन्द्र की चाँदनी यह सब प्रकट हो गयी। अब क्या करें? इनके पास मन था नहीं। तो ‘मनश्चक्रे’ - भगवान ने मन का निर्माण किया। मन चाहिये और इनके पास अपना मन था नहीं तो गोपियों ने अपना-अपना मन इन्हें दे दिया। भगवान बिना मन के हैं। इनका मन जो है वह भी इनका स्वरूप है। मन में संकल्प-विकल्प होते हैं और ये संकल्प-विकल्प रहित हैं। भगवान को माना है - संकल्प शून्य। संकल्प शून्य मनवाला नहीं होता है। इनके पास अपना मन नहीं है इसलिये इन्होंने मन का निर्माण किया।
क्रमश:
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