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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवान के दिव्य धाम में जो प्रकृति है वह भी चिन्मय है। वहाँ सब कुछ चिन्मय है। वहाँ अचित की प्रतीति तो केवल भगवान की लीला सिद्धि के लिये होती है। इसलिये यों कहना चाहिये कि जड राज्य में रहने वाला जो हमारा मस्तिष्क है, यह जब भगवान की अप्राकृत लीलाओं के सम्बन्ध में विचार करने लगता है; तब वह अपनी पूर्व वासनानुसार जड़ राज्य की धारणाओं को, कल्पनाओं को, क्रियाओं को देखकर वैसा ही आरोप करता है। शायद यह बात समझ में न आयी हो।
यह हम लोग संसार में रहते हैं इस संसार में जड़ प्रकृति का ही सारा काम है। बच्चा खा रहा है तो हम देखेंगे कि यह बच्चा अन्न खा रहा है और प्राकृतिक अन्न खाना दीखता है परन्तु यही चीज जब भगवान में होती है तो भगवान खाने वाले इस बच्चे जैसे नहीं हैं उनका खाना ऐसा नहीं है। यह तो भगवान की उस लीला के लिये अचित्त की-जो चित्त नहीं है, जड है, उस जड़ की प्रतीति होती है, उस चेतन के विलास से।
इसका शास्त्रीय नाम है- ‘चिद्विलास में अचित्त की प्रतीति लीला हेतु से।’ भगवान के रास में भी हम देखते हैं कि स्त्रियाँ आती हैं, स्त्रियों से भगवान बोलते हैं, स्पर्श करते हैं, उनसे बातचीत होती है, छिप जाते हैं, उदय हो जाते है, जलकेलि होती है, क्रीडा होती है। हमारी धारणा में हमारे मस्तिष्क में यह जड़ राज्य बैठा हुआ है तो हम अपनी बुद्धि के अनुसार वहाँ भगवान में भी जडता की कल्पना करके हमारे इस लोक में जैसी चीजें होती हैं उन्हीं का भगवान में आरोप कर लेते हैं। इसलिये दिव्य लीला का जो छिपा हुआ रहस्य है उसे हम जान नहीं पाते- यह क्या है?
यह रस वस्तुतः एक परम उज्ज्वल रस का दिव्य प्रकाश है। तो यहाँ जड जगत की बात तो दूर रही, यह जो ज्ञान और विज्ञान का जगत है उसमें भी रास का प्राकट्य नहीं है। यही बड़ी विचित्र बात है कि जहाँ ज्ञान-विज्ञान प्रकट रहता है वहाँ पर प्रेम प्रकट नहीं होता और प्रेमराज्य के बिना रास नहीं होता। तो जहाँ रास है वहाँ ज्ञान-विज्ञान का जगत भी अप्रकट है। तो जड राज्य की बात ही क्या? बल्कि यहाँ तक कि जो साक्षात चिन्मय तत्त्व है- ब्रह्म। उस चिन्मय तत्त्व में भी इस परम दिव्य उज्ज्वल रस का लेशाभास भी नहीं होता। इस रस की जो स्फूर्ति है वह वहीं होती है जहाँ भगवान की आह्लादिनी शक्ति गोपी बनकर, राधा बनकर, अपनी काय-व्यूह रूपा सारी गोपियों के साथ जब क्रीडा करने में तत्पर होती है तब उन गोपियों के मधुर हृदय में ही इस भावमयी लीला की स्फूर्ति होती है, और कहीं होती नहीं।
इस रासलीला का यथार्थ स्वरूप और परम माधुर्य का आस्वाद तो उन्हीं को मिलता है जिन्हें गोपी-हृदय प्राप्त है। गोपी-हृदय के बिना रासलीला का समझना, कहना, सुनना यह भयावह होता है। न मालूम इसका कोई क्या अर्थ लगा ले। क्यों ऐसा होता है? इसलिये कि जैसे भगवान सच्चिदानन्दमय हैं इसी प्रकार ये गोपियाँ भी परम रसमयी और सच्चिदानन्दमयी ही हैं। यह इस प्रसंग में आया है इस पर बहुत-बहुत महात्माओं ने जो इस रस के जानने वाले हैं, उन्होंने विचार किया है। तो यहाँ गोपी शरीर जो है वह जड़ शरीर नहीं है। सच्चिदानन्दमय है। जिस सूक्ष्म देह से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और जो सूक्ष्म देह कैवल्य की प्राप्ति करता है वह सूक्ष्म देह भी यह नहीं है। जड़ता का यहाँ सर्वथा अभाव है।
इसलिये यहाँ उनकी दृष्टि में केवल चिदानन्दमय स्वरूप श्रीकृष्ण हैं और उनके हृदय में हैं श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत। बहुत सुन्दर प्रसंग है। इसमें सबसे पहले आया है- ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ - भगवान ने रमण की इच्छा की। तो भगवान की इच्छा को पूर्ण करना है यहाँ पर गोपियों को। गोपियों की इच्छा भगवान पूर्ण नहीं कर रहे हैं। भगवान की इच्छा को पूर्ण करना है श्रीगोपांगनाओं को। यहाँ क्या चीज है?
यहाँ गोपियों की दृष्टि में हैं सच्चिदानन्दमय श्रीकृष्ण और उनके हृदय में श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत। इसलिये यहाँ पर किसी प्रकार के काम का, कामना का लेश नहीं है। क्योंकि इस स्थिति में न स्थूल देह है, न उसकी स्मृति है, उन उस स्थूल देह से होने वाले अंग-संगादि की कल्पना है। यहाँ पर जो कुछ है वह भगवान का विशुद्ध अनुराग रस का प्राकट्य है।जिन लोगों ने गोपियों को पहचाना है, जिन लोगों ने गोपियों की चरण-धूलि का स्पर्श करने का अवसर पाया है वे ही लोग इस रहस्य को जानते हैं। यहाँ तक आया है कि ब्रह्मा जी, शंकर जी, उद्धव जी, नारद, अर्जुन ये सब-के-सब कोई महान देवता हैं, कोई सिद्ध पुरुष हैं, कोई भगवान के बड़े ऊँचे भक्त हैं। इन लोगों ने इस रहस्य को जानने की इच्छा की। तब इन लोगों ने उपासना की, गोपियों की उपासना की।
यह कथा पद्मपुराण में आती है। गोपियों की उपासना करने पर भगवान के चरणों में उपस्थित होकर इस रस को देखने की जब इन लोगों को आज्ञा मिली, वरदान मिला तब वे इस रस को जान सके। गोपियों के दिव्य भाव को साधारण स्त्री-पुरुषों के भाव जैसा मानना, यह गोपियों के और भगवान के प्रति अपराध है। गोपियों की इस रास-लीला को साधारण नर-नारियों की क्रीडा के समान मानना, इसको अपराध माना है और इसीलिये ऐसा कहा गया है कि रासपञ्चाध्यायी का श्रवण-मनन वह करे जो इस अप्राकृत दिव्य धाम में विश्वास रखता हो और इसी भावना से इसको सुनना, कहना चाहता हो; नहीं तो सुनने वाले को और कहने वाले को दोनों को पाप होगा। ऐसा वर्णन आता है।
इसलिये रास जब हुआ तो परीक्षित तक को सन्देह हो गया। परीक्षित तक ने रासपञ्चाध्यायी के अन्त में यह प्रश्न कर लिया कि भगवान ने यह क्यों किया? वह तो धर्म की रक्षा के लिये उत्पन्न हुए थे। तब शुकदेव जी ने यह प्रसंग वहीं पर बन्द कर दिया, केवल उसका उत्तर देकर कि भगवान की बात दूसरे आदमी नहीं सोच सकते।अग्नि सबको खा जाती है पर अग्नि पर किसी का स्पर्श नहीं होता।
क्रमश:
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