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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दूसरी बात यह है कि इसके श्रोता हैं महाराज परीक्षित; जो स्वयं वैराग्यवान हैं, मुमुक्षु हैं, धर्म को जानने वाले हैं और मृत्यु की प्रतीक्षा में बैठे हैं। मरण का समय है। उनकी सात दिन में मृत्यु हो जायेगी और चार दिन व्यतीत हो चुके हैं। मृत्यु आसन्न है। मृत्यु के समय कोई किसी को लौकिक बात सुनावें और वह सुने तो यह बनती नहीं। दूसरे बात सुनने वाले कोई ऐसे आदमी हों जो उलटी-सीधी बात भी सुन लें, ऐसे आदमी परीक्षित नहीं हैं।
इसमें भी और ऊँची बात यह है कि सुनाने वाले कौन? जो लड़कपन से विरक्त है। ब्रह्मविदों में वरिष्ठ, जो ब्रह्म को जानने वाले लोग हैं उन लोगों में भी जो सबसे ऊँचे परम योगी, जीवनमुक्त, सारे ऋषि-मुनियों के द्वारा जो पूजित हैं, जिनको देखकर ही तमाम ऋषि-मुनि आ गये। ऐसे शुकदेव जी महाराज बोलने वाले, परीक्षित सुनने वाले और तीसरी बात वहाँ श्रोता सारे-के-सारे त्यागी ऋषियों का, मुनियों का मण्डल। इसलिये यहाँ कोई लौकिक श्रृंगार की बात हो, यह सम्भव नहीं।भगवान की जो परम दिव्य अन्तरंग लीला है। वह लीला जो उनकी स्वरूपभूता राधा जी के साथ है। राधा जी क्या हैं? यह भगवान की जो आह्लादिनी शक्ति हैं, भगवान का जो आनन्दांश हैं वही राधा का श्रीविग्रह बना है और जितनी भी गोपियाँ हैं वे उन राधाजी की काय-व्यूह रूपा हैं। उन्हीं का यह सारा मण्डल है। श्रीकृष्ण प्रेममयी जो गोपांगनाएँ हैं उनके साथ जो भगवान की रसमयीलीला है- उसका वर्णन रास-पञ्चाध्यायी में है।
‘रास’ शब्द का मूल है रस। भगवान का उपनिषद में एक नाम आता है- रस ‘रसो वै सः’ रस जो है वह स्वयं भगवान का एक नाम है। श्रीकृष्ण ही स्वयं रस हैं। जिस एक दिव्य क्रीडा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में होकर अनन्त-अनन्त रस का रसास्वादन करे अर्थात एक ही रस रस-समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद, आस्वादक, लीला, धाम और विभिन्न आलम्बन और उद्दीपन के रूप में क्रीडा करे, उसका नाम रास है।
यह जरा समझने का विषय है कि भगवान स्वयं ही इस रस का स्वाद लेने वाले हैं, और स्वयं ही स्वाद हैं और स्वयं ही स्वाद की वस्तु हैं। आस्वाद, आस्वादक और आस्वाद्य एक ही रस इन अनेक रूपों में प्रकट होकर और स्वयं ही अपने-आप ही आलम्बन बनता है तथा अपने-आप ही उद्दीपन बनता है। यों बनकर जो क्रीडा करता है उसका नाम रास है। यह रास जो है यह भी लीलामय भगवान का ही स्वरूप है। यह रासलीला जो है- क्रीडा, यह क्रीडा भी भगवान का स्वरूप है। भगवान की दिव्य लीला जो भगवान का दिव्य धाम है वहाँ तो नित्य-निरन्तर हुआ ही करती है। रासलीला ही चला करती है। परन्तु भगवान की विशेष कृपा से कभी-कभी यह सारा-का-सारा दिव्य धाम इस भू-मण्डल पर उतर आता है।
इस वाराहकल्प में भगवान स्वयं जब यहाँ पधारे। भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य के जो प्रसंग हैं वे विभिन्न हैं। कभी भगवान विष्णु कृष्ण के अवतार के रूप में आते है। कभी कोई अंश भी कृष्ण के अवतार के रूप में आते हैं और इस वाराह कल्प में भगवान स्वयं, अपने-आप परात्पर जो परब्रह्म हैं, गोलोक-निवासी, वे स्वयं पधारे हैं। जब यह स्वयं पधारते हैं तो उनके साथ सारा-का-सारा मण्डल पधारता है। सबका अवतरण होता है। यह पधारते हैं क्यों? जब कोई इस तरह की परिस्थिति होती है तब जैसे जब वेद की ऋचाओं ने, ऋषियों ने, दण्डकारण्य के मुनियों ने इस प्रकार के वर प्राप्त कर लिये कि जिसके लिये भगवान को स्वयं पधारकर रासमण्डल में रास करना आवश्यक हो गया।असुर मारण लीला तो भगवान के विष्णु अवतार का कार्य है। जब स्वयं भगवान आये तो विष्णु भगवान भी इसमें समा गये। नारायण भी समा गये, भगवान में सितकेश कृष्ण भी समा गये। सारे अवतारों के कार्य भगवान के द्वारा ही हो गए। भगवान स्वयं ही भूमण्डल पर अवतीर्ण हुए और अवतीर्ण होकर उन्होंने यह लीला की। इस रासपञ्चाध्यायी में मानवीय भाषा में वर्णन है और वर्णन में वंशी ध्वनि है सबसे पहले, इसके बाद गोपियों का अभिसार है।
अभिसार कहते हैं भगवान का आवाह्न मिलने पर भगवान से मिलन के लिये जो चित्त में अत्यन्त व्यग्रता उत्पन्न होती है और वह व्यग्रता सब कुछ भुला देती है तो सब कुछ भूलकर भगवान से मिलने के लिये जो व्यग्र होकर दौड़ पड़ता है उसका नाम अभिसार है। पहले भगवान की वंशी ध्वनि होती है, उसके बाद गोपियों का अभिसार होता है, गोपियाँ निकल पड़ती हैं। फिर भगवान श्रीकृष्ण के साथ बातचीत होती है। दिव्य रमण हैं। राधाजी के साथ भगवान श्रीश्यामसुन्दर का अन्तर्धान है, फिर प्राकट्य है, फिर गोपियों के द्वारा दिये हुए वस्त्रासन पर भगवान का विराजना है, फिर गोपियों ने कूट प्रश्न किया है कि आप कौन हैं? उसका उत्तर है फिर रस-नृत्य है, क्रीड़ा है, जलकेलि है, वन-विहार है। उसके बाद शुकदेव और परीक्षित के प्रश्नोत्तर हैं, फिर इसकी समाप्ति है। इतने प्रसंग इसमें हैं। इसमें प्रसंग हैं मानवीय भाषा में ही परन्तु यह मानवीय क्रीड़ा नहीं है।
एक बात पहले यह समझने की है, रास पञ्चाध्यायी पर कुछ कहने से पहले इन चीजों को समझ लेना, जान लेना आवश्यक है कि भगवान का जो शरीर है यह जड़ नहीं है। भागवत में आया है कि-
‘स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि’
हमारे शरीर की भाँति भगवान का शरीर जड़ नहीं है। अस्थि, मज्जा, मेद इत्यादि से यह बना हुआ नहीं है। असल में तो जड की सत्ता ही नहीं है। जड़ की सत्ता है। यह होती है केवल जीव दृष्टि में। भगवान की दृष्टि में जड़ की सत्ता नहीं है। यह देह और यह देही है। इस प्रकार का जो भेद है यह भी प्रकृति के राज्य में होता है। भगवान प्रकृति से परे है, जो अप्राकृतिक लोक है उसकी प्रकृति भी अप्राकृत है, चिन्मयी है।हमारे यहाँ जिस प्रकृति से संसार का उदय होता है, संचालन होता है इसमें तीन गुण रहते हैं- सत्त्व, रज और तम। इन्हीं तीनों गुणों की लीला चलती है।
क्रमश:
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