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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
इस प्रकार भगवान को सुख देने वाले केवल भगवान को देने के लिये ही पैदा होते हैं। केवल प्रेमी देने वाले होते हैं बाकी सभी लेने वाले होते हैं। जिज्ञासु साधक जो हैं मुमुक्षु वह मोक्ष चाहता है। महाराज! हमको मोक्ष दे दो। छुटकारा मिल जाये बन्धन से। सकामी की तो बात ही क्या? और भोग चाहने वाले तो नरक के कीड़े। उनकी तो बात ही नहीं है।
जो गोपियाँ वहाँ पर गयीं वे भगवान को देने के लिये गयीं। अब भगवान को देकर उनको सुख मिलेगा। जब भगवान को दिया, भगवान को सुखी देखा तो अपने को परम सुख और उनको सुखी देखा तो भगवान को परम सुख। एक दूसरे को सुखी बनाकर सुखी होना - इसी का नाम ‘रास’ है। यह रास नित्य चलता है।
यह रास पूर्णिमा जो आज की है यह त्याग की पराकाष्ठा का रूप बताने वाली है, साधक का रूप बताने वाली है और सब तो बाधक हैं। जो भोगों में रहे वह बाधक और जो भोगों से हटे वह साधक। जो भोगों में रहता है वह अपने आपको बाधा देता है। सारे भोगों से हटकर, सारे भोगों का परित्याग करके भगवान के पवित्र आह्वान पर गोपियाँ अपने आपको ले गयीं वहाँ भगवान के श्रीचरणाविन्द में और वहाँ ले जाकर भगवान को सुखदान दिया। यह रास का स्वरूप हैं। ऐसे तो रास की बड़ी-बड़ी, ऐसी-ऐसी बातें हैं जो बातें कभी चुकती ही नहीं इसमें बहुत-बहुत ऊँचे दूसरे भाव हैं। जिन भावों के लिये न तो समय है, न अवकाश है और न पूरे जानते ही हैं।
इसलिये इतनी बात अपनी जानकारी के लिये, अपने लिये होनी चाहिये। वह यह है कि भगवान के लिये त्याग करें। विषय-भोग का त्याग करें। संसार की आसक्ति, ममता का त्याग करें। सारी आसक्ति, सारी ममता भगवान में जाकर के हमारी लग जाये। इतना हम गोपी भाव से ले लें, इतना ही हम रास से ले लें तो हमारा जीवन पवित्र हो जाय। फिर रासमण्डल में तो भगवान ले जायेंगे। वह तो कहीं उनकी इच्छा होगी या श्रीराधारानी की कहीं कृपा होगी वह किसी सखी-मञ्जरी से कह देंगी अपने लिये तो वह ले जायेगी। हम अपने पुरुषार्थ से नहीं जा सकते।
हमारा पुरुषार्थ जहाँ समाप्त होता है, वहाँ प्रेम का पाठ आरम्भ होता है। जहाँ चारों पुरुषार्थों की सीमा इधर रह जाती है वहाँ प्रेम की सीमा का प्रारम्भ होता है। यह गोपी प्रेम है और रास तो उसका एक प्रत्यक्ष पूर्ण-स्वरूप है। पूर्णतः प्रेम तो किसी को कह ही नहीं सकते। कहीं पूर्ण है ही नहीं। यहाँ तो सारा-का-सारा अपूर्ण रहता है। जितना मिला उतना ही थोड़ा। इस प्रेमराज्य में प्रवेश करने वालों के लिये यह गोपियों का उदाहरण है। श्रीकृष्णमानसा होकर वे श्रीकृष्ण के चरणों में अपने को समर्पित कर देते हैं कृष्ण को सुखी बनाने के लिये। यह गोपी भाव है।
पूर्ण त्यागमय सर्वसमर्पण का जिनके अनन्य अभिलाष।
निज सुख वाच्छा लेश गन्ध का त्याग, सहज मन परमोल्लास।
प्रियतम-सुख ही एकमात्र है जिनके जीवन का आनन्द।
पूर्णानन्द ममत्व नित्य प्रियतम पद पंकज में स्वच्छन्द।
प्रियतम मन से जिनका मन है, प्रियतम प्राणों से हैं प्राण।
प्रियतम सेवारत नित श्रवणेन्द्रिय त्वग् दृग रसना घ्राण।
नित्य कृष्ण-सेवा-रसरूपा सर्वसद्गुणों की जो खान।
सर्वसुखों के दाता को भी देती अहंरहित सुख दान।
ऐसी प्रियतम सुख स्वरूपिणी, कृष्ण गतात्मा निरहंकार।
गोपीजन, है भरा हृदय शुचि प्रेम सुधारस पारावार।
जिनके पावन प्रेमामृत रस आस्वादन के हित भगवान।
शरद-निशाओं में मधु मन कर निर्मित रचते रास विधान।
पुन्यमयी उन गोपीजन के पदरज में सतकोटि प्रणाम।
जिसे चाहते उद्धव बनकर लता गुल्म औषधि अभिराम।
ब्रह्मादिजयसंरूढ़दर्पकन्दर्पदर्पहा।
जयति श्रीपतिर्गोपीरासमण्डलमण्डितः।
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में पाँच अध्याय हैं 29 से 33 तक। इन पाँच अध्यायों के नाम हैं रास-पञ्चाध्यायी। इनमें भगवान की रास-लीला का प्रसंग है और ऐसा भागवत के विद्वान लोग मानते हैं कि सारे भागवत में जो भागवत शरीर है वह है दशम स्कन्ध और उसमें जो आत्मा है वह है रास-पञ्चाध्यायी। रासपञ्चाध्यायी को अगर भागवत में से निकाल दिया जाय तो भागवत आत्माविहीन रह जाती है ऐसा मानते हैं।
रासपञ्चाध्यायी में भगवान के जिस प्रेम रस तत्त्व का वर्णन है उसका सार, उसका जो परम तत्त्व है उसका सार बड़े उज्ज्वल रूप में प्रकाशित है। इसी को पंचप्राण भी कहते हैं। जैसे पंच प्राण होते हैं वैसे ही भागवत के पंचप्राण स्वरूप यह रासपन्चाध्यायी है। यह रासपञ्चाध्यायी है तो बड़े ऊँचे तत्त्व की चीज परन्तु इसमें वर्णन है श्रृंगारपरक। इसलिये भगवान की दिव्य लीला का भाव न समझकर केवल बाहरी दृष्टि से देखने पर इसमें केवल श्रृंगार रस की बात दिखाई देती है और मनुष्य को भ्रम हो जाता है। इसलिये शायद शुकदेवजी ने सबसे पहले रासपञ्चाध्यायी के श्लोक में ‘भगवान’ शब्द रखा।
भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्य रन्तु मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।
‘भगवानपि’- भगवान ने भी, ऐसा कहा कि- ‘भगवानपि शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ता रात्रीः वीक्ष्य योगमायामुपाश्रितः रन्तुं मनश्चक्रे’। शुकदेव जी ने कहा कि भगवान ने भी जिन रात्रियों में शारदीय मल्लिका पुष्प खिले हुए थे; उन रात्रियों को देखकर योगमाया को प्रकट करके रमण करने का मन किया, संकल्प किया। इसमें सबसे पहला शब्द आया है भगवान।
रास-पञ्चाध्यायी की बात सुनने के पहले यह समझ लेना चाहिये कि यह कोई कविता पाठ नहीं हो रहा है। यह भगवान की लीला है। भगवान की लीला समझकर पढ़ना, सुनना, कहना, यह रासपञ्चाध्यायी में सबसे पहले करना चाहिये। असल में इसके कोई लौकिक प्रसंग है भी नहीं। आगे आयेगा कि भगवान का एक नाम ‘मन्मथमन्मथ’ है। मन को मथ देता है जो कामदेव; उसके मन को यह मथने वाले हैं। तो काम में जो शक्ति पैदा होती है वह भगवान से होती है। जैसे लोहे का कोई पिण्ड हो और वह अग्नि में गरम कर दिया जाय तो वह सबको जला देगा परन्तु क्या अग्नि को जला सकता है। उसमें जो सबको जलाने की शक्ति है, वह तो अग्नि से ही आयी है। इसलिये अग्नि को नहीं जला सकता। इसी प्रकार काम में जो शक्ति है वह शक्ति आयी है भगवान से जो मन्मथमन्मथ हैं। भगवान में किसी प्रकार का कोई विकार आ जाय यह सम्भव नहीं।
क्रमश:
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