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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

बस, उसी के द्वारा ये सारे काम हुये। नहीं तो यह काम हो नहीं सकते। भगवान की यह लीला-रासलीला हुई योगमाया के प्रकाश में, योगमाया के द्वारा। अघटन क्या हुआ इसमें? अघटन क्या, जो कहीं कल्पना नहीं हो सकती, वह हुआ। भगवान का मायामुग्ध हो जाना ही अघटन घटना है।इसलिए भगवान अपने ऐश्वर्य वीर्यादि महाशक्ति के द्वारा जो अघटन करते हैं वह घटना भगवान को मोहित नहीं कर सकती। वह तो जगत में अघटन घटना करते हैं। विश्व को बना दें, बिगाड़ दें, कुछ भी कर दें। अघटन घटना हो जाय हमारी दृष्टि में, उससे भगवान मुग्ध नहीं होते। वह तो सावधान रहते हुये सब काम करते हैं परन्तु रासलीला में यदि भगवान स्वयं मुग्ध नहीं होते यदि वे जगत्पति होकर अपनी स्वरूपाशक्ति की घनीभूतमूर्ति गोपरमणियों के ‘उप’ सजकर लीला न करते तो इस अघटनघटनापटीयसी भगवान की स्वशक्ति का प्रकाश नहीं होता। भगवान ने अपनी माया से मुग्ध होकर गोपर मणियों में ‘पर’ भावना करके निभृत यमुना-पुलिन पर रासक्रीडा का रसास्वादन किया। रासलीला श्रीभगवान की आत्ममोहन लीला है।माया के तीन कार्य हुये-
विमुखमोहन
उन्मुखमोहन और
आत्ममोहन।

यह रासलीला ही एक ऐसी है जहाँ भगवान का आत्ममोहन देखा जाता है। तथापि रासलीला-सम्पादन के लिये यह नहीं कि यह नयी शक्ति बनी है। भगवान की आत्ममोहिनी शक्ति उनमें वर्तमान हैं जब चाहें अपने को मोहित कर लें जैसे चद्दर पास हो तो ओढ़कर सो जाय पर हमेशा ओढ़ने की जरूरत न हो तो सुरक्षित रख दें। इसी प्रकार उनकी अपनी योगमाया है, अपनी आत्ममोहिनी शक्ति है। जब चाहें अपने आपको विमोहित कर लें। तो ‘योगमायामुपाश्रितः’ इसका अर्थ यह है कि ऐश्वर्यादि षडविध महाशक्ति निकेतन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी अपनी अघटन घटना पटीयसी आत्मविमोहिनी योगमाया शक्ति का पूर्ण विकास करते हैं और अपनी अद्वितीय मुख्य स्वरूपा अभिन्न व्रजरमणियों के साथ रासक्रीडा करने की इच्छा करते हैं। यही ‘भगवानपि ता रात्रीः..................... योगमायामुपाश्रितः’ की अभिसंवादिनी व्याख्या है।श्रीभगवान अपनी माया से स्वयं मुग्ध होकर ऐसी लीला करते हैं। यह बात सुनकर जो बहुत अधिक बुद्धिवादी लोग हैं वे शायद इसको ठीक कल्पना समझें। वह कहेंगे कि भगवान अपनी माया से आप मुग्ध हो जाय यह कोई काम की बात नहीं, यह तो एक नयी कल्पना है लेकिन यह कल्पना नहीं है। मारकण्डेय पुराण में, देवीभागवत में आता है कि महाप्रलय के समय शेषशायी नारायण योगमाया से अभिभूत होकर शेषशय्या पर सो गये-योगनिद्रा से अभिभूत हो करके। योगनिद्रा भगवान को अचेतन करके निद्रा में रखें। यह क्या कोई दूसरी नींद है, माया की नींद है? यह भगवान की शक्ति ही है-
विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥

यह विश्वेश्वरी जगज्जननी संहारकारिणी भगवती विष्णु माया का स्तवन करते हुए ब्रह्मा जी ने ऐसा कहा। शेषशायी नारायण जिस योग निद्रा से निवृत्त हुए वह उन्हीं की एक शक्ति थी। यह मनना पड़ेगा। महाप्रलय के समय अपनी शक्ति-योगनिद्रा से जो स्वयं निद्रित हो सकते है वे अपनी रासलीला में अपनी शक्ति से अपने आपको मुग्ध कर लें इसमें कौन ऐसी बड़ी बात। तुम कहते हो कि भगवान ऐसा नहीं कर सकते तो भगवान की शक्ति सीमित कर दी। बहिर्मुख जीवों को अविद्या संसारबन्धन से बद्ध करती है और योगनिद्रा से शेषशायी नारायण को निद्रित रखती है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह शक्ति भगवान से बड़ी है। भई! किसी स्वामी ने दासी से कहा कि देखो! हम सोते हैं जरा और तुम हवा करो जिससे हमें नींद आ जाय और अमुक समय हमें जगा देना। तो नींद दिलाने वाली तो उनकी दासी है कि उनकी मालकिन है। तो यह भगवान की शक्ति। यही त्रिविकार्य सम्पादन करने में विद्या-अविद्या और योगनिन्द्रा, विमुखमोहिनी और भक्तमोहिनी, उन्मुखमोहिनी और आत्ममोहिनी की भूमिका है। यह माया है। भगवान में विद्या सर्वत्र है। आदमी अविद्या से भी विमोहित होता है। योगनिद्रा उनकी अपनी है जो वह काम करती है। तो मारकण्डेय पुराण में है कि चित्स्वरूप श्रीभगवान की ऐश्वर्यादि षडविध महाशक्ति में कोई दूसरा अद्भुत कार्य संघटन हो जाय तभी वह अघटन घटना होती है तो भगवान जो चित्स्वरूप हैं उनको अचेतन कौन करे? उनको जो अचेतन कर सकती है वह भगवान की अपनी लीला है, अपनी ही माया है। दूसरी कोई नहीं। इसलिये अचिन्त्य महाशक्तियों को मानना पड़ता है। यही अचिन्त्य महाशक्ति ही योगमाया और उसी का यह सारा का सारा काम है।इस प्रकार यह कार्य जानकर-एक बात और देख लेनी है कि शक्ति और शक्तिमान में तत्त्वतः कोई भेद नहीं है किन्तु शक्तिमान और शक्ति में आधार आधेय के भाव से मुख्य और गौण भाव हैं अवश्य क्योंकि शक्ति ही शक्तिमान के आश्रय रहती हैं और शक्तिमात्र ही शक्तिमान की सेवा भी करती है। हमारी दर्शनशक्ति देखने की शक्ति, हमारी श्रवण शक्ति, ये शक्तियाँ जैसे द्रव्य और श्रव्य वस्तुओं को दिखाकर और सुनाकर हमारी सेवा करती हैं, इसी प्रकार भगवान की अनन्त शक्तियाँ उनके अनन्त कार्यों को सम्पन्न करती हुई उनकी सेवा में लगी रहती हैं। जैसे जगत में दर्शनशक्तिहीन,जिसमें देखने की शक्त्ति नहीं, सुनने की शक्ति नहीं, चलने की शक्ति नहीं-गमनशक्तिहीन, वाक्शक्तिहीन-बोलने की शक्ति नहीं, ऐसे व्यक्ति देखे जाते हैं। परन्तु कहीं बताओ कि व्यक्तिहीन दर्शनशक्ति हो। कहीं व्यक्तिहीन श्रवणशक्ति हो। माने व्यक्ति में चाहे श्रवणशक्ति हो या न हो किन्तु व्यक्ति के बिना श्रवणशक्ति कहीं रहती नहीं। इसीलिये शक्ति और शक्तिमान का तत्त्वतः भेद न होने पर भी, दोनों एक होने पर भी शक्तिमान मुख्य है और शक्ति उसकी अपेक्षा गौण है।

भगवान की योगमाया शक्ति जो भगवान को मुग्ध करती है वह भगवान से बड़ी नहीं है। भगवान की ही शक्ति है। जो लोग केवल शक्ति को ही बड़ी कहते हैं वह शक्तिमान को भूलकर शक्ति का प्राण ही निकाल लेते हैं। आधार ही नहीं रहेगा तो वस्तु रहेगी कहाँ? शक्तिमान अगर न रहे तो शक्ति को ढूँढ़ निकालना बहुत मुश्किल होगा। अतएव शक्ति और शक्तिमान तत्त्वतः अभिन्न होने पर भी शक्ति ही शक्तिमान के आश्रित है और यह मानने पर ही अनन्त शक्तिमान भगवान के लीलारस सिन्धु में अवगाहन होना सम्भव है। नहीं तो ऊपर-ऊपर आदमी घूता है और डुबकी नहीं लगाता है।’योगमायामुपाश्रितः’ इस श्लोकांश को देखने पर यह मालूम होता है कि भगवान ने योगमाया का आश्रय करके स्वरूपानन्द के साथ रमण करने की इच्छा की।क्रमश:

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