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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

अतरंगा माया भक्तों को अन्तरंग में ले जाती है। भगवान के रहस्यमय रंगमहल में ले आती है। लीला क्षेत्र में ले आती है और बहिर्मुख मोहिनी माया जो बहिरंगा माया है यह जगत् में भरमाती है और भगवान में शरणागति के बिना इस माया से छुटकारा नहीं मिल सकता।भगवान अपने भक्तों को अन्तरंगा माया से मुग्ध करके उनके प्रेमानुरूप लीला करते हैं। उनकी मनोवासना पूर्ण करते हैं परन्तु रासलीला में एक और विशेषता है। कहते है कि इस लीला में भगवान केवल अपने भक्तों को ही मायामुग्ध करके लीला के सौष्ठव को सम्पादन करने में समर्थ नहीं हुए-इस लीला में उन्होंने अपने को भी मायामुग्ध किया।

मो-विषये गोपीगणेर उपपति भावे
योगमाया करिवेक आपन प्रभावे॥
यह बड़ा सुन्दर भाव है। योगमाया से यह कार्य हुआ कि भगवान ने भी अपने को कुछ और ही समझा-

अमिह ना जानि ताहा, न जाने गोपीगण
दोंहार रूप-गुणे दोंहार नित्य हरे मन॥
धर्म छांड़ि रागे दोंहे करये मिलन
कभु मिले, कभु ना मिले, दैवेर घटन॥
एइ सब रसनिर्यास करिव आस्वाद
एइ द्वारे करिब सर्वभक्तेरे प्रसाद॥
ब्रजेर निर्मल राग शुनि भक्तगण
रागमार्गे भजे येन छाड़ि धर्म कर्म॥

बड़ी सुन्दर भावना है कि अब उनमें से एक जानने वाला हो जाय, एक ज्ञाता हो जाय और एक अज्ञान रहे तो वह ऐसी माया होगी जैसे समझदार आदमी बच्चों के साथ बच्चों की-सी बात करे और वास्तव में बच्चों का-सा उसमें भाव रहे नहीं। उसमें जैसे दो बच्चे आपस में मौज से खेलते हैं- यह बात नहीं आती। सयाना आदमी बच्चा बनकर खेलता है। वह सयाना रहता है और बच्चों की भाँति चेष्टा करता है पर उस बच्चे के समान मन नहीं होता।

भगवान यदि अपने को भगवान जानते रहें तो भगवान को भगवान न जानने वाली गोपियों के साथ भगवान का रमण ठीक-ठीक रस-निष्पत्ति करने वाला न होता। इसलिये भगवान कहते हैं कि न तो मैं जानता हूँ अपने को, कि मैं कौन हूँ और न गोपियाँ जानती हैं अपने को-आत्महारा वो और आत्महारा मैं। लेकिन दोनों के रूप-गुणों पर नित्य विमुग्ध हैं और दोनों ही लोकधर्म, वेदधर्म इत्यादि का परित्याग करने मिलन और वियोग के तट पर खेला करते हैं। भगवान कहते हैं कि मायामुग्ध मैं और मायामुग्ध भक्त-यह दोनों ही मेरे अपने स्वरूप हैं। मैं ही मायामुग्ध भक्त हूँ और मैं ही मायामुग्ध भगवान हूँ। क्योंकि यह लीला भगवान के अतिक्ति और कहीं हो ही नहीं सकती। कहीं और हो तो भगवान माया मुग्ध होते नहीं। यह एक ऐसी चीज है कि भगवान का प्रकाश जहाँ आया वहीं माया हट जाती है। यह माया का जो कार्य है यह वहीं पर होता है जहाँ भगवान नहीं है।

भगवान कहाँ नहीं है? भगवान क्यों नहीं है? एक बहिर्मुख और एक सन्मुख हो तो काम नहीं चलता। इसलिये माया को हटाने का कोई प्रश्न आवे ही नहीं। हम दो रूपों में अपनी माया से मुग्ध होकर अपने आप खेलते रहें। इस प्रकार से यह भगवान की लीला है। जो यह भगवान की लीला है, इस लीला में केवल गोपीजन ही मुग्ध नहीं हैं। जिससे गोपीजन मुग्ध हैं उसका नाम है भक्त मनमोहिनी माया और जिससे भगवान स्वयं मुग्ध हैं यह है स्वमनमोहिनी माया। अब अन्तरंगा माया के दो भेद हुए-एक भक्तमनमोहिनी और एक स्वमनमोहिनी। यह दोनों अन्तरंगा माया ही योगशक्ति है और यही सारे कार्यों को ठीक-ठीक करती रहती है। गोपियों ने जाना कि भगवान उपपति हैं। यह जानने में कोई आपत्ति नहीं क्योंकि वो तो अन्तरंगामाया से मुग्ध हैं और-

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः।
यह जो गोपियाँ हैं यह कहती हैं कि हम सबका परित्याग करके आपके समीप आयी हैं और भगवान भी उनको सामने देखकर- ‘जुगुप्सितं च सर्वत्र औपपत्यं कुलस्त्रियाः’ इत्यादि कार्यो से विरत होने का उपदेश करते हैं। अतएव भगवान भी गोपियों का परवधू ही जानते हैं। मायामुग्ध है नहीं; सब अपना ही रूप हैं। इससे यह बात सिद्ध होती है कि श्रीरासलीला में भगवान की ही एक मात्र अनन्य अन्तरंग लीला होने पर भी भगवान समझकर ये चीज नहीं हुई। इसीलिये ‘ज्ञानविद्धा संगता’ आगे चीज आयेगी इस सिद्धि के लिये।

इसमें कुछ ऐसे विषय भी हैं कि उन सबको कहने में भी गड़बड़ होती है मन में और खुलता भी नहीं है कहे बिना। कहते हैं कि निभृत-यमुना पुलिन पर गंभीर रजनी में यह लीला क्यों होती है? अगर यह भाव न होता भगवान का तो यह लीला घर के आँगन में खूब मजे में होती। या वे इच्छा करते तो अपनी ऐश्वर्य शक्ति के प्रकाश के द्वारा रासलीला चाहे जैसे कर सकते थे। सब जगह वह अन्धकार फैला देते और कोई जान भी नहीं पाता। भगवान यह सब न करके श्रीगोपांगनाओं के प्रेमानुरूप भाव से वह जैसे ‘उप’ मानती हैं इसी प्रकार ‘पर’ मानते हुए और स्वयं सर्वजगत्पति सर्वान्तरात्मा, जीव मात्र के नित्य आत्मा सबके अन्तरात्मा के स्वरूप ने ‘उप’ के भाव से ‘उप’ की तरह से अति गोपन निभृत-यमुना-पुलिन पर रासक्रीडा की। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि भगवान के साथ विविध मधुरोचित लीला-विहारादि करके उनका आनन्द वर्धन करने के लिये ही गोपियों को भगवान ने मायामुग्ध किया और स्वयं भी मायामुग्ध हुये। श्रीभगवान ने भी गोपियों की प्रेमोचित सेवा ग्रहण करने के लिये अपने को मायामुग्ध कर लिया अन्यथा गोपियों की मनोभावोचित सेवा कभी नहीं होती।इसलिये भगवान ने अपनी माया से आत्ममुग्ध हेाकर यह काम किया। बहिर्मुख जीवों को मोहित करने के लिये जैसे भगवान की बहिरंगा माया और भक्तों को मोहित करने के लिये जैसे भगवान की अन्तरंगा माया का अस्तित्व सिद्ध होता है उसी प्रकार भगवान को भी अपने माया से मुग्ध होते देखा जाता है और यह अन्तरंग माया का ही एक स्वरूप है कि जिसमें भगवान स्वयं मुग्ध हो जाते हैं।

‘भगवानपि ता रात्रीः............ योगमायामुपाश्रितः’ इत्यादि श्लोकों में योगमाया जो विशेषण दिया यह भगवान की अभिन्न माया ही है। यह योगशक्ति है। इस माया से मोहित होकर गोपियों ने सर्वजगतपति भगवान को ‘उप’ माना और भगवान में भी गोपियों के प्रेम के अनुरूप ही स्वयं सर्वात्मक होते हुए भी उनको ‘पर’ माना। श्रीपाद् सनातनगोस्वामीजी, जीवगोस्वामी इत्यादि वैष्णवाचार्यो ने योगमाया का यहाँ बताया अघटनघटनापटीयसी स्वयं शक्त जो भगवान के इंगित पर ही भगवान की इच्छा के अनुसार कार्य करती है।क्रमश:

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