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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

जो अन्तर्मुख हैं उनकी सारी प्रीति, सारा प्रेम रहता है भगवत-चरणों में समर्पित और जो बहिर्मुख जीव हैं उनकी वृत्ति, उनकी प्रीति, उनका स्नेह, उनकी आसक्ति रहती है घर में, पुत्रों में, घर की चीजों में, सामान में, मकान में, जमीन में और जिनको सन्तान मानते हैं उनमें।बलदेवजी ने देखा कि ये तो बहिर्मुख जीव है नहीं। यह हैं तो भगवान के सारे-के-सारे सेवक तो आज ये गायें और ये गोपांगनाएँ अपने बालकों से और अपने बछड़ों से प्रेम कैसे करनी लगीं? यह किसकी माया से मुग्ध हैं। यह बलदेवजी के मन में आया। क्यों यह शंका आयी? इसलिये कि श्रीकृष्ण भक्त माया से मुग्ध होते नहीं। यह बहिर्मुख जीव तो माया से मुग्ध होते हैं और भगवान के जो भक्त हैं उन पर यहाँ की चीज है। व्रज के रहस्य को समझने के लिये यह देखना है कि जो यहाँ की माया से बद्ध है, जो यहाँ की माया के वशीभूत हैं, जो यहाँ के पदार्थों में, प्राणियों में आसक्ति-प्रीति रखते हैं वो मायिक जीव कृष्ण भक्त ही नहीं है। जो कृष्ण भक्त हैं वे इस माया से मुग्ध होते नहीं। इस माया से परे रहते हैं। क्यों? चैतन्य महाप्रभु के जीवन में है-

कृष्ण सूर्य्यसम माया हय अन्धकार।
जाहां कृष्ण ताहां नाहि मायार अधिकार॥

श्रीकृष्ण मानों सूर्य हैं और माया मानो घोर अन्धकार है। जहाँ कृष्ण है वहाँ माया का अधिकार रहता नहीं। अगर माया का अधिकार है तो कृष्ण वहाँ हैं ही नहीं। जिस जीव के जीवन में, मन में कृष्ण बस गये उस जीव के जीवन में माया रहेगी नहीं और माया नहीं रहेगी तो बहिर्मुख जीवों की भाँति उनकी इन मायिक पदार्थों में प्रेम आसक्ति रहेगी नहीं। यह सिद्धान्त है। आज यहाँ यदि मायामुग्ध जीवों की भाँति इनमें जो मोह दीखता है आज तो मालूम देता है कि किसी की माया से ये मुग्ध है। तो भई! ऐसी कौन-सी संसार में माया है जो भक्तों को मुग्ध करे? सोचा बलदेव जी ने बस! ध्यान में आ गयी बात। यह सर्वेश्वर श्रीकृष्ण की माया से मुग्ध हैं और उन्हीं की माया से मैं भी मुग्ध हूँ। बस! इसके बाद कुछ बोलने की बात नहीं। यह बलदेवजी के वाक्य हैं।

केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी।
प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी॥
भगवान की इस लीला पर विचार करने से यह देखा जाता है कि उनकी माया उनके चरणों में एकान्त शरणागत और निरन्तर उनके सेवा-परायण रहने वाले भक्तों में भी मोह पैदा कर देती है। तब यह स्वीकार करना पड़ता है कि भगवान की माया से उनके चरणाश्रित और चरण सेवन विमुख दोनों प्रकार के लोग तो मायामुग्ध या मोहित होते हैं। तो माया के दो रूप हुए-उन्मुख मोहिनी और विमुख मोहिनी। जो भगवान के सन्मुख है उनको मोहित करने वाली और जो भगवान से विमुख हैं उनको मोहित करने वाली। माया की दो वृत्तियाँ हुई-उन्मुख मोहिनी वृत्ति और विमुख मोहिनी वृत्ति। यह भगवान की दो प्रकार की माया है। दो प्रकार का भेद स्वीकार कर लेने के बाद सिद्ध हो जाता है कि - मायामेतां तरन्ति ते-मामेव ये प्रपद्यन्ते’

यह विमुख मोहिनी माया है।
तो भगवान की यह माया किनको मोहित करती है?

‘कृष्ण’ भूलि सेइ जीव, अनादि-बहिर्मुख।
अतएव माया तारे देय संसार-दुःख॥
श्रीकृष्ण को भूलकर अनादिकाल से यह जीव बहिर्मुख हो रहा है। इसी से यह माया में आबद्ध होकर संसार के दुःखों में पड़ा रहता है लेकिन
ताते कृष्ण भजे, करे गुरुर सेवन।
माया जाल छुटे, पाये कृष्णेर चरण॥
सीधी बात जो श्रीकृष्ण को भजे और श्री गुरु के चरणों का सेवन करे वह माया मुक्त हो जाता है। गुरु वह जो श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दे। नहीं तो गुरु होते हैं केवल भार। श्रीकृष्ण के चरणों में जाते ही माया का जाल छूट जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो कृष्ण बहिर्मुख हैं वे ही नाना प्रकार से माया से पराभूत होते हैं और कृष्ण चरण का भजन करने से उनकी माया से मुक्ति हो जाती है। किन्तु जो भगवान के चरणों में शरणागत हैं एवं सेवा परायण हैं, उन लोगों का इस विमुख मोहिनी माया से कोई सम्बन्ध नहीं है। वे लोग जो हैं-भगवान के चरणाश्रित भक्त वे सेवा करने की इच्छा करते हैं तो क्या होता है कि अपनी इच्छानुसार सेवा कराने के लिये भगवान स्वयं उन्मुख मोहिनी माया से उन जीवों को मुग्ध कर लेते हैं। उनके सन्मुख हुए है न? अब उनको मुग्ध करना और तरह का है। वे तो संसार में फँसे और ये भगवान में फँसे। भगवान अपने में उनको फँसा लेने के लिये अपनी उन्मुख मोहिनी माया से उनको मुग्ध कर लेते हैं।

मुग्ध क्या करना है? जैसे किसी ने भगवान को बेटा समझा, यह भी उन्मुख मोहिनी माया है यह भी नहीं तो वह चराचर जगत्पति जो स्वयं भगवान नित्य सच्चिदानन्दघन हैं, उनको बेटा समझा। क्यों बेटा समझे? क्योंकि लीला कार्य की संगता के लिये उन्मुख मोहिनी माया की आवश्यकता हुई। किसी ने बेटा समझा, किसी ने सखा समझा, किसी ने प्राणवल्लभ समझा और ठीक इन्हीं के भावों से भगवान के साथ व्यवहार किया। अगर यह माया बीच में न होती, शक्ति न होती तो न कोई बेटा समझता, न बाप समझता और यह लीला होती ही नहीं। लीला की संगता के लिये उन्मुख मोहिनी लीला की आवश्यकता है। किसी के बेटे बन गये, किसी को बाप बना लिया। बेटा-बाप में योग शक्ति ने हो-योगेश्वर का प्राकट्य न हो तो यह लीला सम्पन्न होती नहीं। इसलिये भगवान ने उन्मुख मोहिनी माया से अपने भक्तों के प्रेमानुरूप उनकी सेवा ग्रहण करने के लिये उनको माया से मुग्ध किया और उनकी मनोवासना को पूर्ण किया। भगवान की माया से उनके चरणाश्रित और बहिर्मुख दोनों ही प्रकार के जीव मोहित होते हैं।
इसलिये भक्तों ने, आचार्यों ने और प्रेमी संतों ने यह कहा कि जो भक्त मोहिनी माया है वह भगवान की अन्तरंगा माया है और जो बहिर्मुख मोहिनी माया है वह भगवान की बहिरंगा माया है। यह भगवान की है दोनों ही माया। माया के दो भेद हुए एक अन्तरंगा माया, एक बहिरंगा माया।
क्रमश:

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