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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीभगवान ने व्रजलीला में वात्सल्य-सख्य रसास्वादन के बाद जब परम प्रेमवती व्रजरमणियों के मधुर रसास्वादन का विचार किया, उसमें जब प्रवृत्त हुये तब योगमाया शक्ति का पूर्ण विकास कर दिया-मुपाश्रितः अर्थात प्रकाश। भगवान ने अपनी अचिन्त्य महाशक्ति को इशारा किया कि पूर्ण रूप से प्रकट होकर इस लीला में पूरा-पूरा, सारा-का-सारा जहाँ जो आवश्यक है उसको तुम ठीक करो। तो भगवान ने अपनी रासलीला में सब प्रकार अघटन-संघटन कराने के लिये अचिन्त्य महाशक्तिरूपा योगमाया शक्ति को प्रकाश किया। यहाँ पर अब कई बातें मन में उदित हो जाती हैं। जो इस रहस्य में प्रवेश करते हैं उनके हृदय में भगवान नाना प्रकार की अर्थ की भावना उत्पन्न करते हैं। शास्त्रों में प्रधानरूप से दो प्रकार की शक्ति-माया और योगमाया का वर्णन है। यों तो अनेक भेद हैं।

‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायायासमावृतः’
और
दैवी ह्मेषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
इन दो गीता-वचनों में योगमाया और माया; इन दो मायाओं के नाम आते हैं और उन दोनों के कार्यों के परिचय में भी कुछ विभिन्नता दिखाई पड़ती है। योगमाया के परिचय में यह बात सामने आयी कि श्रीभगवान योगमाया से समावृत हो जाते हैं इसलिये उन्हें सब नहीं जान पाते। किन्तु माया का परिचय तो जानने में आता है। माया त्रिगुणमयी है और दुरत्यया है। योगमाया के लिये यह नहीं कहा कि यह गुणमयी है या दुरत्यया है। एकमात्र भगवान के श्रीचरणों में जो शरणागत हैं वे ही उस त्रिगुणमयी दुरत्या माया से उत्तीर्ण हो सकते हैं। भागवत में भी इस प्रकार के शब्द आते हैं।

अपश्यत्पुरुषं पूर्व मायां तद्पाश्रयाम्।
यया सम्मोहितो जीव आत्मानं त्रिगुणात्मकम्।
परोऽपि मनुतेऽनर्थ तत्कृतं चाभिपद्यते॥
वेद व्यास जी पूर्ण पुरुष स्वयं भगवान और उनकी आश्रित माया का दर्शन करते हैं। जगत के जीवगण इस त्रिगुणात्मिका माया से अतीत होकर भी-इस माया के प्रभाव से त्रिगुणात्मक देह-गेहादि-अभिमान में बद्ध होते हैं और विविध प्रकार के दुःख-दैन्यादि को भोगते हैं। ब्रह्मा जी ने स्तुति में कहा-
को वेत्ति भुमन् भगवन् परात्मन्
योगेश्वरोतीर्भवतस्त्रिलोक्याम्।
क्व वा कथं वा कति वा कदेति
विस्तारयन् क्रीडसि योगमायाम्॥
हे अपरिछिन्न! हे भगवान! हे षडऐश्वर्यशालिन! हे परात्मन! हे योगेश्वर! तीनों लोकों में किसी के लिये भी आपकी लीला का तत्त्व जान लेना सम्भव नहीं। क्योंकि आप कब कहाँ किस प्रकार अपनी योगमाया शक्ति का विस्तार करके खेल करते हैं यह किसी के ज्ञानगम्य होने की चीज नहीं है।

इस प्रकार नाना स्थानों में माया और योगमाया का परिचय मिलता है और परस्पर कुछ विभिन्नता उसमें पायी जाती है। इस विभिन्नता की ओर देखने से माया का कार्य होता है श्रीकृष्ण-भजन-विमुख जीवों पर असर करना और योगमाया का काम होता है भगवान का कार्य सुसम्पन्न करना। भगवान के कार्य को जो सम्पन्न करती हैं वह योगमाया; चाहे उनको ढक करके करें चाहे प्रकाश करके।श्रीचैतन्यमहाप्रभु के सिद्धान्तानुसार-माया और योगमाया यह द्विविध नाम आते है।

मायामुग्ध-जीवेर नाहिं स्वतः कृष्ण ज्ञान।
तथा
योगमाया चिच्छक्ति विशुद्ध सत्त्व परिणति।

मायामुग्ध हो जीव है उनको स्वयं श्रीकृष्ण का ज्ञान नहीं होता। गुरुचरणाश्रित-भगवच्चरणाश्रित होने पर भगवान की कृपा से माया का अपसरण होने से उनको ज्ञान होता है। कृष्ण को पहचानते हैं। योगमाया भगवान की चित शक्ति है। यह विशुद्ध सत्त्व में परिणित होकर भगवान के साथ रहती हैं। भगवान का काम करती रहती है। इसलिये यह दो नाम और इनके दो भेद हैं। इसके बाद इनके सम्बन्ध में बहुत अधिक और विवेचन है। भगवान की लीला में देखा गया है कि-

इत्थं विदिततत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वरः
वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभुः॥
माँ यशोदा को पति पुत्रादि के ममता पाश से छूटने के लिये प्रार्थना करते हुए देखकर सर्वनियन्ता सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ने वैष्णवी माया का विस्तार किया और उससे यशोदा मैया का जो स्नेह था, पुत्र से, वह सौ सौ गुना और बढ़ गया। उन्होंने मुँह में क्या-क्या देखा, सब बातों को भूलकर वह कहने लगीं कि न मालूम यह क्या इसके मुँह में दीख गया। यह कही किसी असुर का काम तो नहीं; तो जल्दी से गोद में उठाकर स्तनपान कराने लगीं कि मुँह में कुछ होगा तो इस स्तन के दूध के द्वारा सारा-का-सारा चला जायेगा। इन्होंने माता को मोहित कर लिया। किसलिये मोहित किया? कि रसभंग न हो। भगवान की इस लीला से देखा जाता है कि उनके एकान्त भक्त और निरन्तर सेवा कार्य में लगी हुई यशोदा मैया भी उनकी वैष्णवी माया से मुग्ध हो जाती हैं और ब्रह्म मोहन लीला में श्रीकृष्ण जब अपने आप असंख्य गोपबालक और गोवत्सरूप धारण करके गोष्ठ में क्रीडा कर रहे हैं तब एक दिन श्रीकृष्ण ही मानो द्वितीय मूर्ति बलराम बने हुए थे। भगवान की दूसरी मूर्ति बलराम जी-संकर्षणजी ने यह देखा कि ये व्रजवासी, गायें और ग्वाले-गोपियाँ श्रीकृष्ण की उपेक्षा करके अपने-अपने बालकों और गोवत्सों को इतना प्यार क्यों करते हैं? नयी चीज इन्होंने देखी।पहले हमेशा यह था कि गोप बालक जब घर आते श्रीकृष्ण के साथ तो उनकी माताएँ उन अपने बच्चों की ओर तो देखती नहीं। वह तो बेचारे घर में जाकर के कलेवा माँगते तब कहीं जाकर मिलता उन्हें और श्रीकृष्ण के साथ सब माताएँ प्रेम करने लगती और बछड़ों की ओर गायें नहीं देखती। अब बलदेव जी ने देखा यह बड़ा आश्चर्य कि श्रीकृष्ण की ओर इतनी गायें नहीं देखतीं और मातायें नहीं देखतीं और अपने बालकों को इस प्रकार से लालन-पालन, प्रेम-प्रीति करने लगीं-यह क्या कारण है? बलराम जी ने सोचा कि ये आश्चर्य की बात हो गयी क्योंकि ये व्रज की गायें और ये व्रज की गोपियाँ यह तो साधारण जीव हैं नहीं। यह तो बहिर्मुख जीव है नहीं; बहिर्मुख जीव यदि होते तो श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त होता ही नहीं-यह सारी भगवान की लीला।

अगर उस समय के व्रज के जीव, यहाँ की गायें, यहाँ के गोप, यहाँ की गोपियाँ, यहाँ के पशु-पक्षी, यहाँ की भूमि-ये यदि मायिक होती और ये जीव यदि बहिर्मुख होते तो इनको भगवान का सानिध्य प्राप्त होता ही नहीं। बहिर्मुख जीव ही भगवान को छोड़कर भोगों से, अपने पति-पुत्रों से प्रेम करते हैं। यह बहिर्मुखता का लक्षण है।
क्रमश:

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