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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीभगवान गोपियों को बुलाने के लिये जब वंशीनाद करने लगे तो वह वंशीनाद चौरासी कोस व्रजमण्डल में प्रतिनिनादित हुआ। परन्तु वह कानों में गया केवल उन गोपांगनाओं के जिनको बुलाया गया था। यह महाशक्ति का काम है। यह इतने ही कहकर रह जाते ‘रन्तुं मनश्चक्रे।’ ‘योगमायामुपाश्रितः’ क्यों कहा? योगमाया अर्थात भगवान की निज शक्ति, स्वयं महाशक्ति उस शक्ति को प्रकट करके उन्होंने ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ - रमण की इच्छा की जिससे उस शक्ति का जितना काम जहाँ पर जो-जो आयोजन उसके लिये आवश्यक था वह सारे आयोजन उद्दीपनादि वन शोभादि ये सब के सब उस शक्ति के द्वारा अपने आप बनते रहे; भगवान की बेजानकारी में ही।इसी प्रकार वंशीनाद से अपने आपको भूलकर श्रीगोपांगनाएँ श्रीकृष्ण के निकट जाने के लिये जब द्रुतगति से बड़ी तेजी से अपने अपने घरों से बाहर निकलीं; उस समय पति, पिता, भ्राता इत्यादि ने गतिरोध करने की चेष्टा की परन्तु महाशक्ति ने वहाँ भी काम किया। गोपियाँ उसे जरा सा भी न देखकर वंशीनाद का अनुसरण करके चलीं किन्तु किसी भी गोपी के माता ने, पिता ने, पति ने, भाई ने उनके साथ जाने की चेष्टा नहीं की। किसी ने किया हो तो बताओ? रोका लेकिन गये कोई नहीं। किसी ने उनका अनुसरण नहीं किया। वे सब के सब वापस लौट आये। प्रत्यावर्तन किया सबने और रासक्रीड़ा के सम्पादन में कहीं कोई आपत्ति नहीं आयी। न तो वंशीनाद को किसी दूसरे ने सुना कि आकर के उस बीच में रस भंग करते और न तो गोपियों के चलने पर भी उनके साथ वहाँ तक आये। श्रीकृष्ण की जिस शक्ति के प्रभाव से, श्रीकृष्ण के संकल्प और अनुसंधान के बिना ही; उनको बिना जनाये ही समस्त लीलाओं का सामंजस्य कर दिया, रासलीला में उस अचिन्त्य महाशक्ति की बड़ी आवश्यकता थी। इसलिये ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ के साथ ‘योगमायामुपाश्रितः’ कहना आवश्यक हुआ।

जो योगमाया की शक्ति है वह भगवान के लीला-सम्पादन के लिये विविध अघटन घटना करती रहती है। परमहंस शिरोमणि श्रीशुकदेवजी महाराज ने यह ‘योगमायामुपाश्रितः’ कहा। इस विशेषण के द्वारा भगवान की अघटन घटनापटीयसी शक्तिरूपा योगमाया का उल्लेख करके इस लीला में उनकी सामयिक प्रयोजनीयता, आवश्यकता, उपयोगिता का बखान किया। भगवान की इस परम मधुर लीलारम्भ का वक्तव्य शेष नहीं होता। ठीक-ठीक कहा नहीं जाता यदि ‘योगमायामुपाश्रितः भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ यह चीज नहीं होती। इसकी पूर्णता ‘योगमायामुपाश्रितः’ को लेकर ही हुई है। तो ऐश्वर्य, वीर्यादि, षडविध महाशक्ति निकेतन भगवान अपनी योगमायाशक्ति का पूर्ण विकास करके तब ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ - उन्होंने रमण की इच्छा की। यदि योगमाया का प्रकाश नहीं होता और गोपोंगनाओं से रमण में प्रवृत्त होते भगवान तो चीज नहीं होती। श्रीगोपांगनाएँ अपने आपको खो नहीं सकती क्योंकि उन्हें खोने देने में जो कारण है; वह सब उपस्थित हो जाते और भगवान का रासक्रीडारूप रमण भी माधुर्यमय नहीं होता। और न ही उसमें विशेष शक्ति का प्रयोजन करना पड़ता,निर्वासन निष्कासन आदि के लिये।योगमायाशक्ति का विकास हो जाने से गोपी प्रेम के अपने को भुला देने वाले भगवान उस गोपी लीलारस के समाधान के लिये जहाँ जो आवश्यकता हुई भगवान की बिना इच्छा के ही, भगवान के द्वारा नियुक्त उस योगमायाशक्ति ने वह काम अपने आप कर दिया। सारा सांमजस्य हो गया नहीं तो असांमजस्य हो जाता लीला में। कहते हैं कि यह आवश्यक है कि जब जैसी लीला करनी पड़ती है उसके अनुसार व्यवस्थापक को व्यवस्था पहले करनी पड़ती है। बिना व्यवस्थापक के काम चलता नहीं। यहाँ योगमाया ने इस काम को किया। भगवान ने भी यदि अपने परम मधुर रासक्रीड़ा के महोत्सव में लगकर शक्ति को नहीं बुलाया होता तो एक आदमी जो व्यवस्थादि करे और रसास्वादन भी करे तो दो काम हो नहीं सकते। यदि घर का काम करने वाला मालिक का काम भी करता रहे, आने-जाने वालों को पूछता भी रहे उनका समाधान भी करता रहे और कहाँ क्या करना है वहाँ वैसे बातये भी कि वहाँ चटाई बिछाओ, वहाँ दरी बिछाओ आदमी रखो, पानी का गिलास लाओ। इस प्रकार करता रहे तो दोनों काम बिगड़ जाते हैं। फिर हव आयोजन व्यर्थ हो जाता है। जिनको बुलाया उनसे बात न कर सके और बात करने में मन लगावे तो उधर व्यवस्था बिगड़ जाय। इसलिये इसमें यदि योगमाया शक्ति का प्राकट्य नहीं होता तो गोपी प्रेम में आत्महारा-अपने को खो देने वाले भगवान की यह लीला असम्पूर्ण रह जाती। इसलिये भगवान ने ‘योगमायामुपाश्रितः’ अर्थात योगमाया को प्रकट किया। अब योगमाया आयी कहाँ से; तो आ गयी थी लीला के पहले।

श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में जहाँ स्वयं भगवान के आविर्भाव की कथा का वर्णन है वहीं पर यह आता है कि दैत्य के भार से आक्रान्त पृथ्वी के दुःख से दुखित होकर जब ब्रह्मा जी क्षीरसागर के तटपर गये और क्षीरशायी नारायण की जब स्तुति की तो क्षीरसागरशायी भगवान ने ब्रह्मा को देववाणी में कहा-

विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत्।
आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे सम्भविष्यति॥
इस बार स्वयं भगवान पृथ्वी पर अवतीर्ण होंगे, स्वयं भगवान। उनकी जो परमऐश्वर्यशालिनी माया जिसके प्रभाव से सारा जगत मोहित रहता है वह माया भी केवल ऊपर-ऊपर से नहीं, भाव से नहीं-स्वयं अवतीर्ण होकर सारा प्रबन्ध करेंगी। जब स्वयं स्वामी अवतीर्ण हो रहे हैं; स्वयं भगवान तो स्वयं भगवती माया अवतीर्ण होकर सब प्रकार की लीला का सामंजस्य करेंगी-कहीं स्वयं जाकर, कहीं अपनी प्रेरणा से, कहीं भाव से। इसके बाद स्वयं भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर आविर्भूत होने के पहले अपने अग्रज बलराम को देवकी के उदर से आकर्षण करके रोहिणी के गर्भ में अवस्थापन के समय बोले-

भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम्।
यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत्।
गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलंकृतम्॥

भगवान ने आज्ञा दी कि योगमाया! अब तुम जाओ। भगवान ने जब यह जाना कि हमारे परम भक्त यादव कंस के द्वारा भाँति-भाँति से उत्पीड़ित हो रहे हैं और वे अब शीघ्र ही पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर स्वयं सबका दुःख नाश करेंगे तो अपनी शक्ति योगमाया को व्रज में जाने का आदेश दिया। इससे भी यह बात सिद्ध होती है कि श्रीकृष्ण के अवतीर्ण होने के प्रारम्भ में ही योगमायाशक्ति का कार्य आरम्भ हो गया। उसके बाद परम मधुर लीला में जहाँ-जहाँ, जैसा जैसा प्रयोजन हुआ उसी उसी प्रकार से योगमाया शक्ति का कार्य प्रकट होता गया।
क्रमश:

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