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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

सबके नहीं आता किसी-किसी के ऐसा सौभाग्य का क्षण आता है जब विषय में विराग की उत्पत्ति होती है। विषय बुरे लगते हैं कि इनमें तो फँसना ही फँसना है, दुःख ही दुःख है। तब उसके मन में उससे छूटने की कामना होती है। इसका नाम ‘मुक्ति-कामना।’ पर जो मुक्तिकामी हैं वे मुक्ति की कामना तो करते हैं पर भगवान में ममता समर्पण करना उनका काम नहीं है। ममता समर्पण वे नहीं कर सकते। वे तो दुःख से निवृत्त होने के लिये, बन्धन से मुक्त होने के लिये मुक्ति की कामना करते हैं और वे आत्म-साक्षात्कार करके मुक्त हो जाते हैं। बड़ी ऊँची स्थिति है। उनके मन में लौकिक भोग-कामना नहीं रहती। उनके मन में लौकिक सिद्धि-कामना नहीं रहती। क्योंकि वह महात्मा लोग लोक-परलोक में दुःख-दैन्यादि का अनुभव कर लेते हैं। इसलिये वे महात्मा मुक्तिलाभ के लिये प्रयत्न करते हैं और मुक्ति प्राप्त करके आत्ममरण करते हैं।यह बिल्कुल सच्ची बात परन्तु लाख चेष्टा करने पर भी भगवान में ममता समर्पण करके वे कहीं प्रेम-सागर में बहने लगें यह नहीं होता। इसीलिये भगवान शंकर के वाक्य हैं-
भुक्तिमुक्तिस्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते।
तावत् प्रेमसुखस्यात्र कथमभ्युदयो भवेत।

जब भोग और मोक्ष की स्पृहा रूपी पिशाची जीव के हृदय में वर्तमान है; जागरूक है तब तक प्रेमसुख के आस्वादन का अवसर ही नहीं आता। तो चैतन्य भगवान के जीवन में आया कि

भुक्ति-मुक्ति-आदि वाञ्छा यदि मने हय।
साधन करिले प्रेम उत्पन्न ना हय।
भुक्ति-मुक्ति की वांछना यदि मन में वर्तमान होती है तो साधना करने पर प्रेम उत्पन्न नहीं होता। ज्ञान मिल जायेगा। भगवान के गुण, लीला श्रवण से जिनका चित्त भगवान के गुणों पर मुग्ध हो गया और किसी प्रकार भी कोई विवेचना न करके, तर्क न करके, इसमें क्या लाभ होगा, इसमें क्या हानि होगी-इस प्रकार सोच-विचार न करके जिसका चित्त भगवान की सेवा प्राप्ति के लिये व्याकुल हो गया, भगवान को अपना बनाने के लिये जिनका जीवन मचल उठा। ऐसे एकमात्र वही लोग हैं जो सारी ममता भगवान को अर्पणकर सकते हैं नहीं तो कुछ-कुछ रख लेते हैं।

अगर बोलें इनको सुखी बनाने से अपने को ‘सुख हो जायेगा। तो अपने सुख की ममता रह गयी। और अपने सुख की जब तक ममता है चाहे किसी वस्तु में नहीं हो। अपने सुख की भावना में यदि ममता है तो ममता का पूर्ण समर्पण हुआ नहीं। यह तो तब होता है जब सेव प्राप्ति के लिये चित्त व्याकुल हो जायेगा। हमारा तो उनकी सेवा के लिये ही सब कुछ है। सेवा प्राप्ति के लिये जब चित्त व्याकुल होता है तब सेव्य का सुख सामने आता है। तब सेव्य के सुख के लिये ममता का समर्पण पूरा होता है। ऐसे जो भाग्यवान जीव हैं वे सब प्रकार की ममता समर्पण करके प्रेमरस में निमग्न रहने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। ऐसे भाग्यवानों में न तो भुक्ति की वांछा रहती है और न मुक्ति की और न सिद्धि लाभ की अथवा देह-देहादि में आवेश जनित महादुःख की। देह में और दैहिक पदार्थों में जो आवेश जनित दुःख है इसको सुख मान रखा है। देह में और देहादिक पदार्थों में जो आवेश जनित भाव है यही महादुःख है। सारे दुःखों का जन्म यहीं से होता है।इस ओर नहीं देखते हैं इसको सुख मान लेते है। लेकिन जो भाग्यवान व्यक्ति हैं वे कहते हैं कि भई! हमको इसकी परवाह नहीं। हमको चाहे जो बना दो। विद्या पति ने एक पद में कहा है बड़ा सुन्दर कि-
यह मानुष पशु पांखी जन्मे अथवा कीट-पतंग।
कर्म विपाके गतागति पुन पुन मतिर्हुत्वा प्रसंग॥
यह मैथिली भाषा में है। कहते हैं कि प्रेमास्पद भगवान हमें इस बात की चिन्ता नहीं कि जन्में, मनुष्य बने, पशु बने पक्षी बने अथवा कीट-पतंग बने अथवा कर्म के विपाक से बारम्बार हमारा आना जाना होता रहे परन्तु हमारा मन तुम में लगा रहे, बस। हमारा मन तुम में लगा रहे और गति-वति कुछ भी हो। इस प्रकार के जब मनोगत भाव होता है तब प्रेम सच्चा। तुलसीदास जी महाराज ने कहा है-
कुटिल करम लैं जाहि मोहि जँह जँह अपनी बरिआई।
तँह तँह जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ अंडकी नाई॥
इस प्रकार से जो भगवान को अपना सर्वस्व अर्पण करके, सारी ममता उन्हें देकर श्रीभगवान के चरण-सेवा की आकांक्षा ही जो रखते हैं उनके इस प्रकार के चित्त की जो गति है उसका नाम है ‘शुद्धा भक्ति।’ उसका नाम है निर्गुणाभक्ति’, प्रेमाभक्ति। यह भक्ति रहती है श्रीगोपांगनाओं में इसलिये इस प्रसंग में यहाँ पर श्रीकृष्ण भगवान का रमण रसास्वादन है,यह श्रीगोपांगनाओं में स्वरूपानन्द वितरण है। यह यहाँ रमण का अर्थ है-
भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः॥

भगवान की इस मधुरतम रासक्रीड़ा में लीला विशेष माधुर्यमयी है। ऐश्वर्य, वीर्यादि, षडविध महाशक्ति के निकेतन श्रीभगवान गोपियों के परम प्रेम में आत्महारा-अर्थात अपने को खोकर-अपने को भूलकर और अपने समस्त ऐश्वर्य को भूलकर गोपर मणियों की वासना के अनुरूप लीला में प्रवृत्त हुये। भगवान यदि अपनी भगवत्ता की बात याद रखकर सर्वज्ञता सर्वशक्तिमत्ता आदि शक्तियों का प्राकट्य करके लीला करते तो इस लीला में इतना माधुर्य नहीं रहता। वे स्वयं अपने सब प्रकार के ऐश्वर्य को भूलकर श्रीगोपांगनाओं के प्रेमाधीन होकर लीला करने में प्रवृत्त हुये। इसीलिये यह लीला सर्वलीला मुकुटमणि कहलायी और सबके द्वारा समादृत हुई, प्रसिद्ध हुई। इस लीला में गोपियों ने अखिल ब्रह्माण्ड पति स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को अपने प्राणवल्लभ के रूप में माना और मधुर रसोचित विविध विहारों के द्वारा उनका आनन्दवर्धन किया और प्रेमाधीन भगवान भी अपने ऐश्वर्य आदि की बात भूलकर गोपीजनवल्लभरूप में ही लीला में अभिनय किये। अतएव इस लीला में गोपियों को श्रीभगवान के स्वरूप और ऐश्वर्यादि के अनुसंधान की आवश्यकता नहीं हुई और भगवान भी अपने स्वरूप के अनुसंधान से रहित होकर लीला करने लगे। यहाँ गोपियों का प्रेम भी अपने आपको भुला देने वाला और भगवान की प्रेमधीनता भी अपने आपको देने वाली है। परन्तु उसका यह अर्थ नहीं कि भगवान की शक्ति कहीं चली गई हो। भगवान इसमें अपने-आपको खो देने वाले होकर भी लीला में जब जहाँ जैसी शक्ति के प्राकट्य का अवसर आया वहाँ वैसे किया। इसीलिये कहीं पर असमंजस नहीं हुआ।
क्रमश:

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